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इलियास- सिद्दीकी प्रसंग के मायने

by
Feb 28, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 28 Feb 2015 13:47:50

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शंकर शरण

हाल में जमाते हिंद इस्लाम के मुफ्ती मोहम्मद इलियास ने कहा कि 'हिन्दू धर्म' जैसा कोई नाम या धर्म भारतीय शास्त्र या लोक में नहीं है। यहां तो 'सनातन धर्म' रहा है, जिसका अर्थ है- जो धर्म हमेशा से है, किसी समुदाय विशेष का नहीं है, तथा किसी तारीख या मनुष्य से शुरू हुआ नहीं है। 'हिन्दू' शब्द तो बाहरी लोगों ने गढ़ा था, जिसका अर्थ था: हिन्दुस्तान में रहने वाले लोग। इस नजरिए से मुसलमान भी हिंदू हैं।
मुफ्ती मोहम्मद इलियास ने यह भी कहा कि भारत के लोग हमेशा से शिव-पार्वती को आदि-पिता और आदि-माता मानते हैं। यानी जिसे अरब, यूरोपीय समझ में आदम-हव्वा कहा जाता है, उसी को यहां के लोग शिव-पार्वती कहते हैं। तब भारतीय होने के कारण यहां के मुसलमानों के लिए भी शिव-पार्वती सबसे प्रारंभिक पिता-माता माने जा सकते हैं।
विचार करें तो बातों में तर्क है। इसमें किसी की निंदा या भर्त्सना भी नहीं है। कोई चाहे तो इसे माने, या न माने। पर इस पर प्रतिक्रिया करते ऑल इंडिया फैजान-ए मदीना काउंसिल के अध्यक्ष मोईन सिद्दीकी नूरी ने कहा कि मुफ्ती इलियास की बातें शरीयत के खिलाफ हैं। इसलिए सिद्दीकी ने इलियास का सिर काट डालने वाले के लिए एक लाख रुपए के ईनाम का एलान कर दिया।
प्रश्न है: क्या इस्लाम के पास अपने मजहब का महत्व या उपयोगिता दर्शाने का इसके सिवा कोई और उपाय नहीं है कि वह हर किसी का सिर काट डाले, जिसकी बात उसे नापसंद हो? इलियास ने जो कहा, उसमें प्रत्यक्षत: इस्लाम पर कोई टिप्पणी तक नहीं है। वह तो एक गैर-इस्लामी शब्द और एक गैर-इस्लामी मान्यता पर अपनी राय दे रहे थे। केवल उसका कोई अर्थ निकाल कर ही उसे इस्लामी मतवाद से भिन्न कहा जा सकता है।
अत: क्या वास्तविक गलती यह नहीं है कि इस्लाम की महत्ता के नाम पर किसी को भी मार डालने की मांग की जाए? यह कब तक चलता रहेगा? इस्लामी इतिहास में आरंभ से ही यही रहा है। खुद पैगंबर मोहम्मद साहब की आधिकारिक, पारंपरिक जीवनियां बताती हैं कि उन्होंने अपने हरेक आलोचक या उनकी किसी बात पर संदेह करने वाले का सिर काटकर ही अपना मतवाद फैलाया था।
लेकिन, तब तो, आज की लोकतांत्रिक दृष्टि से, बेल्जियाई विद्वान कोएनराड एल्स्ट का यह कथन बिल्कुल सही है कि हरेक मुसलमान इस्लाम का बंदी है। तब तो मुसलमानों को ऐसी तानाशाही विचारधारा से मुक्त कराना मानवता का कर्तव्य होना चाहिए, जो अपने किसी अनुयायी को अपने बुद्घि-विवेक से कुछ भी सोचने-विचारने से मना ही नहीं करता है बल्कि ऐसा करने पर सीधे मार डालने का अधिकार जताता है! तब मुसलमानों का हित ऐसे मजहबी-विश्वास से मुक्त होने में ही है।
