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पल भर ठिठकी थमी नहीं
किसी तीर्थस्थान सरीखा दर्जा हासिल कर चुके दुनिया के संभवत: इकलौते प्रकाशन संस्थान गीता प्रेस के प्रकाशन मैनेजर डॉ. लालमणि तिवारी आमतौर पर अज्ञात नम्बरों से आने वाली फोन कॉल्स के प्रति थोड़े संकोची रहते हैं लेकिन पिछले कुछ हफ्तों से वे ऐसे फोन जरूर उठाते हैं। बकौल डॉ. तिवारी तकरीबन तीन सप्ताह से बड़ी संख्या में ऐसे लोगों के फोन आ रहे हैं जो भावुक और कभी-कभी घबराई सी आवाज में पूछते हैं कि आखिरकार गीता प्रेस क्यों बंद हो गया? हम उन्हें बता रहे हैं कि ये खबर सही नहीं है और दूसरी तरफ से आश्वस्तिभरी प्रतिक्रियाएं सुनायी देने लगती हैं।
दरअसल यह खबर व्हाट्सएप और कुछ अन्य सोशल साइट्स पर तेजी से चल रहे कुछ संदेशों के बाद जंगल की आग की तरह फैली। हालांकि हर आग की तरह इसमें भी हकीकत की कुछ चिंगारियां जरूर थीं। अपनी स्थापना के 91 वर्षों में संभवत: यह पहला मौका था जब विगत 15 दिसम्बर को श्रमिक आन्दोलन के मुखर होने के बाद गीता प्रेस प्रबंधन ने दो दिनों के लिए तालाबंदी की घोषणा कर दी। हालांकि अगले ही दिन दोनों पक्षों द्वारा लचीला रुख अपनाने और प्रशासनिक हस्तक्षेप के बाद वहां कामकाज शुरू हो गया। वेतन में प्रतिवर्ष दस प्रतिशत वृद्धि और वेतन के बीस प्रतिशत के बराबर आवास भत्ता जैसी मांगों को लेकर गीता प्रेस के श्रमिक अब श्रम न्यायालय में हैं जहां सुनवाइयों का सिलसिला जारी है। गीता प्रेस में कामकाज भले ही सुचारू ढंग से होने लगा हो लेकिन इस घटना ने उन बहुत सारे लोगों को अचानक चिंतित जरूर कर दिया जो गीता प्रेस को भारतीय धर्म और संस्कृति की एक ऐसी अविरल धारा के रूप में देखते हैं जिसमें देश ही नहीं विदेशों में भी रहने वाली हिन्दू धर्मानुयायी अनेक पीढि़यां डुबकियां लगाकर संतृप्त अनुभव करती हैं। इसकी ठोस वजहें हैं। दीनदयाल उपाध्याय गोरख्पुर विश्वविद्यालय में कला संकाय के डीन और हिन्दी के वरिष्ठ आचार्य प्रो. सुरेन्द्र दुबे कहते हैं- धर्म साहित्य के सर्वाधिक विश्वसनीय पर्याय बन चुके गीता प्रेस ने हमें सिर्फ किताबें भर नहीं दी हैं।
सच तो यह है कि ज्यादातर लोग अपने भगवान के जिस स्वरूप से उन्हें पहचानते हैं, वह स्वरूप गीता प्रेस ने ही दिये हैं।
भगवानों के इन स्वरूपों की कथा खुद में बड़ी रोचक है। गीता प्रेस के प्रणेता भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें प्रभु के प्राय: दर्शन हुआ करते थे। गीता प्रेस की स्थापना के बाद भाई जी ने बीके मित्रा, जगन्नाथ और भगवान जैसे कुछ श्रेष्ठ चित्रकारों को यहां बुला लिया था। कहते हैं कि प्रभु दर्शन के बाद वह इन चित्रकारों को बुलाकर भगवान की छवियों के बारे में विस्तार से बताते थे। तीनों चित्रकार ध्यानपूर्वक नोट्स लेते थे और बाद में इसी के आधार पर रेखांकन करके भाई जी के सामने लाते थे। सभी चित्रों को देखने के बाद भाई जी उस चित्र को चुनते थे जो उन्हें दर्शन में दिखी छवि के सबसे अधिक करीब लगता था और तब उस चित्र को पूर्णता दी जाती थी। गीता प्रेस आज भी उन्हीं चित्रों का उपयोग करता है। गीता प्रेस के ट्रस्टी बैजनाथ अग्रवाल कहते हैं- गीता प्रेस का प्रत्येक चित्र भाई जी की भावना और अनुभूति का प्रसाद है। वैसी भाव भूमि अर्जित करना हर किसी के लिए संभव नहीं है। इन चित्रों को अक्षुण्णता प्रदान करने के लिए बीते वर्षों में गीता प्रेस प्रबंधन ने इसका डिजिटाइजेशन कराया और अब इन सभी 1750 चित्रों के डिजिटल बैकअप उपलब्ध हैं। दरअसल गीता प्रेस को सिर्फ एक मुद्रण और प्रकाशन केन्द्र नहीं कहा जा सकता। सेठ जयदयाल जी गोयन्दका से लेकर घनश्याम दास जालान तक और भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार से लेकर इसके मौजूदा सम्पादक राधेश्याम जी खेमका तक हर किसी ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि इसका उद्देश्य करोबार नहीं बल्कि सस्ते मूल्य पर सद्साहित्य का देश-विदेश में प्रसाद सुलभ कराना है। गीता प्रेस ने अपनी इस भूमिका का पिछले नौ दशकों में सम्यक निर्वहन करते हुए धर्म और संस्कृति के सर्वाधिक विश्वसनीय प्रसारण केन्द का दर्जा हासिल किया है। