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यह राष्ट्र और संस्कृति हजारों वर्ष से हमलावरों के निशाने पर रही है। समाज को अब एकजुट होना ही होगा।
गणित, रसायनशास्त्र, विज्ञान की अन्य शाखाएं, चिकित्साशास्त्र, औषधिशास्त्र, खगोलशास्त्र, शिल्पकला, भवन निर्माण, दर्शनशास्त्र… आप आधुनिक जीवन शैली के लिए आवश्यक जिस भी ज्ञान की ओर देखेंगे उसकी आधारशिला भारत के प्राचीन वांग्मय से आई मिलेगी। ये वांग्मय जिस वृहत्तर भारत में जन्मा था उसमें अफगानिस्तान, गिलगित, बाल्टिस्तान, खैबर-पख्तूनिस्तान, पश्चिमी पंजाब, बलूचिस्तान, सिंध, बंगलादेश भी आते थे। भारत के हर तरह से गुणवान, बुद्धिमान, सक्षम होते हुए भी देश का ये 2/5 भाग आज गुलाम है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इंडोनेशिया, बाली, सुमात्रा इत्यादि क्षेत्रों में हमारी ही संस्कृति थी। इस 'है' को 'थी' में बदलने का क्या कारण है? जिस तरह के इस्लामी आतंक के कार्य आज दुनिया भर में हो रहे हैं वैसे आक्रमण भारत पर हजारों वर्ष से हो रहे हैं। आक्रमणकारी भारत में सदा से आये हैं। इनसे हम सदा से निबटते भी रहे हैं। पारसीक-असुर, शक, कुषाण, हूण, यवन, तुर्क के हमलों का न जाने कब से भारत शिकार रहा है। इसका मुख्य कारण भारत के पास के देशों में कृषि योग्य भूमि का कम होना, मरुस्थल तथा अनुर्वर क्षेत्र अधिक होना, सिंचाई के लिए पानी का अभाव, परिणामस्वरूप कठिन जीवन है। इस अभाव की स्थिति में बदलाव का सबसे उपयुक्त उपाय भारत आना था। जंगली कबीले तलवारें भांजते भारत में आते रहे। उनमें से कुछ भगा दिए गये, कुछ पचा लिए गए।
वैसे तो खंडित भारत भी बहुत बड़ा है, मगर अखंड भारत तो बहुत ही विशाल था। इस पर एक केंद्रीय सत्ता कारगर नहीं हो सकती थी, मगर राष्ट्र को सबल सैनिक व्यवस्था तो चाहिए थी। इसी से निबटने की प्रक्रिया में भारत ने चक्रवर्ती व्यवस्था निकाली। सब राजा स्वतंत्र रहें किन्तु चक्रवर्ती सम्राट को नाममात्र का सांकेतिक कर दें और आवश्यकता पड़ने पर उसके झंडे के नीचे अपनी सेनाएं लेकर लड़ने के लिए वचनबद्घ हों। यही चक्रवर्ती व्यवस्था थी। भारत ने अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए यह उपाय रखा था। इन लोगों से निबट लेने के यानी उन्हें परास्त कर भगा देने या भारत में रहने की स्वीकृति दे देने के बाद भी भारत का लगभग 2/5 भाग आज गुलाम है। ऐसा क्यों हुआ? यही इस लेख का मूल
बिंदु है।
आगे बढ़ने से पहले कश्मीर के एक चर्चित परिवार की चार पीढ़ी की वंशावली देखिये।
उम्र अब्दुल्लाह पिता फारुख अब्दुल्लाह
फारुख अब्दुल्लाह पिता शेख अब्दुल्लाह
शेख अब्दुल्लाह पिता शेख इब्राहिम
शेख इब्राहिम पिता राघव राम कौल
यहां प्रश्न है कि राघव राम अपनी परंपरा छोड़कर दूसरी अपरिचित, घृणा की हद तक नापसंद परम्परा को कैसे अपना सके? सदैव से हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए गोमांस खिलाया जाता रहा है। राघव राम को गोमांस खाने के लिए विवश किया गया तो सारा हिन्दू समाज कहां था? हिन्दू बहुसंख्या के देश में राम-जन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, काशी विश्वनाथ का मंदिर ही क्या प्रत्येक बौद्ध मंदिर, जैन मंदिर, सिख गुरुद्वारे ध्वस्त किये गए। सिख समाज के कुछ प्रत्युत्तर को छोड़कर शेष समाज प्रतिकार क्यों नहीं कर पाया? धर्म का नेतृत्व करने वाले लोग क्या कर रहे थे? पारसीक-असुर, शक, कुषाण, हूण, यवन समूहों से निबट लेने वाला समाज अरबों, तुकार्ें से क्यों नहीं निबट सका? भारत के राष्ट्र यानी हिन्दू समाज के पास स्वयं को बचाने की कोई ठीक सी व्यवस्था क्यों नहीं थी?
