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.देवेन्द्र स्वरूप
हस्रों दैनिक शाखाओं के संगठन-प्रवाह और राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी विशाल रचनाओं के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज भारत का सबसे बड़ा कर्म आंदोलन बन गया है। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद तो उस पर देश-विदेश की मीडिया की दृष्टि केन्द्रित हो रही है। अभी पिछल्ले सप्ताह ही मेरे घर पर एक मित्र आए जो 43 वर्षों से अमरीका के शिकागो नगर में रह रहे हैं। उन्होंने बताया कि आजकल अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य चल रहा है। वे जानना चाहते हैं कि संघ में ऐसा क्या है कि उसका एक प्रचारक रहा व्यक्ति भारत जैसे विशाल देश का प्रधानमंत्री बन गया, कई राज्यों के मुख्यमंत्री अनेकों केन्द्रीय और राज्यों के मंत्री गर्व के साथ घोषणा कर रहे हैं कि वे संघ के स्वयंसेवक हैं और रहेंगे। राजनेताओं और मीडिया को विश्वास है कि यह संघ के संघटन तंत्र का ही प्रताप है कि भारत में तीस साल बाद किसी एक राजनीतिक दल को लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिलने का चमत्कार घटित हुआ। इसलिए वे जानना चाहते हैं कि संघ का इतिहास क्या है? उसकी विचारधारा क्या है? यह जिज्ञासा लेकर जब वे संघ के इतिहास को टटोलने लगते हैं तो उसकी खोज एक व्यक्ति पर जाकर रुक जाती है। उनका नाम है डा.केशव बलिराम हेडगेवार। तब स्वाभाविक रूप में उनके मन में प्रश्न उठता है कि डा.हेडगेवार की विचारधारा क्या थी? उनका राजनैतिक दर्शन क्या है? यह खोज करते समय वे उलझन में पड़ जाते हैं कि डा.हेडगेवार ने विचारक या दर्शनकार होने का दावा कभी नहीं किया। वे विशुद्ध कर्मयोगी थे, संघटन शास्त्र के आचार्य थे। उनकी विचारधारा और राजनीतिक दर्शन को उनकी संगठन साधना की प्रेरणा और लक्ष्य को जानकर ही समझा जा सकता है।
नागपुर के एक निर्धन ब्राहमण परिवार में जन्मे हेडगेवार जन्मजात राष्ट्रभक्त और स्वतंत्रता सेनानी थे। यह पाठ उन्होंने किसी विचारधारा या संस्था का अंग बनकर प्राप्त नहीं किया। यह उनके अंत:करण में सहज रूप से स्फुरित हुआ जिसके लक्षण छह साल की आयु से ही प्रकट होने लग थेे। देश को स्वतंत्र देखने की उत्कट भावना ने उन्हें स्कूल से निष्कासित कर दिया, डॉक्टरी की शिक्षा के बहाने सशस्त्र क्रांति के गढ़ बंगाल में भेज दिया, प्रमुख क्रांतिकारी दल अनुशीलन समिति से जोड़ दिया और 1916 में डॉक्टरी की परीक्षा उर्त्तीणकर नागपुर वापस आने के बाद भी अपने परिवार की गरीबी को दूर करने के लिए डॉक्टरी का व्यवसाय करने के बजाय क्रांतिकारी गतिविधियों में झोंक दिया। लम्बे अनुभव से उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन की सीमाओं और दुर्बलताओं को पहचाना और तब उन्होंने 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूंगा।' जैसा उद्घोष करने वाले लोकमान्य तिलक को अपना प्रेरणा केन्द्र मान लिया। पर, 1 अगस्त 1920 को लोकमान्य के अनायास निधन के बाद गांधी जी के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया। 1921 के असहयोग आंदोलन में भाग लेकर जेल गये। उस आंदोलन की असफलता ने हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न पर उनकी दृष्टि केन्द्रित की। साथ ही, जेल में अपने मुसलमान साथियों की मानसिकता ने उन्हें सोचने के लिए विवश किया और तब उन्होंने पाया कि असहयोग आंदोलन में मुस्लिम योगदान की प्रेरणा भारत-भक्ति न होकर तुर्की के शासक के खिलाफत पद को बचाने की थी। इस्लामी विचारधारा भौगोलिक राष्ट्रवाद पर आधारित राष्ट्रभक्ति स्वीकार्य नहीं है, वह मजहब को ही मुस्लिम एकता का आधार मानती है। उम्मा का सिद्धांत उसकी नींव है जबकि हिन्दू समाज भारतमाता को पूजता है, देश की स्वाधीनता की कामना उसकी धमनियों में बहती है। इसलिए भारत को स्वतंत्र कराने के लिए हिन्दू समाज को संगठित करना आवश्यक है। दूसरा, विचार उनके मन में आया कि प्रथम विश्वयुद्ध में पराजित जर्मनी अपनी पराजय का बदला लेने के लिए 15-20 वर्षों में द्वितीय विश्वयुद्ध छेड़ सकता है और वही अवसर भारत की स्वतंत्रता के लिए निर्णायक प्रयास करने का होगा। इन अनुभवपूत निष्कर्षों पर पहुंचकर डा.