विमर्श - भारत का लोकतंत्र और नागरिक चेतना
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विमर्श – भारत का लोकतंत्र और नागरिक चेतना

by
Mar 9, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Mar 2015 12:32:43

भारत ने लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था को अपनाया है। इस शासन-प्रणाली के माध्यम से भारत सशक्त राष्ट्र के रूप मे खड़ा दिखायी दे रहा है, यद्यपि लोकतंत्रीय शासन-प्रणाली अपनाने के पश्चात् देश को अन्तर्बाह्य संकटांे का सामना करना पड़ा। भारत में लोकतन्त्र की सफलता से विश्व के अनेक अप्रजातान्त्रिक देश ईर्ष्या भी कर रहे हंै। यह भी सत्य है कि हमारा लोकतन्त्र विश्व का सबसे विशाल है। हमारी संवैधानिक शासन प्रणाली का मूल तत्त्व ''हम भारत के लोग'' अर्थात् हम भारतीय नागरिक ही हैं, जो संविधान की प्रस्तावना में लिखित है। हमारे लोकतन्त्र की यात्रा में एक ऐसा पड़ाव आया कि लोक पर तन्त्र हावी हुआ, परन्तु जनता जनार्दन ने ऐसे अधिनायकवादी लोगों को इतिहास के कोने में धकेल दिया। इस शासन-प्रणाली से हमारे विकास की गति धीमी रही, परन्तु हमने लोकपथ को नहीं छोड़ा। आज हम इस शासन-व्यवस्था के माध्यम से प्रगति की दिशा में उत्तरोत्तर बढ़ते जा रहे हंै, परन्तु विकास में गति लाने के लिए नागरिक की सहभागिता अनिवार्य है। अब देश के भाग्य का निर्धारण जागृत लोक शक्ति कर रही है। यही शक्ति कर्त्तव्य और अकर्तव्य, धर्म और अधर्म के नियम और उपनियम का निर्धारण करती है। बीसवीं शताब्दी के सातवें और आठवें दशक तक आम-चुनाव पर क्षेत्रवाद, सामन्तवाद, जातिवाद हावी होता दिखायी दे रहा था, किन्तु अब देश की जनता ने इन सब तत्त्वों को तिलांजलि दे दी है। 'सबका-विकास सबका साथ' की गूंज सर्वत्र सुनायी दे रही है। अब शासक बिना लोक-कल्याण की चिन्ता किये अपनी स्वेच्छा से शासन को नहीं चला सकते।
गत 65 वर्ष के भटकाव से अब निश्चय ही सही दिशा और दृष्टि का बोध हुआ है। अब वर्तमान शासकों को अनुभव हुआ है कि लोक के सर्वांगीण उत्थान और कल्याण को ध्यान में रखते हुए 'तन्त्र अर्थात् शासक-वर्ग को नि:स्वार्थ भाव से लोकोन्मुख शासन-व्यवस्था का आश्रय लेना होगा। अब समझना होगा कि लोक-हित के लिए लोक का सात्त्विक सहयोग अनिवार्य है। लोक की मूल धुरी है व्यक्ति अर्थात् देश का नागरिक। सजग और सार्थक लोकतन्त्र के विकास की प्रथम शर्त है दायित्व-बोध से प्रेरित जागरूक नागरिक। स्वामी विवेकानन्द जी ने भी राष्ट्र निर्माण के लिए 'मानव कोे तैयार करने की शिक्षा' का नाम दिया है। स्वामी रंगनाथानन्द जी ने कहा था। 'प्रबुद्ध नागरिक प्रजातन्त्र की आत्मा है।' नैतिकता और कर्त्तव्य निष्ठा से सच्ची नागरिकता संभव है।
हम स्वतंत्र हुए और स्वतन्त्रता के कारण अधिकार मिले, परन्तु हमने नागरिकता के दायित्व -बोध की उपेक्षा की। इसीलिए हम अपने लोकतन्त्र को पुष्ट नहीं बना सके । अब भी अनुशासनहीनता, कानून तोड़ने की छूट, आयकर की चोरी, समय-पालन का अभाव और कर्त्तव्यहीनता से राष्ट्र का लोकतन्त्र दुर्बल हो रहा है। प्रजातन्त्र प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तथा अन्य मंत्रियों के कन्धोें पर ही नहीं टिकता वरन् जागृत नागरिकों के कन्धों पर भी टिका रहता है। जब तक नागरिकों में दायित्व के सम्यक् निर्वाह की प्रवृत्ति विकसित नहीं होगी, तब तक हम देश के विकास को सही दिशा और गति नहीं दे सकते।
