|
.रमेश पतंगे
डॉक्टर जी के जीवन की भव्यता की अनुभूति जिन्होंने पायी, वे भाग्यशाली हैं। हम जैसे जो कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने डॉक्टरजी को कहीं देखा तक नहीं, जब डॉक्टर जी के बारे में बोलने का साहस करते हैं तब वह काफी कठिन बात होती है। अनेक कार्यकर्ताओं के मन में डॉक्टर जी के लिए प्रगाढ़ श्रद्धा है। मैं जब अपने तक की सोचता हूं, तब मेरे जीवन पर सर्वाधिक वैचारिक प्रभाव अगर किसी महापुरुष का होगा तो वह डॉक्टर हेडगेवार का है। डॉक्टर जी के जीवन के माध्यम से हमें देखना है- समरसता क्या चीज है। डॉक्टर जी और डॉ. बाबासाहब अंबेडकर इन दो महापुरुषों को प्रेरणास्थान के रूप में हमने स्वीकार किया है। दोनों महापुरुषों के सामाजिक जीवन की जो दिशा है, क्या उसमें कहीं कुछ साधर्म्य है? और उसमें से समरसता कैसी दिखाई देती है? अपने भारतीय तत्वचिंतकों की ऐसी परम्परा है- जो प्रस्तुत करना हो उसकी अनुभूति लेना, उसके दर्शन करना और बाद में उसे अनुभूति के स्तर पर प्रस्तुत करना, केवल तात्विक सर्कस करना नहीं। अपने ऋषियों ने-उन्हें जो सत्य हाथ लगा उसे उप्निषदों में से प्रस्तुत किया। यह सत्य उन्होंने सूत्र रूप में प्रस्तुत किया। ॐ पूर्णं इदम्… आदि सूत्रों में उन्होंने सत्य व्यक्त किया है। किसी भी उननिषद को खोलकर देखा, तो उसमें ऋषियों की आत्मानुभूति व्यक्त करने वाले, सत्य का दर्शन कराने वाले कई सूत्र मिलेंगे। उसी प्रकार डॉ. जी की आत्मानुभूति व्यक्त करने वाले, सत्य का दर्शन करानेवाले कई सूत्र मिलेंगे। उसी प्रकार संगठन कौशल में हेडगेवार जी के मुख से मंत्ररूप जैसे 'यह हिन्दूराष्ट्र है' ये शब्द फूट पड़े हैं। मैं हिन्दू हूं- यह हिन्दू राष्ट्र है यह आपकी साक्षात्कारी जीवनानुभूति है।
यह इतनी उच्च कोटि की है कि उसके अंदर किसी भी प्रकार की विषमता, किसी भी प्रकार का द्वेषभाव, दूसरों के बारे में तुच्छता की भावना नहीं। लोग जब कहते हैं कि संघ मुसलमानों का विरोध करने के लिए शुरू हुआ, अहिन्दुओं का द्वेष करने के लिए संघ शुरू हुआ, तब उन पर हंसी आती है। वास्तव में जो समूची चराचर सृष्टि से भावनिक दृष्टि से एकरूप हुआ, जो मानसिक दृष्टि से एकरूप हुआ, वह उपरोक्त विकृतियों को लेकर सोच ही नहीं सकता, वह उनके जीवन की अनुभूति नहीं होती और डॉक्टर जी का दृष्टिकोण ऐसा है, कि जो सत्य मैं जानता हूं, जो सत्य मुझे प्राप्त हुआ है, जो मेरा अपना अनुभव है, वह मैं दूसरों में संक्रमित करूंगा, उसकी दूसरों को अनुभूति कराऊंगा।