हेडगेवार ने 1925 की विजयादशमी पर अपने घर पर 15-20 समानधर्मी मित्रों की बैठक में घोषणा की कि हम आज संघ को प्रारंभ कर रहे हैं। उस समय वे अकेले थे पर द्वितीय विश्वयुद्ध तक एक अखिल भारतीय युवा संगठन खडृा करने का उनका संकल्प था। संघ को प्रारंभ करते समय उन्होंने किसी विचारधारा का घोषणापत्र नहीं बनाया, कोई संविधान की रचना नहीं की, संघ का स्वयंसेवक बनने के लिए कोई शुल्क या नियम निर्धारित नहीं किये। उन्होंने एक अभिनव कार्यपद्धति आविष्कृत की जिसमें नित्य इकट्ठे आकर भारत की मिट्टी में खेलना, भारत माता की जय के साथ विसर्जित होना और भगवा ध्वज को गुरु स्थान पर रखकर अपने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने और उसे परम वैभव के शिखर पर ले जाने की प्रतिज्ञा की व्यवस्था की।
डॉ. हेडगेवार की संगठन साधना का लक्ष्य था जाति, भाषा, पंथ और क्षेत्र से ऊपर उठकर पूरे भारत में बिखरे हिन्दू समाज को संगठित करना, यानी प्रत्येक स्वयंसेवक में राष्ट्रभक्ति, शौर्य और अनुशासन भावना का संचार करना। डॉक्टर जी का विश्वास था कि यह कार्य शब्दाचार या प्रवचनों के द्वारा नहीं होगा उसके लिए प्रत्यक्ष व्यक्तिगत सम्पर्क के द्वारा अपनी राष्ट्रभक्ति की भावना को अन्य स्वयंसेवकों में संचारित करना होगा। संक्षेप में, उनके संगठन शास्त्र का मूल सूत्र था, 'एक दीप से जले दूसरा, ऐसे अगणित होवें' और इस संगठन मंत्र को साकार रूप देने के लिए उन्होंने स्वयं को समस्त सार्वजनिक गतिविधियों और राजनैतिक प्रपंचों से अलग कर पूरी तरह संघकार्य में विलीन कर दिया। उन्होंने अर्थेषणा, कामेषणा व लोकेकृषणा की तीन मानवी रचनाओं का परित्याग कर आत्माविलोपी संगठन साधना का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। यदि उस संगठन साधना की परिणति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में न होती तो आज डॉ. हेडगेवार का नाम भी कोई न जानता। इसीलिए संघ में प्रचलित एक गीत की दो पंक्तियां डॉ. हेडगेवार का वास्तविक चित्रण करती हैं-
थे अकेले आप लेकिन बीज का था भाव पाया।
बो दिया निज को अमरवट संघ भारत में उगाया।
डॉ.हेडगेवार की निष्काम आत्मविलोपी राष्ट्रभक्ति का प्रवाह ही पिछल्ले नब्बे साल से संघ के माध्यम से प्रवाहित हो रहा है। उनकी एकमात्र चिंता थी कि संघकार्य अर्थात स्वतंत्रता कामी युवा शक्ति का देशव्यापी विस्तार जल्दी से जल्दी कैसे हो। उनकी दूसरी चिंता थी कि संगठन कार्यपूर्णता पर पहुंचने से पहले ब्रिटिश सरकार को प्रहार करने का अवसर देने से कैसे बचा जाए। इसलिए उन्होंने प्रयत्नपूर्वक स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य की सार्वजनिक मंचों से घोषणा नहीं की किंतु जल्दी से जल्दी उस लक्ष्य पर पहुंचने के लिए स्वयंसेवकों को स्मरण दिलाया कि हमें अपने लक्ष्य को इसी देह और इन्हीं आंखों से (याचि देही, याचि डोला) पूर्ण होते देखना है। उन दिनों संघ में एक वाक्य प्रचलित था, 'संघ को अपनी रजत जयंती नहीं मनाना है, अल्पकाल में लक्ष्य पूर्ण कर समाज में विलीन हो जाना है।' यह ध्यान देने की बात है कि डॉ.हेडगेवार ने अपने जीवन काल में संघ का अखिल भारतीय बीजारोपण हो जाने के बाद भी पूरे भारत में संघ कार्यालय के नाम पर कभी भवन का निर्माण नहीं किया, यहां तक कि नागपुर में भी नहीं किया। दस मंजिले भवन के निर्माण की तो वे कल्पना भी नहीं करते थे। संघ स्थान ही उनकी एकमात्र कार्यशाला थी। अपने लंबे अनुभवों से जो राजनीतिक दर्शन उनके मन में विकसित हुआ था उसे उन्होंने संघ के तीन मूलतत्वों में शब्दबद्ध कर दिया-
1-हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है।
2-भगवाध्वज ही राष्ट्र ध्वज है।
3-संगठन में ही शक्ति है।