यहां इस्लाम की प्रशंसा करनी होगी। इस्लाम के प्रारंभिक नेता मोहम्मद ने अपने समाज के लिए करणीय और अकरणीय कार्य तय किये। मुस्लिम समाज के लिए नियम बनाये। नियमों का पालन करवाने वाले संस्थान बनाये। उसके परवर्ती आचायोंर् ने हदीसें लिपिबद्ध कीं, सीरा लिखी। परिणामस्वरूप इस्लाम मुट्ठीबंद समूह बना। इसकी व्यवस्थाएं आदिम और बर्बर होते हुए भी संसार भर में फैल गयीं। उसका कहा लम्बे वक्त तक कानून बना रहा।
हिन्दू समाज में व्यक्तिगत नियम हैं मगर समाज के लिए नियमों का अभाव है। कुछ हो भी तो उन नियमों का पालन कराने वाली न तो व्यवस्था है और न पालन करने पर दंड विधान।। अफगानिस्तान के हिन्दू नष्ट किये गए तो शेष राष्ट्र का ध्यान भी उस ओर नहीं गया। किन्हीं को इस बात से विरोध हो तो वे अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित हिन्दू-कुश का स्मरण करें। हिन्दू-कुश का अर्थ ही है हिन्दू- नरसंहार, जहां हिन्दू काट डाले गए। चलिए, वह तो पुरानी बात हो गयी मगर पाकिस्तान-बंगलादेश के क्रमिक हिन्दू-नरसंहार तो 67 वर्ष से अभी भी चल रहे हैं। हजारों साल पुराने राष्ट्र के लिए तो ये बहुत छोटा काल है। कश्मीर से हिंदू निकले गए तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके साथी संगठनों को छोड़ दें तो किसी ने भी आवाज नहीं उठाई। न विस्थापितों की कोई सहायता की। यही वह भयानक कमी है, जिसकी पूर्ति किये बिना राष्ट्र के इस भयानक कैंसर का निदान नहीं हो सकता।
हमारे पास मस्जिद में दैनिक नमाज तथा शुक्रवार की सामूहिक नमाज, जिसे जमात समूह कहते हैं, में अनिवार्य रूप से भाग लेने की व्यवस्था नहीं है। समाज कहीं एक समय अनिवार्य रूप से इकट्ठा हो, इसकी कोई अवधारणा ही नहीं है। हमारे उपासना केंद्र निजी उन्नति अथवा मोक्ष की खोज के केंद्र हैं। इन केन्द्रों को ध्वस्त करने के लिए कोई हमलावर आएगा तो क्या होगा? यहां हम इस बात का विचार ही नहीं करते कि उपनिषदों का यह उद्घोष कि 'सारे मार्ग उसी तक जाते हैं' जिस काल और समाज के लिए था, उसमें 'काफिर वाजिबुल कत्ल' की कोई सोच नहीं थी। वह समाज 'कत्ताल फी सबीलिल्लाह'-'अल्लाह की राह में कत्ल करो' सोच भी नहीं सकता था। मुस्लिम काल के इतिहासकारों के उनकी अपनी किताबों में वर्णित भारत विजय, मंदिरों के तोड़ने, काफिरों पर अत्याचार के वर्णन पढि़ये। देश में कैसे नरमेध हुए हैं, इनका विवरण पढ़ कर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। देश की समस्याओं से तो राजनैतिक नेतृत्व शायद निबट लेगा मगर राष्ट्र पर समस्या आएगी तो कौन उपाय करेगा? इसी खाई की चिंता न किये जाने का कारण है कि देश का 2/5 भाग पाताल के गर्त में जा गिरा और अब गुलाम है। देश के शेष बचे भाग में इस समस्या से निबटने की तैयारी की योजना बनाना आवश्यक है। अन्यथा तुर्की के अलवी समूह, सीरिया के यज्दी समाज, अफगानिस्तान के हिन्दुओं-सिखों, पाकिस्तान के कलश समाज की तरह भारत में फैले-बसे कैंसर से राष्ट्र की स्वस्थ कोशिकाएं नहीं निबट पाएंगी और राष्ट्र खंड-खंड हो जायेगा। हमारे पास राजनैतिक नेतृत्व के साथ-साथ सांस्कृतिक-धार्मिक नेतृत्व होना आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या विश्व हिन्दू परिषद इस खाई को कुछ भरते हैं। समाज को स्वयं भी मुट्ठीबंद समूह बनना होगा। इसके लिए सांस्कृतिक-धार्मिक नेतृत्व का कहा अक्षरश: मानने की उसी मन:स्थिति में आना होगा जिसमें कैंसर युक्त कोशिकाएं दिखती हैं। – तुफैल चतुर्वेदी
संपर्क सूत्र: 9711296239
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