समूचे समाज के विषय में एकात्मता का आपका भाव इतना चैतन्ययुक्त है, कि वह आपके जीवन में कई बार प्रकट हुआ है। डॉक्टर जी बहुत गरीब थे। कई बार घर में खाने-पीने के लिए कुछ है- नहीं है ऐसी स्थिति रहती। बाहर गांव से कोई स्वयंसेवक, मेहमान आए, तो घर में चाय बनाने के लिए कभी शक्कर दूध होगा, तो ईंधन न होगा। एक बार तो घर में रहे पीढ़े तोड़कर उनकी आग पर चाय बनानी पड़ी थी। खाना खाने के समय कोई स्वयंसेवक आया, तो डॉक्टर जी उसे भी खाना खाने बिठा लेते। कई बार ऐसी अवस्था में आप स्वयं भूखे रहते, पर बड़े आनंद से स्वयंसेवक को खाना खिलाते थे।
खुद भूखे रहकर दूसरे को खिलाना यह बात सुनने के लिए और पढ़ने के लिए भी आसान होती है, परन्तु फिर एक दिन का अनशन कर देखिए, कुछ भी न खाएं तब जाकर पता चलता है- भूख क्या है। फिर 'बुभुक्षित: किम् न करोति पापम्?' भूखा आदमी कौन सा पाप नहीं करेगा? इस सनातन सत्य की अनुभूति मिलेगी। डॉक्टर जी के चिंतन में से भेदभाव का विचार खोजना, द्वष्ेा खोजना ये सारी बातें हास्यास्पद हैं।
डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू संगठन ऐसा शब्दप्रयोग किया, सभी हिन्दुओ को एक समान भूमिका के ऊपर लाना है, एक समान स्तर पर लाना है। विचार तथा व्यवहार की एक समान भूमिका के ऊपर ला रखना है। इसे प्रत्यक्ष में लाने के अनेकों मार्ग हैं। हिन्दू समाज में जो अनगिनत भेद हैं, जो विषमता है उन सभी से कठोर संघर्ष कर, कठोर प्रहार करके उन्हें गाड़ डालने की भाषा डॉक्टर जी ने नहीं की। संघर्ष से हिन्दू संगठन संभव नहीं। पूजनीय डॉॅ. हेडगेवार ने कहा- 'हिन्दू समाज में इतनी हजारों जातियों के होते हुए भी इन सभी जातियों में एक गहरी सांस्कृतिक एकता है।' हम सब एक हैं इस एकता के विषय को लेकर उस पर बल देकर अपने हिन्दू संगठन की सारी यात्रा का आरेखन किया है।
हिन्दू जमात में एक अमृततत्व है, एक संजीवनी है। वह क्या है यह हमें डॉ. हेडगेवार ने बताया। असंभव माना जाने वाला हिन्दू संगठन आपने व्यवहार में निर्मित कर दिखाया। सत्य स्थिति में ला पहुंचाया। हिन्दुओं को जातिभेद भुलाने में हम सफल हो सकते हैं, हिन्दू होकर एक हैं, हम सब हिन्दुत्व की अनुभूति के माध्यम से एक दूसरे के भाई हैं, बंधु हैं, इस प्रकार की अनुभूति आपने निर्माण की।
डॉक्टर जी ने संघशाखा की जो कार्यपद्धति आरंभ की, उसमें आपने एक भी धार्मिक कर्मकांड नहीं लाया। सच्चे अर्थ में संघ की कार्यपद्धति में किसी भी पूजा पद्धति कर्मकांड के लिए कोई भी स्थान नहीं है, भजन, पूजन, कीर्तन जो करना है वह भारतमाता का। जय-जयकार करनी है, वह भारतमाता की। 'हेडगेवार की जय' इस घोषणा का हम उच्चारण भी कर नहीं सकते। हम सभी के भीतर एक ही चैतन्य है- इसलिए यह स्पृश्य-वह अस्पृश्य, यह श्रेष्ठ जाति का- वह कनिष्ठ जाति का इस विचार को डॉक्टर जी ने स्वीकार नहीं किया। सभी हिन्दुओं के साथ आपका व्यवहार-समत्व भावना का रहा।