यहां ध्यान देने की बात यह है कि उन्होंने हिन्दू शब्द को धर्म वाची अर्थ में नहीं देखा अपितु राष्ट्रवाची अर्थ में देखा इसीलिए उन्होंने संघस्थापना के बाद पहले छह महीनों में संघ का कोई नामकरण नहीं किया। छह महीने बाद प्रमुख कार्यकर्त्ताओं के साथ सामूहिक चर्चा में अनेक नाम आमंत्रित किये उनमें से हिन्दू स्वयंसेवक संघ नाम उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने जानबूझकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम स्वीकार किया। संघ को उन्होंने समकालीन राजनीति से पूरी तरह अलग रखा। संघ की विशाल शक्ति को देखकर कई लोग प्रश्न उठाते थे आखिर इस शक्ति का उपयोग क्या यदि यह राजनीति में भाग नहीं लेता? अनेक बार अनेक लोगों के द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर एक बार डॉक्टर जी ने स्पष्ट किया, 'संघ पर दोषारोपण किया जाता है कि वह राजनीतिक मामलों में अपना हाथ नहीं बंटाता, परंतु हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए कि गुलाम राष्ट्र के लिए राजनीति का अस्तित्व भी नहीं रह सकता। अत: हमें प्रचलित राजनीतिक झमेलों से किसी प्रकार संबंधित रहने का कोई कारण नहीं है।' (परम पूजनीय डॉक्टर जी, प्रकाशक वा.रा.शेडेय, नागपुर, तीसरी आवृत्ति, 1903, पृष्ठ 66)
1938-39 में जब निजाम के अत्याचारों के विरुद्ध भागाा नगर सत्याग्रह हुआ तब हिन्दू महासभा के बहुत आग्रह पर भी डॉक्टर जी उसमें कूदने को तैयार नहीं हुए। महासभा के प्रवक्ता गो.गो.अधिकारी को उन्होंने उत्तर दिया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के नित्य कार्य की पूर्ति तक छोटे-छोटे नैमित्तिक कार्यों अपनी शक्ति को बिखेरने को हम तैयार नहीं हैं।
संघ के चौदहवें वर्ष 1939 में डॉक्टर जी ने अपने उदबोधन में कहा कि हमें किसी क्लब में व्यायामशाला या पाठशाला की तरह अनंत काल तक कार्य को चलाते रहना नहीं है। वहीं उन्होंने यह भी कहा कि हमने कभी यह तो नहीं सोचा था कि हम एक या दो वर्षों में स्वराज्य प्राप्त कर लेंगे किंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम स्वराज्य प्राप्ति के लिए अनंत काल तक कार्य करते रहेंगे।
यदि डॉक्टर जी का राजनीतिक दर्शन कहना हो तो वह पूरी तरह व्यावहारिक था। हिन्दू समाज को जाति व्यवस्था और ऊंच नीच व छुआछूत की भावना से मुक्त कराने के लिए उन्होंने प्रवचनों का सहारा नहीं लिया कोई राजनीतिक दर्शन नहीं बघारा अपितु दैनिक शाखा पद्धति के माध्यम से जाति भावना शून्य राष्ट्रीय समाज की रचना का उदाहरण प्रस्तुत किया स्वयं गांधी जी दिसम्बर 1934 में वर्धा जिले के शीत शिविर में इस सत्य का साक्षात्कार करके चकित रह गये थे। उस साक्षात्कार का गांधी जी पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि 12 सितम्बर 1947 को दिल्ली की वाल्मीकी कालोनी में स्वयंसेवकों के एकत्रीकरण को सम्बोधित करते हुए उन्होंने 1934 के उस अनुभव को दोहराया।
इसी प्रकार डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिनिष्ठा के बजाए तत्वनिष्ठा पर जोर दिया और इसके लिए स्वयं को या किसी अन्य व्यक्ति को संघ के गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही गुरुस्थान पर प्रतिष्ठित किया। उनकी दृष्टि में भगवाध्वज प्रतीक है भारत की अध्यात्म साधना और शौर्य बलिदान की परंपरा का। दैनिक शाखा में ध्वज प्रणाम और गुरुपूर्णिमा पर भगवाध्वज की पूजा करके दक्षिणा अर्पण करने की अभिनव प्रथा का उन्होंने श्रीगणेश किया। राजनेताओं की बड़ी दुर्बलता होती है प्रचार की भूख। इससे ऊपर उठने के लिए उन्होंने स्वयं आत्मविलोपी जीवन अपनाया और संघ के स्वयंसेवकों कोे भी इसी पथ पर बढ़ाया। संघ के प्रारंभिक चरण में एक गीत की दो पंक्तियां बड़ी लोकप्रिय थीं,
वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत समुहार
छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।
इसी आत्मविलोपी साधना में से यह विशाल कर्म आंदोलन पल्लवित पुष्पित हुआ है। पता नहीं, यहां जो कुछ लिखा गया वह राजतनीतिक दर्शन की श्रेणी में आता है या नहीं। ( 11 मार्च, 2015)
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और इतिहासकार हैं)
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