दरअसल यह भी नई बात नहीं। फ्रांसीसी दार्शनिक अर्नेस्ट रेनां ने बहुत पहले कहा था, इस्लाम द्वारा पहले पीडि़त स्वयं मुसलमान ही हैं। प्राच्य देशों में घूमते हुए मैंने प्राय: देखा कि बहुत थोड़े खतरनाक लोगों में वह जिद्दी कट्टरता है जो औरों को डरा-धमकाकर मजहबी व्यवहार कायम रखते हैं। मुसलमानों को उनके मजहब के आतंक से मुक्त कराना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा हो सकती है। महर्षि अरविन्द ने भी कहा था, संभवत: मुसलमानों को सहज बनाने का एक ही रास्ता है कि उनका अपने मजहब में कट्टर विश्वास कम कराया जाए। देश-विदेश के अनेक चिंतकों के ऐसे अनेक अवलोकन जमा किए जा सकते हैं।
एक बार मुगल बादशाह अकबर के दरबार में किसी दार्शनिक ने पैगंबरवाद की कड़ी आलोचना की। उसने कहा कि जब पैगंबर भी एक मनुष्य थे, तो सभी मनुष्यों को अपने जैसे ही दूसरे मनुष्य के सामने जबरन झुकाना बहुत बड़ी बुराई है, क्योंकि किसी मनुष्य में मनुष्य वाली कमजोरियां कमोबेश होंगी ही। फिर उसने पैगंबर मोहम्मद की जीवनी से ऐसी कमियों का उल्लेख करते हुए पूछा, जहांपनाह, तब किस विज्ञान के आधार पर ऐसे व्यक्ति का आदेश मानना जरूरी समझा जाए?
पैगंबरवाद के अलावा इस्लाम का एक बुनियादी सिद्घांत 'शर्क' की निन्दा भी है। यानी अल्लाह में किसी को शरीक नहीं किया जा सकता। पर इस विचार की भी आलोचना स्वयं मुसलमानों ने भी की है। अल्लाह में किसी को शरीक करने की संभावना ही दिखाता है कि अल्लाह की हस्ती सीमित है। जैसे वह कोई बादशाह, सरदार, सेनापति जैसी सत्ता हो, क्योंकि ऐसे ही लोगों के राज्य की सीमा होती हैं। अत: कुरान में दी गई अल्लाह की धारणा ही उसे सीमित मानती है। उसमें साफ लिखा है कि अल्लाह में 'अल-उज्जा', 'अल-मनात' और 'अल-लात' शामिल नहीं हैं। ये तीन अरब देवियों के नाम हैं, जिन्हें अरब में पहले पूजा जाता था।
इस प्रकार, कुरान के ही अनुसार इन तीन देवियों का अस्तित्व अल्लाह से अलग हुआ! यानी अल्लाह की हस्ती की सीमा है। जो निस्सीम है, उसमें शर्क हो ही नहीं सकता। जैसे, उपनिषद में दी गई ईश्वर की धारणा: ईशावास्यमिदं सर्वम्। संपूर्ण जगत में ईश्वर का वास है। इसके विपरीत कुरान में वर्णित अल्लाह की सत्ता संकुचित है। इस दृष्टि से अरब के प्रसिद्घ सूफी इब्न-अराबी (सन् 1165-1240) के शिष्य तीलीमानी ने कुरान को ही 'शर्क' का खुला दोषी बताया है!