हिन्दू अपने लिए पराया नहीं, वह अपना भाई है, इस बंधुभाव का आप जीवन भर आचरण करते रहे। सभी परिवारों में आप सहजता से संचार किया करते। सभी को एक-दूसरे के घरों में संचार करने के लिए कहा करते। निरंतर सहवास, एक-दूसरे के सुख-दु:खों में सहभागी होने की मानसिक रचना, आपने अपने उदाहरण द्वारा सभी के समक्ष रखी। पूजनीय डॉक्टर जी ने परस्पर जीवन कैसे जियें इस महान तत्व की सीख बहुत ही छोटे-छोटे उदाहरणों द्वारा सामाजिक स्तर पर दी। हमें यह दिखाई देगा कि संघ का जो कार्यकर्ता होता है, वह सही अर्थ में विशाल मन का होता है, वह सहिष्णु होता है।
इसलिए समरसत्ता का काम करते समय उसका श्रेय हम जैसे डॉ. हेडगेवार को देंगे, वैसे ही डॉ. अंबेडकर को भी देंगे। हमारे मन में इस प्रकार की भावना नहीं होगी कि ऐसा श्रेय न दिया तो हम वंचित समाज में काम कर न सकेंगे, लोग हमें अपनाएंगे नहीं। इस प्रकार की धोखाधड़ी, छल-कपट हम क्यों करें? डॉ. अंबेडकर का इस क्षेत्र में योगदान बहुत बड़ा है यह हमारी पक्की धारणा है। हमारी डॉ. हेडगेवार के ऊपर जैसे श्रद्धा है, उसी प्रकार डॉ. आंबेडकर जी के ऊपर है। आखिर दुनिया जो कहेगी, उसे कहने दो, हमें उसकी चिंता करने का कोई कारण नहीं। यह भावना लेकर हमें काम करना है। डॉ. हेडगेवार ने इतना व्यापक मानस दिया है, इसका हमें ख्याल रखना चाहिए। इसलिए जब हम सामाजिक समरसता का विचार करते हैं, तब अपने विचार की गंगोत्री डॉ. हेडगेवार की जीवनी है, इसका ख्याल रखना चाहिए।
हम एक मजबूत वैचारिक नींव पर खड़े हैं। किस परिभाषा में कैसे विषय सूत्र रखा जाए, इसका भान हमें होना चाहिए। तारतम्य बुद्धि भी हम में से हर एक के पास होनी चाहिए। मन में किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न हो। जिसने सत्य के दर्शन किए हैं, उसके मन में पूर्वाग्रह पैदा कैसे होगा? ख्याल होना चाहिए कि हमारा बर्ताव कैसा होगा, कैसे व्यवहार करेंगे, कैसे बोलेंगे- इसी के द्वारा हिन्दू, हिदुत्व, हिन्दूभाव जागृति आदि के अर्थ लोगों तक पहुंचेंगे। गन्ने का कितना भी वर्णन किया जाए उसका स्वाद समझ में आ नहीं सकता। स्वाद समझने के लिए उसे खाना ही होगा। उसी प्रकार अपने व्यवहारों की मिठास चखने पर ही 'क्या ऐसा है हिन्दूराष्ट्र?' तब तो हम भी हिन्दू हैं, ऐसा सभी कल कहेंगे।
(लेखक हिन्दुस्थान प्रकाशन संस्थान, मुम्बई के अध्यक्ष हैं)
कैसा होना चाहिए हिन्दू राष्ट्र?
आखिर इसका ख्याल होना चाहिए, कि हमारा बर्ताव कैसा होगा, कैसे व्यवहार करेंगे, कैसे बोलेंगे इसी के द्वारा हिन्दू, हिदुत्व, हिन्दूभाव जागृति आदि के अर्थ लोगों तक पहुंचेंगे। वे जब स्वयं देखेंगे, हमें अनुभव करेंगे, तभी हमारे मन में रहे शब्दों के अर्थ वे समझ पाएंगे। गन्ने का कितना भी वर्णन किया जाए उसका स्वाद समझ में आ नहीं सकता। स्वाद समझने के लिए उसे खाना ही होगा। उसी प्रकार अपने व्यवहारों की मिठास चखने पर ही 'क्या ऐसा है हिन्दू राष्ट्र?' ऐसा है हिन्दू राष्ट्र? तब तो हम भी हिन्दू हैं, ऐसा सभी कल कहेंगे।
टिप्पणियाँ