हमारें देश में एक विकृृत मानसिकता पनपती रही है कि बच्चे के जन्म से मृत्यु तक सभी प्रकार की चिन्ता शासन करेगा, हमें कुछ भी नहीं करना। दूसरे शब्दों में, नागरिक और सामाजिक दायित्व का सर्वत्र अभाव परिलक्षित दिखायी देता है। प्रत्येक व्यक्ति समझ बैठा है कि मेरे घर के कूड़े से लेकर मोहल्ले की स्वच्छता का सारा कार्य नगरपालिका का है, इसके विपरीत सार्वजनिक स्थानों-रेलवे स्टेशन, बस-स्टैण्ड, अस्पताल, सड़कें पर बीड़ी के टोटके फेंककर गन्दगी फैलाने का काम मेरा रह गया है। इस मनोवृत्ति ने देश को नुकसान पहुंचाया है। भाई-भतीजावाद और अपने जाति-भाइयों को विशेष सुविधाएं मिलंे और दूसरों को उपेक्षित करते जाएं, इस दुष्प्रवृति ने समाज में भेद-भाव और भ्रष्टाचार को पनपाया है। सच्चे नागरिक ही इस दूषित प्रवृत्ति को रोक सकते हैं परन्तु ऐसे लोगों का समाज में सर्वत्र अभाव है।
समाजिक जीवन में अन्याय, व्यभिचार, हिंसा, बलात्कार, हत्या का बोलबाला है। सब स्थानों पर दायित्वहीनता के उदाहरण प्रतिदिन देखने को मिलते हैं। सरकारी नल खुला पड़ा है, पानी बेकार जा रहा है। ऐसा अपने घर में होता है, तो मैं फौरन बन्द कर देता हूं। किन्तु बाहर बिजली का बल्ब अकारण जल रहा है, तो मैं स्विच ऑफ क्यों करुं। हम यह नहीं सोचते कि ऊर्जा का अपव्यय हो रहा है और हम लाखों घरांे को अंधेरे में रहने के लिए मजबूर कर रहे है। सार्वजनिक इमारत किसी की न होगी। भारत में सार्वजनिक उद्योग किसी का नहीं है। हम अपने तक सीमित रह गये हैं और राष्ट्रीय दायित्व को भुला दिया है। हम अच्छे अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर, इंजीनियर हैं, परन्तु देश-भक्त- नागरिक नहीं बन सके। सदियों से हम अच्छे आदमी बने रहे, परन्तु देशहित का कोई विचार नहीं किया। इसलिए हम सदियों से ग़ुलामी में सड़ते रहे। हमने मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी, परन्तु शारीरिक विकास के साथ-साथ मन और बुद्धि का विकास नहीं किया। मन और बुद्धि की परिपक्वता से सामाजिक दायित्वबोध का विकास होता है। मात्र संविधान की उदात्त घोषणा से विकास सम्भव नहीं होता, इसके लिए प्रबुद्ध नागरिक बनाने की आवश्यकता है। लोकतन्त्र को पुष्ट बनाने के लिए स्वयं के विकास के साथ-साथ देश-भक्ति की भावना को भी विकसित करना होगा। देश के विकास मंे मेरा विकास निहित है यह समझ प्रत्येक भारत के नागरिक मंे जागृत करनी होगी।