फिर, स्वामी विवेकानन्द ने भी कुरान और मोहम्मद का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया था। चूँकि योग-चिंतन भारतीय प्रज्ञा की हजारों वर्ष पुरानी विरासत है, जिसका लोहा अब सारा संसार मानता है, इसलिए स्वामी विवेकानन्द की बातों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनके अनुसार कुरान में सत्य और अन्धविश्वास, दोनों हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि मोहम्मद को अन्त:प्रेरणा अनजाने, अचानक मिल गई थी। वे कोई सिद्घ योगी नहीं थे। इसलिए अपने क्रिया-कलापों को नहीं समझ सके। उनकी कुछ शिक्षाओं पर गलत जोर देने के कारण लाखों हत्याएं हुईं, कितने ही देशों का सर्वनाश हो गया।
तो क्या इन सब बातों पर विचार-विमर्श नहीं होना चाहिए? तुलनात्मक मूल्यांकन करके सही निष्कर्ष नहीं निकालने चाहिए? यदि आलोचनात्मक विमर्श बंद रखा जाए, जो इस्लाम संबंधी मामलों पर हमेशा कोशिश की जाती है, तब यह शुद्ध तानाशाही है। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसमें तर्क के बजाय, हिंसा की धमकी का जोर दिखाया जाता है। अत: यह हर तरह से गलत है।
इस्लाम की खुली आलोचना को इसलिए भी सहजता से लेना चाहिए, क्योंकि वह केवल ईश्वरीय चर्चा नहीं, बल्कि एक सुसंगठित राजनीतिक विचारधारा भी है। उसमें राज्यतंत्र, कानून और विविध आर्थिक, कारोबारी निर्देश भी हैं। अत: लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक विचारधारा की आलोचना, उसे खारिज करना, यहां तक कि उसे हराने, मिटाने की कोशिश भी जनता का सहज लोकतांत्रिक अधिकार है। तब इस्लामी विचारधारा को भी आलोचना झेलने, स्वीकार करने के लिए तैयार होना ही चाहिए। विशेषकर, जब वह अपने पक्ष में तलवार, हिंसा, मौत आदि की धमकी के सिवा कुछ भी कहने में असमर्थ दिखती है।
इसलिए मुसलमानों को मुफ्ती इलियास जैसे लोगों की बातों पर सहजता से विचार करना चाहिए। ठीक है, कि वे बातें कुरान में नहीं हैं। मगर उसमें तो बौद्ध, जैन, हिन्दू, धमोंर् अथवा भारत, चीन जैसे विशाल दर्शन, ज्ञान तथा समुदायों, देशों का भी कोई उल्लेख नहीं है। इससे इन सबका अस्तित्व अवैध तो नहीं हो गया! इसका उत्तर बड़े मुस्लिम विद्वान भी यही देते हैं कि तब अरब में इन देशों, दर्शनों, धमोंर् की जानकारी न थी। लेकिन इससे तो यह बात और भी पक्के तौर से प्रमाणित होती है कि कुरान कोई ईश्वरीय ग्रंथ नहीं, मनुष्य रचित किताब है। इसीलिए उसमें तब के सामान्य अरबवासी व्यक्ति की चिन्ताएं और जानकारी की सीमाएं साफ दिखती हैं।
भारतीय मुस्लिम लेखक सुलतान शाहीन भी इस पर जोर देते हैं कि कुरान और हदीस मनुष्यों द्वारा तैयार की गई किताबें हैं। उन्हें अल्लाह द्वारा दी गई बातें कहना, और इसलिए हू-ब-हू उनमें लिखी गई हर चीज समाज पर लागू करना ही सारी खुराफात की जड़ है। विगत कुछ दशकों से यह खुराफात अरब के बहाबी व्याख्याकारों ने फैलाई है, जो अपना मतवाद ही सारी दुनिया पर लागू करने में छल-बल से लगे हुए हैं।
