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जो हारे वे चुप हैं, जो जीते वे डरे हुए हैं।
किसी ने नहीं सोचा था कि नतीजे ऐसे होंगे। दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों की घोषणा सभी राजनीतिक दलों के रणनीतिकारों के लिए सबक है। यह इस बात की झलक है कि समाज की सामूहिक शक्ति के आगे सब बौना पड़ जाता है।
एकतरफा चुनाव परिणाम आने के बाद जब अरविन्द केजरीवाल पटेल नगर स्थित पार्टी कार्यालय की छत पर चढ़े तो उन्हें समाज की विराट शक्ति का 'ट्रेलर' दिखा। उन्होंने स्वीकारा कि अब वे डरे हुए हैं।
समाज ने जब सारी सीटें एकतरफ समेट दीं, तोे डरने की जरूरत क्या है! मगर ठहरिए, जरूरत है।
उन्हें डरना ही चाहिए। जगाना और फुसलाना, दो अलग-अलग अथार्ें वाले शब्द हैं। आम आदमी पार्टी ने समाज को जगाया नहीं है, मुफ्त नेमतों से सबकी झोली भर देंगे, ऐसा लालच दिखाकर फुसलाया है।
कमेरों के शहर को मुफ्तखोरी का सपना दिखाना अपराध है। यह अपराध आम आदमी पार्टी ने किया है। आज यदि केजरीवाल की ओर से 'डरे हुए हैं' वाली टिप्पणी आती है, तो उनके बयान को सादगी की बजाय सत्य से साक्षात्कार के तौर पर देखना चाहिए।
समाज में हिलोर जगाने, व्यवस्था को कोसने, अराजक होने का ऐलान करने और फिर उसी व्यवस्था की सीढि़यां चढ़ने वाले केजरीवाल भारतीय राजनीति में 'वादों के नायक' हैं। उन्होंने दिल्ली वालों से वादा किया है कि इस बार मैदान छोड़कर नहीं भागेंगे। यह वादा उन्हें भारी पड़ने वाला है। केजरीवाल यह बात अच्छी तरह जानते भी हैं।
केंद्रीय गृहमंत्री या प्रधानमंत्री से आआपा नेताओं की मुलाकात सिर्फ शपथ ग्रहण समारोह का न्योता नहीं थी। यह पटेल नगर में दिखे भय का 'एक्सटेंशन' भी था।
दिल्ली के दंगल में केजरीवाल जीत का श्रेय ले सकते हैं, लेकिन वे इसे भाजपा की हार कहने का राजनीतिक जोखिम नहीं उठा सकते। व्यक्ति और परिवार की धुरी पर 'घूमतीं-झूमतीं' भ्रष्ट पार्टियां भारतीय राजनीति में धकेली-अकेली हालत में हैं, ताजा-ताजा जीत की खुशबू उन्हें आम आदमी की तरफ खींच रही है। हारे-दुत्कारे हुए कामरेड केजरीवाल के कंधे पर चढ़ने को आतुर हैं। इन सबको ढोना!! केजरीवाल डरे हुए हैं।
जनाकांक्षाओं का जो जुआ उनके कंधे पर है, तमाम नायकत्व के बावजूद इसे ढो पाना उनके लिए मुश्किल है। यहीं से आआपा का भय उजागर होता है। अनायास उमड़ी सौजन्यता-शालीनता की पर्तें उघड़ती हैं।
आआपा को भाजपा चाहिए। भाजपा नीत केंद्र सरकार की शक्ति चाहिए। बाहर के लोग, विदेशी अनाम चंदे, मुफ्त-मुफ्त के ढोल और इस सब पर आम आदमी का सादा सा आवरण। इन तिकड़मों से लोगों को भरमाया जा सकता है, दिल्ली में काम नहीं हो सकता।
इस बार भी काम नहीं हुआ, मैदान छोड़ा, तो लोग क्या कहेंगे? क्या करेंगे??
जनता में अराजकता का बीज बोने वाली पार्टी डरी हुई है। उसे वादों का पहाड़ लांघना है। जनता के सामने अपने बूते लांघना है। ये उसका वादा है।
चुनाव में अकेले सीटें बटोर ले जाना और बात है, दिल्ली की इच्छाओं को अकेले पूरा करना और बात। कम से कम दिल्ली विधानसभा तो सिर्फ अपने दम पर यह काम नहीं कर सकती।
'आप' का दम इसी वजह से फूला हुआ है।
दिल्ली का संवैधानिक दर्जा केंद्र शासित प्रदेश का है। यहां पुलिस, जन प्रशासन और भूमि जैसे मसले केंद्र सरकार के मंत्रालयों का विषय हैं। ठीक उसी तरह जैसे अन्य केंद्र शासित प्रदेशों की देखरेख भारत सरकार करती है। हां, बाकी जगह उपराज्यपाल सर्वेसर्वा हैं और दिल्ली के अपने निर्वाचित विधानसभा सदस्य हैं। अन्य केन्द्र शासित प्रदेशों की अपनी वित्तीय सीमाएं हैं। बजट केंद्रीय गृह मंत्रालय के ही बजट का भाग है। दिल्ली सरकार अपने राजस्व संसाधन खड़े कर सकती है।
आआपा को दिल्ली सरकार के उपलब्ध संसाधनों के बूते दिल्ली वालों के सपने पूरे करने हैं।
वादों के ढेर और संसाधनों की गुल्लक का फर्क केजरीवाल जानते हैं। यकीनन वे डरे हुए हैं।
केंद्र का सहयोग चाहिए, ठीक बात। परंतु, संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रखते हुए दिल्ली को दुलार और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों से सौतेला व्यवहार भारत सरकार भला कैसे कर सकती है? दिल्ली के वादे पूरा करना आआपा की राजनैतिक, या यूं कहें नैतिक जिम्मेदारी है।
दिल्ली का जनमत जादुई है। यह 'मैजिक' दिल्ली की जनता ने किया है। अरविन्द, यह 'ट्रैजिक' ना बन जाए ये जिम्मेदारी अब 'आप' की है।
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