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कैथोलिक पादरी रहे पी.बी. लोमियो इन दिनों अपनी पुस्तक 'ऊंटेश्वरी माता का महंत' के लिए चर्चित हैं। इसमें उन्होंने चर्च की विकृतियों को समाज के सामने लाने का साहसिक प्रयास किया है। उनका कहना है कि चर्च में भ्रष्टाचार, व्यभिचार आदि का बोलबाला था, है और बढ़ता जा रहा है। चर्च के लोग गरीबों की सेवा के नाम पर लिए गए चन्दे से मौज-मस्ती का जीवन जी रहे हैं। यहां प्रस्तुत हैं अरुण कुमार सिंह की उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश
-हाल ही में आपकी एक पुस्तक 'ऊंटेश्वरी माता का महंत' आई है। इसकी विषय-वस्तु को देखते हुए लगता है कि आप चर्च से नाराज हैं। क्या कारण है?
मैं चर्च से नाराज नहीं हूं और न ही उसका विरोध करता हूं। मैं चर्च में जारी भ्रष्टाचार, व्यभिचार और अनाचार का विरोध करता हूं। चर्च के लोग कर्तव्य-परायणता से विमुख हो गए हैं। ऐसे लोगों से मैं नाराज हूं। जहां तक इस पुस्तक की बात है, इसमें चर्च में हो रहे अनैतिक कार्यों को समाज के सामने लाने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक में यह भी बताया गया है कि किस तरह चर्च के लोग इस देश के साथ धोखा कर रहे हैं। इससे पहले मेरी एक पुस्तक 'बुधिया की सत्य कथा' आई थी। उसमें भी चर्च से जुड़े कुछ लोगों की हकीकत बताई गई है। चर्च में विकृति आ गई है। इसको देखकर हम जैसे अनेक लोग सुधार लाने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में ये पुस्तकें सामने आ रही हैं। समाज में कुछ लोग भटक गए हैं। उनको सही जीवन जीने का तरीका मिले, वे देश और समाज के प्रति निष्ठावान बनें, ये बताना बहुत जरूरी है। ऐसे लोग देश और समाज से लेना तो बहुत कुछ चाहते हैं, पर देना कुछ नहीं चाहते हैं। यही नहीं ऐसे लोग देश के साथ धोखा भी कर रहे हैं। कई लोग तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर साजिश भी रच रहे हैं।
चर्च से नाराज अनेक लोगों ने आत्महत्या की है। आखिर उन लोगों के सामने ऐसी क्या मजबूरी है कि वे अपनी जान तक दे रहे हैं?
जो लोग कन्वर्ट होकर ईसाई बने अब उन्हें लगने लगा है कि उनकी आस्था के साथ धोखा और विश्वासघात हुआ है। ईसाई बनने से पहले ऐसे लोगों को लगता था कि चर्च एक पवित्र जगह है और वे भी हर तरह से पवित्र रहेंगे, पर ईसाई बनने के बाद उन्हें चर्च की असलियत पता चली। ऐसे लोगों को ईसाई बनाने के लिए तो अनेक लालच दिए गए थे, पर उनमें से एक भी पूरा नहीं हुआ। वे जब कुछ कहते हैं तो उनकी कोई नहीं सुनता, चर्च के लोग भी उनकी अनदेखी करते हैं। उन्होंने एक सुखद भविष्य की आस लेकर अपना धर्म छोड़ा, अपना घर और परिवार त्यागा, लेकिन आज उन्हें क्या मिला? वे हताश हैं, निराश हैं। यही निराशा उन्हें आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर कर रही है। चर्च जो कुछ भी करता है गरीबों के नाम पर करता है। चाहे मिशनरी स्कूल हों या अस्पताल, इन सबका निर्माण गरीबों के नाम पर हुआ, इन्हीं के नाम पर चंदा लिया गया। लेकिन आज हो क्या रहा है? जितने भी मिशनरी स्कूल और अस्पताल हैं, उनमें गरीब प्रवेश तक नहीं कर सकते। कोई गरीब, चाहे वह ईसाई ही क्यों न हो, वह अपने बच्चे को किसी मिशनरी स्कूल में पढ़ा नहीं सकता है। मिशनरी स्कूलों में पैसे वालों, नेताओं और बड़े अधिकारियों के बच्चे मोटी रकम चुका कर पढ़ते हैं। इसी तरह मिशनरी अस्पतालों में भी समाज का उच्च वर्ग जाता है। मैं झांसी में रहता हूं। वहां एन.टी.पी.सी., सेना और कई बड़े सरकारी विभागों के कार्यालय हैं। उन सभी के विद्यालय और अस्पताल हैं, लेकिन उन विभागों के अधिकारियों के बच्चे मिशनरी स्कूलों में पढ़ते हैं और उनकी पत्नियां मिशनरी अस्पतालों में बच्चों को जन्म देती हैं। वे लोग अपने विभागीय विद्यालयों और अस्पतालों में क्यों नहीं जाना चाहते?
कन्वर्जन करते समय चर्च लोगों को कहता है कि ईसाई बनो, तुम्हें नौकरी मिल जाएगी, तुम्हारे बच्चे अच्छी पढ़ाई कर लेंगे। क्या सच में ऐसा होता है?
ऐसा बिल्कुल नहीं होता है। अधिकांश लोग ठगा-सा महसूस करते हैं। हां, उन्हीं लोगों को ये चीजें मिलती हैं, जो पूरी तरह उनके 'दास' हो जाते हैं। अधिकांश लोग माली, चपरासी जैसे पदों पर ही जीवन बिता देते हैं। किसी को कोई ऊंचा पद नहीं दिया जाता है। कोई अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ना चाहता है तो उसे भी चर्च के लोग रोकते हैं, उन्हें अपनी बराबरी में आने नहीं देते हैं।
अनेक पादरियों पर बलात्कार और हत्या के आरोप लगते रहे हैं और ये सारे काम चर्च के अंदर हो रहे हैं। क्या चर्च के अंदर सब ठीक नहीं है?