बहरहाल, पूरा प्रसंग और दुनिया की स्थिति, सभी यही संकेत करती हैं कि मुसलमानों से कुरान, हदीस और सुन्ना से आगे देखने की अपील करना, उसके बंद दायरे से बाहर आने का निमंत्रण देना, विवेकशील लोगों का कर्तव्य हो जाता है। अपनी बुद्धि, विवेक का स्वतंत्र, निर्भय प्रयोग करने की स्थिति में आना ही घर वापस आना है। किसी सीमित मतवादी दायरे को छोड़कर निस्सीम विचारों, अनुभवों, कल्पनाओं की दुनिया में जीना ही अपने सच्चे घर में वापस आना है। तभी कोई विश्व के विविध महान साहित्य का आनंद ले सकता है और उनसे लाभ उठा सकता है। ज्ञान-विज्ञान की उन्नति की बुनियादी शर्त ही यह है कि पहले किसी भी मतवादी दायरे की बंदिश को ठुकराया जाए! यह नहीं करने से ही पूरा मुस्लिम जगत पिछड़ेपन और ठहराव का शिकार है।
ऐसी घर-वापसी की बात मात्र इसी आधार पर नहीं कि भारत के मुसलमान और ईसाई पहले के हिन्दू थे (जो गांधी जी, जिन्ना से लेकर फारुख अब्दुल्ला भी कहते हैं)। उससे बड़ा एक दार्शनिक, व्यावहारिक कारण भी है- वह यह कि इस्लाम की संपूर्ण विचारधारा को सदैव केवल हिंसा बल पर टिकाए, बनाए रखा गया है। यानी, यह भ्रम है, जिसे दी गई हिंसा की बैसाखी हटा ली जाए तो उसे स्वत: ढह जाने का डर लगता है।
यदि बिना जोर-जबरदस्ती इस्लाम को बचाए रखना मुश्किल है, तो इसका विदा हो जाना ही अच्छा है। यह इससे भी प्रमाणित होता है कि हिन्दू या बौद्ध धर्म बिना किसी को धमकी दिए, या हिन्दू धर्म छोड़ने वाले को बिना जबरन रोके भी, स्वत:, अपने अंतर्निहित मूल्य के बल पर, हजारों वषोंर् से, न केवल बने रहे, बल्कि ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, चरित्र, नैतिकता, आदि क्षेत्रों में दुनिया को बहुमूल्य योगदान देते रहे। उपनिषद के श्लोक आज भी उतने ही तरोताजा, आकर्षक और मूल्यवान लगते हैं। उनकी उपादेयता, सौंदर्य और महानता किसी को भी स्वयंसिद्ध दिखती है। जिसे मनवाने के लिए कोई जोर लगाने की जरूरत ही नहीं!
इसके विपरीत, इस्लाम शुरू से ही जोर-जबर्दस्ती, हत्याएं, छल, युद्ध आदि के बल पर ही टिक सका और फैला। तलवार के घमंड के बावजूद, उसे अपनी वैचारिक दुर्बलता की इतनी गहरी अनुभूति है कि बिना मौत का सीधा डर दिखाए वह अपने अनुयायियों के भी इस्लाम में बने रहने के प्रति आश्वस्त नहीं है। तभी तो इस्लामी नेता किसी भी बात पर उनका सिर काटने की ही धमकी देते रहते हैं। जैसे, अभी मुफ्ती मोहम्मद इलियास को दी।
ऐसी धमकियों के सिवा इस्लामी नेताओं, आलिमों, ईमामों, आदि के पास कोई और तरीका न होना स्पष्ट दिखाता है दुनिया के मुसलमान अपने मजहब के पंजीकृत कैदी हैं! मानो इस्लाम एक जेल है, जिसे वे छोड़ नहीं सकते, वरना उन्हें मार डाला जाएगा। ठीक उसी तरह, जैसे, जेल से भागने की कोशिश करने वाले को चहारदीवारी की रक्षा करने वाले सिपाही गोली से मार डालते हैं।
इससे बढ़कर इस्लामी मतवाद की अनुपयोगिता, निरर्थकता का और क्या प्रमाण होगा! इस बुनियादी सच के मद्देनजर, हरेक मुसलमान इस्लाम का कैदी ही है और उसे मुक्त होना, उसे मुक्त कराना मानवता का फर्ज बनता है। यदि 'हरेक मुसलमान इस्लाम का कैदी है' की धारणा को गलत साबित करना हो, तो एक ही तरीका है कि इस्लाम छोड़ने वालों के लिए मौत का कथित कानून सारी दुनिया के उलेमा विधिवत् घोषणा करके खत्म करें। अखबारों में आधिकारिक ईमामों, मुफ्तियों, आदि की विज्ञप्तियां छपें और टेलीविजन चैनलों पर औपचारिक बयान जारी हों, जिनमें कहा जाए कि जो मुसलमान इस्लाम छोड़ना चाहे, वे बिना डरे छोड़ सकते हैं, उन्हें मारा नहीं जाएगा। लेकिन उलेमा ऐसा करना न स्वीकार करें, तब मुसलमानों के इस्लाम के कैदी होने और स्वयं इस्लाम के वैचारिक रूप से बिल्कुल शून्य होने में क्या संदेह बचा रहता है?
