|
आवरण कथा- गुझिया,मालपुए के बिना भी…
कहते हैं किसी चीज की अहमियत का पता तब चलता है जब हम उससे किसी भी तरह दूर हो जाते हैं। अपने देश को छोडकर विदेश गए लोगों के साथ ठीक यही होता है। और होली जैसे त्योहार के दौरान तो यह बात सबसे ज्यादा अहम हो जाती है। वतन की सरजमीं से दूर, वहां की एक-एक चीज मानो बिलकुल नई लगती है और मन में होता है यह भाव कि वहां रहते हुए हमने क्यों नहीं इस ओर ध्यान दिया था। यह पर्व-त्योहार से लेकर प्रियजनों और प्रियस्थानों सबके बारे में होता है। और फिर इसके साथ ही मन में कहीं से यह संकल्प भी उभरता है कि अबकी बार अगर देश वापस गया तो इन सब बातों को जी भर कर जीऊंगा। यही कारण है कि अपने देश में रहते हुए कभी-कभार ही मंदिर या मस्जिदों की राह लेने वाले लोग वतन से दूर मंदिरों या मस्जिदों में अपनी नियमित हाजिरी लगाने से कतई नहीं चूकते।
आप छुट्टियों में वतन वापसी पर ज्यादा से ज्यादा एक त्योहार मना लेंगे पर बाकी त्योहार तो आपको फिर भी वतन से दूर ही मनाने पड़ते हंै। आदमी जब दूर होता है तो चीजों को देखने के उसके नजरिये में परिवर्तन आता है। यह परिवर्तन इसलिए आता है क्योंकि अब तक हम जहां रहकर उसे देख रहे थे अब हम वहां से 'शिफ्ट' हो चुके हैं और अब उस चीज या व्यवस्था के दूसरे आयाम हमारे सामने होते हैं। यह परिवर्तन हमें दोनों ही तरह के भावों से लबरेज करते हैं। एक ओर इन व्यवस्थाओं की खामियां जिन पर हमारी नजर नहीं पड़ती थी अब हमें ज्यादा स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं वहीं इस व्यवस्था के प्रति एक बेहद अथाह किस्म का अनुराग भी उपजता है। अगर देखें तो यह एक बहुत ही सुखद स्थिति होती है। इस सोच में वे सारे तत्व मौजूद होते हैं जिन्हें हम 'सुधारवादी' कहते हैं पर इसका प्रकटीकरण अमूमन 'जिंगोइज्म' के रूप में होता है। शायद इसको जो कर रहे होते हैं उनको यह पता नहीं होता कि उनका यह 'राष्ट्र मोह' किस हद तक जाकर 'जिंगोइज्म' का रूप ले लेता है।
बहरहाल, हम बात कर रहे हैं वतन से दूर होली के रंगों में सराबोर होने के अनुभव का। और मेरा यह अनुभव है दुबई का। मुझे नहीं पता कि यूरोपीय देशों या अमरीका या फिर अफ्रीका या लातिनी अमरीकी देशों में रह रहे भारतीयों (मैं उन्हें अनिवासी भारतीय नहीं कहूंगा क्योंकि ऐसा करने पर अनिवासी भारतीयों का एक अलग रूप भी सामने आता है) ।
दुबई में रहते हुए मैंने पहली बार होली के दिन होली नहीं मनायी। मैंने होली मनायी तब जब यारान-ए-वतन होली मना चुके थे। हां, क्योंकि जिस दिन होली का त्योहार था उस दिन दुबई में छुट्टी नहीं थी। और जुम्मे का दिन, जिस दिन वहां ऑफिसों में छुट्टी होती है, दो दिन बाद था। पर इससे कोई खास अंतर नहीं पड़ा क्योंकि वहां तो सभी लोगों को शुक्रवार का ही इंतजार था। भारतीय त्योहारों पर वहां छुट्टियां तो मिलती नहीं। इसलिए लोग त्योहार को आगे-पीछे खिसकाकर शुक्रवार के दिन ले आते हैं। देश से प्रियजनों द्वारा होली मना लेने की खबर तब तक आ चुकी थी और हमें होली की बधाइयां मिल चुकी थीं, पर इससे होली के लिए हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं आई।
