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पद्मभूषण और पद्मविभूषण सम्मान प्राप्त प्रख्यात नृत्यांगना श्रीमती सोनल मानसिंह कई दशकों से राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय रही हैं। अनेक देशों में अपनी नृत्यप्रस्तुतियों से वह भारतीय कला और संस्कृति का लोहा मनवा चुकी हैं। वर्ष प्रतिपदा की सुबह दिल्ली में यमुना किनारे सूरघाट पर उनसे बात की पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने। प्रस्तुत हैं असंख्य श्रोताओं के समक्ष हुए इस सांस्कृतिक
संवाद के मुख्य अंश:-
ज्यादातर दिल्लीवाले अभी सो रहे हैं। लेकिन आप सुबह की मीठी नींद खराब करके इस समय यहां पहुंचीं, इतना बड़ा त्याग?
निद्रा जिसे नींद कहते हैं वह त्यागने लायक ही है, क्योंकि मैं कुछ ज्यादा जानती नहीं तो ज्ञान की बात नहीं कर सकती। यदि मन में किसी बात का उत्साह है तो वह उत्साह ही है, त्याग नहीं होता। मेरे मन में तो यह उत्साह था कि रात कब कटे और मैं सुबह यहां पहुंचूं। इसलिए आज इस समय यहां सूरघाट पर आना मेरे जीवन का बहुत बड़ा अनुभव है। मैं वर्ष 2001 में अपनी टोली के साथ विक्रम संवत् की सूर्योदय से पहले दशाश्वमेध घाट काशी पर थी। वहां मेरी टोली ने उगते सूर्य के साथ नृत्य प्रस्तुति दी थी। वाराणसी का वह अनुभव भी विलक्षण था।
आपने त्याग और उत्साह का संबंध बताया, कला-संस्कृति की पुरानी गुरु शिष्य परंपरा में पहले त्याग के लिए एक निश्चित जगह थी आज आप इसे किस जगह देखती हैं?
गुरु शिष्य परंपरा एक बहती सरिता की तरह है। गंगा की धारा को चाहे कितना भी रोकना चाहे वह रुकती नहीं है। जीवन का प्रवाह ही गंगा है। अज्ञान से भरी हुई अंधकार भरी आंखों में ज्ञान रूपी अंजन लगाकर जो आंखें खोलता है उसे ही गुरु कहते हैं। इसलिए गुरु अमर हैं और गुरु अमर हैं तो शिष्य भी अमर है। परंपरा अमर है, भले ही परिस्थितियां कुछ परिवर्तित हुई हों।
अमरत्व की ये सीढि़यां आसान नहीं बल्कि साधना का पथ हैं। आपने लंबी साधना की। इसके लिए आपको बहुत कुछ छोड़ना भी पड़ा होगा आपने क्या-क्या छोड़ा?
वैसे मैंने कुछ नहीं छोड़ा। चीजों ने मुझे छोड़ा। जिसको आप कहें कुटंुब परिवार, जिसको कहेंगे बौद्धिक सुख। सभी की परिभाषाएं अलग होती हैं। मेरे लिए तो मेरा नृत्य और उसके संदर्भ में जो भी आते गए वही मेरा परिवार। लोगों ने छोड़ा, मैंने किसी को नहीं छोड़ा, नृत्य ने मुझे नहीं छोड़ा और मैंने नृत्य को नहीं छोड़ा।
आज हम जिस जगह पर सोनल मानसिंह को देख रहे हैं उन्होंने लंबा सफर तय किया। आप ऊंची जगह पहुंचीं लेकिन कला क्षेत्र को आपने क्या लौटाया?
यह कहना कि कला के क्षेत्र में मैंने कुछ किया या उसे लौटाया तो ये तो बहुत बड़ी बात होगी। लेकिन एक सामाजिक सोच है जो समय के साथ बदली है। जब गुलामी के लंबे दौर से हम गुजरे और फिर इससे निकले तब नृत्य को नीची नजर से, घिनौनी दृष्टि से देखा जाता था। तब कहा जाता था कि नृत्य तो सिर्फ नाच-गाना है जबकि नृत्य हमारे पूर्वजों का, गुरुओं का आशीर्वाद है। शिव को नटराज की उपाधि क्यों दी हमारे पुरखों ने कोई बताए मुझे, क्योंकि नृत्य को जिस तरीके से भारतीय दर्शन में देखा गया, जिसका अनुभव किया गया वह नृत्य ही जीवन में सबसे श्रेष्ठ योग है। उसमें सारी कलाएं, सारे दर्शन, सारी विद्याएं समाहित हैं।
शास्त्रीय नृत्य की विभिन्न शैलियों पर आपकी पकड़ है मगर ओडिशी और भरतनाट्यम पर आप विशेष अधिकार रखती हैं लेकिन जब हम देखते हैं ओडिशी भरतनाट्यम से आगे दिखता है। आपके मन के तराजू का पलड़ा क्या किसी एक शैली की तरफ ज्यादा झुका हुआ है?