मगर मानवता किसी कैद को हमेशा स्वीकार नहीं किए रहेगी। जैसे चर्च की सदियों पुरानी जोर-जबर्दस्ती ईसाई जनता ने अंतत: अस्वीकार कर दी, उसी तरह इस्लामी मौत के फतवों और शरीयत के मध्ययुगीन नियमों को भी छोड़ा ही जाएगा। इसकी शुरुआत तो बीसवीं सदी में तुर्की के महान नेता अतातुर्क कमाल पाशा ने कर ही दी थी। खलीफत को उखाड़ फेंकते हुए (सन् 1924) उन्होंने इस्लाम को बेकार और मृत घोषित किया था, जिसके बोझ के कारण ही तुर्की की प्रगति अवरुद्ध रही। यह अतातुर्क की देन है कि आज संपूर्ण मुस्लिम विश्व में केवल तुर्की में ही लोकतंत्र और प्रगति है।
इस्लाम को खारिज करने की वह प्रक्रिया बाद में रुक गई, लेकिन इससे यह तथ्य नहीं मिटता कि सौ साल पहले सबसे अग्रणी मुस्लिम समाज ने इस्लाम से मुक्त हो जाना जरूरी समझा था। उसके लोकप्रिय नेता ने उसे अंजाम भी दिया था। वह फिर हो सकता है, बल्कि होगा ही। वैसे भी, कोई समुदाय, जातियां, नस्लें सदा से मुसलमान नहीं थीं।
अरब से लेकर ईरान, एशिया तक हर कहीं यह एक जैसा सच है। स्वयं इस्लामी विवरणों में यह मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है कि कहीं भी लोगों ने स्वेच्छा से इस्लाम नहीं कबूला। समूह के समूह 'इस्लाम या मौत' के घोषित विकल्प के कारण ही मुसलमान बने। यानी पहले वे दूसरे धर्म-विश्वासों को मानते थे। उन पर इस्लाम बाहर से लादा गया। हरेक मुसलमान के पूर्वज कई पीढि़यों पहले कोई और मत-पंथ मानते थे। यह मुफ्ती इलियास और मोईन सिद्दीकी के पूर्वजों के लिए भी सच है।
अत: जैसे किसी की मुस्लिम पहचान इतिहास के किसी क्षण की घटना है, उसी तरह इतिहास के किसी क्षण में यह लुप्त भी होगी। यह ध्रुव-सत्य है। 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:' अथवा, 'आया है सो जाएगा़.़' यह केवल अदद मनुष्यों पर ही नहीं, विचारों, फैशन, साम्राज्यों, मजहबों पर भी लागू है।
भारत के सनातन धर्म की शिक्षाएं इसीलिए सनातन हैं क्योंकि वे सदैव चिरंतन, शाश्वत सत्यों, मूल्यों के अन्वेषण में लगी रही हैं। उपनिषद उसी का बस एक उदाहरण हैं। भारतीय धर्म का कोई मतवाद गढ़ने या थोपने से कोई संबंध नहीं। इसीलिए, यह खुद परखने की चीज है कि जिस मजहबी-राजनीतिक विचारधारा की शुरुआत अमुक साल, अमुक व्यक्ति से हुई, उसका अंत भी अवश्यंभावी है। बहरहाल, यह मानवीय कर्तव्य और जरूरत भी है कि इस्लामी मतवाद को सभी को धमका, डराकर, चुप कराने की आदत छुड़ाएं। उससे बेहिचक कहा जाना चाहिए कि उसे आलोचकों को मारने, धमकाने, नाराज होने का कोई अधिकार नहीं। यदि किसी ने कोई बात रखी है, तो उसका उत्तर भी शब्दों में दिया जाना है। हिंसा को अस्वीकार करना, करवाना होगा। इस कर्तव्य से कतराना हिंसा को प्रोत्साहन ही देना है।
मुसलमानों को जड़-विश्वासों से मुक्त होने के लिए कहा जाना चाहिए। उन्हें यह ठोस, वैज्ञानिक सचाई बताना किसी का अपमान करना नहीं कि दुनिया इस्लाम से पहले भी थी और बड़ी अच्छी हालत में थी। अरब क्षेत्र की मध्ययुगीन बदहाली को छोड़ दें, तो मिस्र, चीन और भारत में महान सभ्यताएं थीं। जहां भौतिक खुशहाली से लेकर ज्ञान-विज्ञान की भरपूर उन्नति हुई थी। ये सब बातें सातवीं सदी का कोई अरब व्यापारी नहीं जानता था, तो इससे यह विराट सत्य मिट नहीं जाता कि इस्लाम से पहले की दुनिया कोई 'जाहिल' नहीं, बल्कि बहुत समृद्ध और बड़ी थी। चाहे इस्लामी सिद्धांतकार यह जानता ही नहीं था। उसी तरह के अज्ञान ने आज भी इस्लामी मतवाद को बंद तथा ज्ञान-विरोधी (नॉलेज-प्रूफ) बना रखा है। यह इससे भी प्रमाणित है कि आज भी गैर-इस्लामी दुनिया ही हर विषय में उन्नत और अग्रगामी है!