हां, यह बात सही है कि आज अनेक पादरी ऐसे हैं, जिन पर बलात्कार और हत्या के मामले चल रहे हैं। कई ऐसे मामले भी हैं जिनकी जांच चल रही है। लेकिन ये लोग इतने प्रभावशाली और पैसे वाले हैं कि इनका कुछ नहीं बिगड़ता है। उल्टे जो लोग इन पर आरोप लगाते हैं वही प्रताडि़त और परेशान होते हैं। केरल की नन अभया का मामला तो बहुत ही गंभीर है। उसने आपत्तिजनक स्थिति में दो पादरियों को एक नन के साथ देख लिया था। इसके बाद पादरियों ने उसे भी अपनी टोली में शामिल करने का प्रयास किया और जब वे असफल रहे तो उन्होंने अभया की हत्या करवा दी। कई चर्चों में तो ननों के साथ बलात्कार होता है, वे गर्भवती हो जाती हैं, लेकिन वे कुछ कर नहीं पाती हैं।
लोग आरोप लगाते हैं कि चर्च भारत के पूर्वोत्तर और वनवासी इलाकों में सेवा के नाम पर कन्वर्जन कर रहा है। इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं?
जब भारत स्वतंत्र हुआ तो लोगों को लगा कि हम अंग्रेजों की राजनीति से मुक्त हो गए, लेकिन सच बात तो यह है कि आजादी के बाद भारत पर पूरे विश्व, खासकर पश्चिम की राजनीति हावी हो गई है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि चर्च इस राजनीति को भारत में आगे बढ़ाने का काम करता है। यह राजनीति और आगे तेजी से बढ़े इसके लिए लोगों का कन्वर्जन किया जाता है। मुसलमानों ने अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए ही भारत के लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बनाया था। वही नीति चर्च की भी है। चर्च सोचता है उसके अनुयायियों की जितनी संख्या बढ़ेगी, यहां की शासन व्यवस्था पर उसका उतना ही दबदबा बढ़ेगा। इस समय भारत में लगभग चार करोड़ ईसाई हैं। इनमें से लगभग ढाई करोड़ लोग चर्च के इशारे पर चलते हैं और बाकी लोग स्वतंत्र व्यवस्था के अंतर्गत अपनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। चर्च की सारी गतिविधियां विदेशी चंदे पर निर्भर हैं। चर्च से जुड़े कुछ लोग विदेशी ताकतों के लिए भी काम करते हैं। चर्च एक साजिश के तहत काम कर रहा है। चर्च का उद्देश्य भारत के ईसाइयों की सेवा करना होता तो वह उनकी सेवा करता, पर वह तो भारत के उच्च वर्ग के लिए काम करता है। चर्च भारत के उच्च वर्ग को प्रभावित कर यहां पश्चिमी देशों की राजनीति को लागू करना चाहता है और यहां शासन करना चाहता है।
चर्च को बेनकाब करती 'ऊंटेश्वरी माता का महन्त'
184 पृष्ठ की यह पुस्तक छोटी सी है लेकिन चर्च को पूरी तरह बेनकाब करती है। चर्च में किसी नन के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है, किसी घटना पर मुंह खोलने के बाद किसी को कैसी सजा दी जाती है, विदेशी चन्दे पर पादरी और उनके अनुयायी कैसा जीवन जीते हैं, इन सबकी जानकारी यह पुस्तक देती है। पुस्तक में यह भी बताया गया है कि जब कुछ लोग अपने अधिकारों की बात करते हैं तो उन्हें मानसिक रोगी बताकर जबरदस्ती किसी मिशनरी अस्पताल में पहुंचाने का प्रयास किया जाता है। ऐसा ही कुछ फादर विलियम प्रेमदास चौधरी के साथ हुआ है। वे कन्हेई गांव, सेक्टर-44, गुड़गांव में रहते हैं। वे वंचित परिवार से हैं। 10 अप्रैल, 1991 को वे दिल्ली में फादर बने थे। फादर बनते ही उन्होंने अपने गांव-समाज के गरीब लोंगों की भलाई के लिए योजनाएं बनानी शुरू कर दीं। दिल्ली आर्च डायसिस से उन्होंने मदद की मांग की, लेकिन उन्हें तब बड़ा धक्का लगा जब पता चला कि दिल्ली डायसिस में तो वंचित ईसाइयों को अछूत माना जाता है। अत: उन्होंने 'दलित' ईसाइयों के अधिकारों की बात करनी शुरू कर दी। उन्होंने विदेशी चन्दे को लेकर हो रहे भ्रष्टाचार पर भी खुलकर बोलना शुरू किया। इस पर उन्होंने एक पुस्तक भी निकाली। उनके विरोध को दबाने की पूरी कोशिश की गई, लेकिन वे लोग उनकी आवाज को दबा नहीं पाए। फलस्वरूप उन्हें दिल्ली आर्चबिशप के निवास से जुड़े 'कलर्जी होम' में कई वर्ष रखा गया। इसी दौरान दिल्ली के आर्चबिशप ने उन्हें मानसिक रोगी बताकर बेंगलुरू भेजने की असफल कोशिश की। 300 रुपए की इस पुस्तक को यहां से मंगा सकते हैं- जे.के. इन्टरप्राइजिज, डब्ल्यू बी-27,प्रथम तल, शकरपुर, दिल्ली-110092
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