ये तो दर्शकों की बाहर की दृष्टि है। अच्छा हुआ आपने पूछ लिया भ्रम दूर कर दूं। मैंने सात वर्ष की उम्र में भरतनाट्यम सीखना शुरू किया और भरतनाट्यम में ही मेरा नाम प्रचलित हो चुका था। उसके बाद एक ओडि़या जीवन में आए और मेरे ससुर डॉ. मायाधर मानसिंह ने कहा कि तुम भरतनाट्यम की 'स्टार' हो लेकिन अब ओडिशा की बहू बनने जा रही हो तो अब ओडिशी सीखोगी? इस तरह मैंने ओडिशी सीखा। वैसे इस प्रश्न का उत्तर यह भी है कि भरतनाट्यम में पहले ही बहुत काम हो चुका था। ओडिशी नया क्षेत्र था जितना ओडिशी को हम समझ पाए और उसकी 'ट्रेडिशन' को बाहर लेकर आए इसलिए ये प्रश्न खड़े हुए। अब अगर पूछा जाए कि मेरी बाईं आंख और दांई आंख में मुझे कौन सी ज्यादा प्रिय है तो दोनों ही प्रिय हैं, दोनों ही एक दर्शन देती हैं।
बहुत कम लोग जानते हैं। एक बार आप मौत के मुंह से निकलकर आईं। खड़े होने की भी स्थिति नहीं थी। रीढ़ की हड्डी टूट चुकी थी। संघर्ष के इस दौर में आपने क्या किया?
जी, कैरियर के शिखर पर ये हादसा हुआ जर्मनी में। रीढ़ की हड्डी टूट गई और भी बहुत कुछ टूट गया था तो जर्मनी के डॉक्टरों ने कह दिया था कि दो वर्ष के बाद शायद चल पाए। मैं बोल नहीं पाती थी। कुछ नहीं था। बिल्कुल शव की तरह पड़ी थी, जीवन सूखे-सफेद फूल सा हो गया। देखिए बात फिर यहीं घूम-फिरकर आती है यदि भगवती ने आपके लिए कुछ निर्धारित किया है तो कहीं न कहीं से मार्ग बन जाता है। जब हमने आशा छोड़ दी तो कनाडा के एक के डॉक्टर ने मुझ से कहा कि मुझे एक मौका दो। उन्होंने जो-जो कहा वह मैं करती गई। वे कहते, याद करो जब तुम छोटी थी तो तुम क्या करती थी। मैं बार-बार गिर जाती थी रोती थी लेकिन मैंने कोशिश नहीं छोड़ी। आखिरकार 11 महीने बाद मैं फिर से खड़ी हुई। पहली बार खड़ी हुई तो गिर पड़ी। रो पड़ी, खुद से कहा, सब से कहा कि नहीं, यह मैं नहीं हूं। लेकिन फिर भी मैंने हार नहीं मानी। 1975 में दिल्ली आई और मेरा पहला कार्यक्रम दिल्ली के अशोक होटल में 4 मई 1975 को हुआ। दिल्ली के तमाम जाने माने लोग वहां मौजूद थे। जब मैं दो महीने बाद दोबारा डॉक्टर के पास गई तो उन्होंने कहा कि यह तुम्हारा विश्वास था जिसके चलते ईश्वर ने तुम्हारी सुनी और तुम्हें फिर से नृत्य के लायक बनाया।
यह संकल्पों की सुबह है। आज की सुबह सूर्य को साक्षी मानकर सोनल मानसिंह का क्या संकल्प है और नई पीढ़ी के लोगों को वह क्या संदेश देना चाहेंगी?
सोनल का अर्थ होता है स्वर्णिम, यानी 'गोल्डन'। तो आज सोनल संकल्प है सोनल सूर्य है। संकल्प तो प्रति क्षण है। आज विशेष संकल्प यह है कि संस्कार भारती के द्वारा दिए जा रहे संस्कारों की हम बात करें। इन्हें अपने जीवन में और समाज में भीतर तक उतारें। इस सुबह का संकल्प है कि संस्कारों पर स्थिर रहें,उन्हे थामे रहें। किन्ही संस्कारों की नींव जो कहीं हिल गई हो उनको फिर से मजबूत करें। इसके अलावा हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति, हमारी पहचान का सम्मान करें। इसको अखण्ड-अक्षुण्ण रखें।
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