आज मुस्लिम विश्व जिन सुख-सुविधाओं का उपयोग करता है- बिजली, मोटर, जहाज, फोन, कंप्यूटर, फेसबुक, ई-मेल, गगनचुंबी अट्टालिकाएं, चॉकलेट, आइसक्रीम, डिजाइनर पोशाकें, स्नीकर, आधुनिक हथियार, यहां तक कि तेल उत्पादन-वितरण की सारी मशीनरी उनमें से एक भी चीज इस्लामी जगत की ईजाद नहीं है। ये सब उन लोगों की खोजी और बनाई हुई हैं जो गैर-मुस्लिम हैं यानी शरीयत और सुन्ना के मुताबिक 'झूठे' या 'शैतानी मजहब' को मानते हैं या किसी मजहब-रिलीजन को नहीं मानते। इसलिए सभी तथ्य सहजता से संकेत करते हैं कि दुनिया इस्लाम की विदाई के बाद भी रहेगी। संभवत: और अच्छी तरह से रहेगी। मुसलमान जब इस्लाम के जड़-विश्वासों से मुक्त हो जाएंगे, तो उससे किसी की कोई हानि न होगी। कुछ लाभ ही होगा। कम से कम यह कि हर चीज में सिर काटने और इसकी धमकी देने वाला एक जिद्दी मतवाद इतिहास की वस्तु हो जाएगा।
अत: मानवता को यह कहने का पूरा अधिकार है कि मुसलमान मानवीय दुनिया में वापस आएं। जहां कोई बात जोर-जबर्दस्ती नहीं, अपने अंतर्निहित मूल्य और लाभ के कारण स्वीकार की जाती है। जहां उसे स्वीकार करना या ठुकराना, दोनों को सहजता से लिया जाता है। यहां यह भी उल्लेख जरूरी है कि मुसलमानों को इस्लामी अंधविश्वासों से मुक्त होने के लिए कहने में किसी जबर या दबाव जैसी बात ही नहीं है। जो इस्लाम मानते रहना चाहें, वे इसके लिए स्वतंत्र हैं। उन्हें इस्लाम से छुटकारा लेने की सलाह वैसी ही है, जैसे 29 दिसंबर 2014 को एक ईरानी सैनिक जनरल ने बराक ओबामा और यूरोपीय नेताओं को इस्लाम में कन्वर्ट होने के लिए कहा। अत: यदि कोई किसी को इस्लाम कबूल करने के लिए सहजता से कह सकता है, तो उसी सहजता से मुसलमानों को इस्लाम से मुक्त होने के लिए कहा ही जाना चाहिए!मुसलमानों के इस्लाम से मुक्त होने में एक मौत का अंदेशा छोड़, जो इस्लाम छोड़ने वालों के लिए इस्लामी आदेश है, अन्य कोई हानि नहीं है। पर क्या यह विचारणीय नही कि ऐसे मजहब और दर्शन का अपने-आप में कितना मूल्य है जो लोगों को बंदी बनाकर, धमकाकर, अपने घेरे में रखने के सिवा कोई उपाय नहीं जानता! यह तो स्वयं-घोषणा है कि इस्लाम का अध्यात्म, नैतिकता, उच्च-विचार आदि से कोई संबंध नहीं। यह मुख्यत: एक राजनीतिक मतवाद है, जो जोर-जबर्दस्ती या प्रलोभन से अपनी सत्ता बनाने, फैलाने और बनाए रखने के अतिरिक्त किसी बात में दिलचस्पी नहीं रखता।

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