देश के उत्थान को पहला स्थान देना होगा। प्रत्येक नागरिक को समझना होगा कि मैं राष्ट्र का अभिन्न अंग हूं, इसकी भलाई मे मेरा भला है। दूसरे शब्दों में 'भारत जीवित है तो कौन मारेगा और भारत मरेगा तो कौन जीवित रहेगा। ' 'भारत का मान मेरा मान,' यह भाव प्रत्येक नागरिक में संचारित रहे। मेरा देश स्वच्छ, सशक्त बने। यह भाव बना रहे। मेरे देश की सड़कंे, गलियां, घर, झोपडि़यां, बाग-बगीचें स्वच्छ रहें, इस दिशा में भारत का प्रत्येक नागरिक सचेत रहे। स्वामी रंगनाथानन्दजी कहते थे कि 'मैं गांव में पैदा हुआ। मुझे बचपन से तालाब या इमारत गन्दा न करने की शिक्षा मिली। मुझे तभी से सारे गांव और राष्ट्र के कल्याण की प्रेरणा और शिक्षा मिली। पढ़े-लिखेे लोग केला खाकर छिलका सड़क पर ही डाल देते हैं। दुनिया के किसी स्वतन्त्र राष्ट्र में शिक्षित युवा पीढ़ी ऐसा काम नहीं करती। हम अपने घर में ऐसा काम नहीं करते। हम पड़ोसी के मकान में कूड़ाकर्कट फेंेकते हैं। ऐसा करते समय 'अच्छा मेरा बुरा तेरा' यह संकुचित दृष्टिकोण रहता है। प्रबुद्ध नागरिक का दृष्टिकोण इसके विपरीत मुक्त और उदार होता है।
सुयोग्य नागरिक बनने के लिए आचार-विचार में परिष्कार लाना होगा। सुदीर्घ काल से हम स्वकेन्द्रित रहे। 'मैं आराम से रहूं , देश महान् बन ही जायेगा।' ऐसी प्रवृत्ति राष्ट्र जीवन में सडांध पैदा कर देती है। सड़क पर विपत्तिग्रस्त भाई को देखकर हमारे हाथ आगे बढ़ते हैं क्या? मैं ऐसी स्थिति में क्यों फंसू? अलगाव और उपेक्षा का ऐसा भाव प्रबुद्ध नागरिकता को क्षति पहुंचाता है।
जागरूक नागरिक लोकतन्त्र का प्रहरी होता है। नागरिक सद्गुण-सम्पन्न, विवेकशील बने, इसके लिए क्या करना होगा- यह यक्ष प्रश्न है? उचित शिक्षा राष्ट्र-जीवन के प्रत्येक पहलू का परिष्कार कर सकती है। इसी से नागरिक जीवन स्वस्थ और विवेकशील बनाया जा सकता है। उचित उद्बोधक शिक्षा से नागरिक का राष्ट्र के प्रति दायित्व-बोध जागृत होता है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् संस्कारयुक्त शिक्षा नीति का अभाव रहा। आज भी समर्पित शिक्षक और छात्र दमघोटू वातावरण में अपने को असहाय और उपेक्षित पा रहे हंै। वर्तमान मानव-संसाधन विभाग संकल्पित होकर शिक्षानीति में सुधार लाये, तो निष्ठावान् शिक्षक और छात्रों का मनोबल बढ़ेगा और सम्पूर्ण देश मंे नागरिक चेतना का स्फुरण होगा तथा इस माध्यम से देश के लोकतन्त्र का परिमार्जन होगा। उत्तम शिक्षानीति से तेजस्वी, गुणी, राष्ट्रभक्त छात्र प्रशासन, राजनीति, सेना और उद्योग में जायंेगे, तो राष्ट्र का भव्यचित्र सामने आता जायेगा। 19 वीं शताब्दी मेें स्वामी विवेकानन्द ने कहा था 'शिक्षा वह जादू है, जिससे आधुनिक भारत की किसी भी समस्या का हल किया जा सकता है।'
भारत के नागरिक में छिपी हुई प्रतिभा और कुशलता विद्यमान है। उसमें भारत को गौरवान्वित करने की क्षमता निहित है। केवल उसके स्वत्व को जगाने के लिए आध्यात्मिक स्पर्श की आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में 'नीचे लौ लगाइये ताकि भारत की ज्योति फैले'। हमने 'सत्यमेव जयते' का आदर्श वाक्य अपनाया है। नैतिकता का आधार सत्य होता है। भारत के नागरिक में नैतिकता होगी, तो हमारा देश समर्थ बनेगा। भारत में लोकतन्त्र की सफलता का मापदण्ड प्रबुद्ध नागरिक हैं। प्रबुद्ध नागरिक ही प्रबुद्ध भारत का निर्माण कर सकता है।  -सीताराम व्यास

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