सो, होली की तैयारियां हो चुकी थीं। रंग-गुलाल का इंतजाम हो चुका था। ऑफिस के ही एक मलयाली भाई को इसका जिम्मा सौंपा गया था और उसने इसका अच्छा-खासा 'स्टॉक' जमा कर लिया था। पर लोग व्यक्तिगत रूप से भी बर-दुबई के मीना बाजार इलाके की गलियों की खाक छानकर अपने लिए गुलाल जमा कर लिए थे। और वह भी ऐसे-ऐसे रंग जो हम भारत में प्रयोग करते हैं। कोई-न-कोई तो जरूर इन्हें लाता होगा कि होली में काम आएगा और सबसे बड़ी बात यह कि लोगों का नेटवर्क इतना अच्छा था कि उन्हें पता था कि इस तरह का गुलाल या रंग उन्हें कहां मिलेगा। सबने अपने लिए पर्याप्त रंग-गुलाल जुमेरात को ही खरीद लिया था। ऑफिस में 70-80 लोग काम करते हैं। इनके अलावा, शारजाह, रास-अल-खेमा, आबु धाबी आदि स्थानों में कार्यरत अपने 'स्टॉफ' को एक दिन पहले ही दुबई आने को कह दिया गया था। इस तरह सौ से ऊपर के लोग जमा हो गए थे।
दुबई की इस होली का रंग बड़ा ही मजेदार होता है। देश में तो हम अपने ही लोगों के बीच होली मनाते हैं। ज्यादा से ज्यादा कुछ सगे-संबंधी आ गए तो आ गए। पर वे भी तो अपने ही कुनबे के हुए। पर यहां पर तो मलयाली भी थे, मराठी भी, पंजाबी भी थे और पूरबिये भी, कन्नड़ भी थे और हैदराबादी भी, बंगाली भी थे और बिहारी भी। और दूसरे देशों की बात करें तो पाकिस्तानी और बंगलादेशियों ने भी शिरकत की। और किसी ने भी रंगों में सराबोर होने से बचने के लिए किसी तरह की बहानेबाजी नहीं की। बल्कि ये बंगलादेशी और पाकिस्तानी तो हमसे ज्यादा होली के हुड़दंग में शामिल थे।
होली खेलने के लिए बड़ी और खुली जगह चाहिए थी। पार्कों में जाने के बजाय हम लोगों ने दुबई टेक्सटाइल सिटी को चुना जहां पर हमारे गोदाम थे और जगह बिलकुल खुली और उतनी ही बड़ी। होली में खाने की व्यवस्था खास होती है। इसके लिए भारत से ही दुबई में खानपान का साम्राज्य स्थापित करने वाले प्रसिद्ध पूरनमल वालों को ऑर्डर दिया गया था। पर कुछ भी हो, होली के मौकों पर भारत में हम जिस तरह के पकवानों का आनंद उठाते हैं उसकी कमी का एहसास सब पर भारी था। घर में बने पकवानों के कारण होली का मजा कुछ और ही होता है। हलवाई के यहां से आई हुई मिठाइयों को देश में कौन पूछता है इस दिन! वैसे हमारे लिए गुलाबजामुन भी था, रबड़ी भी थी, ठंडई (अपने सादगीपूर्ण अवतार में) भी थी, गाजर का हलवा भी पर होली को खास बनाने वाला मालपूआ और गुजिया अपनी अनुपस्थिति का बड़ी शिद्दत से आभास करा गई।
पर इन सबके बीच, दुबई में हमारी होली अपने स्वाभाविक रूप में नहीं थी। और मुझे नहीं लगता कि देश के बाहर किसी भी मुल्क में उसकी वह स्वाभाविक उपस्थिति हो सकती है। भारत में होली मनाने की जरूरत हमें नहीं पड़ती। होली फिजां में होती है। वह खुद-ब-खुद ही हो जाता है। किसी को भी होली के आयोजन की आवश्यकता नहीं महसूस होती। पर भारत में भी शहरों की होली जहां 'होली मिलन' के आयोजन का प्रचलन है, वहां भी होली का स्वाभाविक रूप हमें नहीं दिखता जैसे दुबई में सब कुछ के बाद भी नहीं दिखा। इस मामले में गांवों की होली का कोई जवाब नहीं (शहर वाले कृपया नाराज न हों)। होली में औपचारिकता का किसी स्तर पर कोई स्थान नहीं होता। यह तो त्योहार ही अनौपचारिकता का होता है जहां हर 'नहीं' को 'हां' में बदला जाता है और इसके लिए किसी की अनुमति भी नहीं ली जाती। छोटे-बड़े और ऊंच-नीच, अमीर-गरीब सभी तरह के भेदभाव भुला दिये जाते हैं। कई सारी बाध्यताओं के बीच हम सबने एक दूसरे को रंगों में सराबोर किया, बच्चे प्लास्टिक के स्वीमिंग पूल में एक-दूसरे को डूबा रहे थे और बनारस के एक सज्जन गा रहे थे- होली खेले बलजोरी रे….। शाम को रंगों से पुते हुए हम गाडि़यों में भर-भर कर जब वापस लौट रहे थे तो ट्रैफिक जंक्शन पर गैर-भारतीयों की अचंभित नजरों के वार हमें सहने पड़ रहे थे। -अशोक कुमार झा, दुबई
टिप्पणियाँ