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पहले कुछ तथ्य जो कि, अब इतिहास का हिस्सा हैं।
घटना फरवरी 1986 की है। दिल्ली और उत्तर प्रदेश, दोनों ही जगह (केंद्र में राजीव गांधी और राज्य में वीर बहादुर सिंह के नेतृत्व वाली) कांग्रेस सरकारें थीं। फैजाबाद न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि पर असंवैधानिक रूप से लगाए गए ताले खुलवाने का आदेश दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैसले के विरोध में मुसलमान सड़क पर उतर आए। खासकर मेरठ में कई हत्याएं हुईं। कई घर-दुकान फूंके गए। हाशिमपुरा, शाहपीर गेट, गोलाकुआं, इम्लियान सहित कई मुस्लिम मोहल्लों में सेना की तलाशी में भारी मात्रा में हथियार और विस्फोटक मिले। तलाशी में हजारों लोगों को पकड़ा, गिरफ्तार किया और जेल भेजा गया। इसी सब के बीच 22 मई, 1987 की रात को हाशिमपुरा कांड हुआ। इस घटना में 40 मुसलमान मारे गए। आरोप था कि पीएसी ने मुसलमानों को इकट्ठा किया और गंग नहर के किनारे उनको मार डाला गया।
घटना में कहानी कितनी है, तथ्य कितना, अब यह बहस से परे की बात है। दंगे, दंगाइयों और खाकी की भूमिका की हर तरह से पड़ताल के बाद दिल्ली की एक अदालत ने 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए कथित नरसंहार के आरोपी रहे 16 पुलिसर्किमयों को बरी कर दिया है। मीडिया में फैसले पर पहले-पहल कोलाहल हुआ। अगले रोज अखबारों में सवाल उठे, लेकिन जैसे अचानक कोई संदेश सबके मन में कौंधा हो, सब एकाएक थम गया। क्या यह अनायास है? इसे समझने के लिए जरा गहरे उतरना होगा। देश में झूठ और वैमनस्य फैलाने की एक सेकुलर फैक्ट्री है। माहौल बनाने वाले मुद्दे ही इस फैक्ट्री का उत्पाद हैं। जो वोट डालने का अधिकार रखता है वह हर व्यक्ति इस सेकुलकर कंपनी का 'टार्गेट ऑडियंस' यानी लक्षित ग्राहक है। इस कारखाने में मुद्दे अंशधारकों की सुविधा का ध्यान रखते हुए ढाले और उछाले जाते हैं।
मुद्दा मानवीय हो, कतई जरूरी नहीं। कसौटी न्यायपूर्ण हो, कतई जरूरी नहीं। हां, अंशधारकों का मुनाफा पक्का करता हो, यह इकलौती और सबसे जरूरी बात है।
दिखावे का हल्ला ठीक-ठाक हो, मगर इतना भी न हो जाए कि मामला उल्टा अपने गले पड़ जाए, हाशिमपुरा मामले में सेकुलर कंपनी की यही सोच रही है। हाशिमपुरा यकीनन मुद्दा है। इसमें मरने वाले भी मुसलमान हैं लेकिन यह उस खास फैक्ट्री का उत्पाद नहीं है। क्योंकि उस वक्त केंद्र और राज्य, दोनों ही जगह कांग्रेस शासन था इसलिए मरे कोई भी, यह मुद्दा है ही नहीं। क्योंकि भले यह मुद्दा नहीं है मगर इसमें मुसलमान शामिल हैं इसलिए यह सिर्फ फौरी हाय-हाय है। इसे न तो ज्यादा उछाला जाएगा, न ही '87 के मेरठ दंगों के लिए 2002 के गुजरात दंगों की तरह नेता और राजनीतिक दलों की सोच पर कोई सवाल उठाए जाएंगे। तो क्या मुसलमानों का खून कांग्रेस के लिए सिर्फ सियासी नारे लिखने की स्याही है? तब के शासन और अब के फैसले को ईमानदारी से तौलता कांग्रेस 'आलाकमान' का कोई बयान आया क्या?
बहरहाल, आज जिस फैसले से मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा के जख्म ताजा हुए हैं, 1988 में इंडिया टुडे पत्रिका के लिए उस दर्द की रिपोर्टिंग पंकज पचौरी ने की थी। वही पंकज पचौरी जो पिछली सरकार में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे।
अपनी उस रपट की शुरुआत में पचौरी लिखते हैं, 'मजहब के नाम पर शुरू हुई मारकाट के बाद शासन और व्यवस्था के नाम पर नरसंहार हुआ।'
हाशिमपुरा दंगों के एक वर्ष बाद, मई 1988 में मलियाना की 72 साल की नफीस बेगम ने उनसे कहा, 'प्रधानमंत्री आए और चले गए लेकिन कुछ हुआ नहीं!' हाशिमपुरा के मोहम्मद उमर का दर्द भी उन्होंने बयान किया। बकौल उमर, उसके बेटे और दो पोतों को पीएसी ने दंगों के दौरान गिरफ्तार कर लिया था। गिरफ्तारी के पांच दिन बाद एक पोता अपने अब्बा की लाश लिए दादा के पास पहुंचा, लेकिन दूसरा पोता एक साल बाद भी लापता ही था।
मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा की स्थितियों का साक्षात्कार करने वाला पत्रकार, जिसने तब कांग्रेस शासन को कठघरे में खड़ा किया, आज उस पार्टी के बारे में क्या सोचता है जिसके प्रधानमंत्री को वह पिछले साल रिपोर्ट कर रहा था? बात साफ होनी चाहिए।
गुजरात दंगों के लिए अमित शाह और नरेंद्र मोदी को पानी पी-पीकर कोसने वाले गले मेरठ दंगों पर चुप क्यों बैठे हुए हैं, यह समझना चाहिए। और सबसे बड़ी बात, दंगों से सुलगते मेरठ में अपने मुस्लिम मरीज को देखने जाते जिन डॉ. अजय को मुस्लिम दंगाइयों ने ही जिंदा फूंक डाला उनके बारे में, गोधरा में बिना किसी उकसावे के साबरमती एक्सप्रेस की एस-6 बोगी में जिंदा जला दिए गए 69 लोगों के बारे में, सेकुलर कंपनी के अंशधारकों का क्या कहना है, यह उगलवाना चाहिए। अंत में एक और अल्पज्ञात तथ्य। हाशिमपुरा में निदार्ेष लोगों को निशाना बनाए जाने के खिलाफ मोर्चा लेने वालों में डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की अहम भूमिका रही है। झूठ के खिलाफ अड़ने और वंशवादी भ्रष्टाचार पकड़ने वाले स्वामी सेकुलर कंपनी की आंखों में गड़ते हैं। हाशिमपुरा की कहानी में इस नए मोड़ पर स्वामी आहत हंै और उनसे सुरक्षित दूरी बनाए सेकुलर आहत दिखने का ढोंग कर रहे हैं। सच के साथ रहना और ढोंगियों के नकाब उलटना इस समाज की, मीडिया की जिम्मेदारी है। आइये, नक्कालों के नकाब उलटते हैं।
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