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रतिकुलपति प्रो. चित्तरंजन मिश्र कहते हैं- गीता प्रेस इस अंचल की सांस्कृतिक पहचान का ऐसा केन्द्र रहा है जिसने पुस्तकों के प्रचार-प्रसार के नये मुहावरे गढ़े हैं।
प्रो. मिश्र के मुताबिक यह संस्था स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि यदि संकल्प शुभ और पवित्र हों तो जमाने की मांग, महंगाई, बदलती तकनीक और समथिंग न्यू जैसे उन कारोबारी बहानों को निस्तेज और निष्प्रभावी किया जा सकता है जो खराब और घटिया साहित्य की जमीन तैयार करते हैं या किताबों को महंगा बनाकर सिर्फ पुस्तकालय बिक्री तक सीमित कर देते हैं। यह संकल्प की शक्ति का ही प्रभाव है कि नौ दशक पुरानी यह संस्था बदलते जमाने के साथ कदम मिलाते हुए सस्ते मूल्य और विज्ञापन रहित पुस्तकों की बिक्री का अपना ही कीर्तिमान प्रतिवर्ष तोड़ रही है। वरिष्ठ समाजशास्त्री प्रो. शिवबहाल सिंह कहते हैं- अगर कोई नब्बे साल पुरानी प्रकाशन संस्था अपने उसी कंटेंट को उसी स्वरूप में प्रतिदिन पचास हजार से ज्यादा प्रतियों में बेच पा रही है और वह भी नाममात्र के मूल्य पर तो ऐसे संस्थान राष्ट्रीय धरोहर जैसे हैं। प्रो. सिंह एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि ऐसे समय में जबकि धर्मगुरुओं को भी टीवी चैनलों पर आना पड़ रहा है, गीता प्रेस के प्रकाशनों की बिक्री का लगातार बढ़ते जाना सराहनीय है। जाहिर है, इसके लिए संस्थान खासी मेहनत और मशक्कत करता है। पिछले कुछ वर्षों में गीता प्रेस ने गुजराती, तेलुगू, बंगला, उडि़या, कन्नड़, मलयालम, असमिया के अलावा उर्दू में भी किताबें छापी हैं। वर्ष 2005 से नेपाली भाषा में भी प्रकाशन प्रारंभ किया गया। गीता प्रेस के न्यासी श्री बैजनाथ अग्रवाल के मुताबिक नेपाली में श्री रामचरितमानस के अलावा स्वामी रामसुखदास जी द्वारा लिखित मानवमात्र के कल्याण के लिए भी अच्छा प्रसार है। कुछ वर्षों से विषम परिस्थितियों से गुजर रहे नेपाली भाइयों और बहनों को भी इन प्रकाशनों से आंतरिक शक्ति प्राप्त होगी। अन्य भाषाओं में स्तरीय प्रकाशन के लिए गीता प्रेस प्रबंधन विभिन्न प्रदेशों में जाकर लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों से संपर्क करता है ताकि अनुवाद में चूक न हो क्योंकि जैसा गोरखपुर से भाजपा सांसद और गोरक्षपीठ के महंत योगी आदित्यनाथ कहते हैं अशुद्धि रहित निर्दोष प्रकाशन गीता प्रेस की पहचान रही है। गीता प्रेस को सेठ जयदयाल जी गोयन्दका के सपनों के अनुरूप विस्तार देने में सर्वाधिक बड़ी भूमिका निभाने वाले भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने शुरू से ही इसे व्यावसायिक प्रकल्प की जगह आध्यात्मिक धारा का एक सतत् प्रवाहमान स्रोत बनाने की कोशिश की और इसके लिए अनेक नवाचार प्रारंभ किये गये। मिसाल के तौर पर आज भी गीता प्रेस में नाम जप का एक अभिनव प्रकल्प चलता है। संस्थान के भीतर व्यक्तियों की क्रमवार ड्यूटी लगती है जो घूम-घूम कर नारायण-नारायण कहिए का उच्चारण करते हैं। कुछ हिस्सों में इस व्यवस्था के लिए 'आडियो सिस्टम' भी लगाये गये हैं। कम ही लोगों को पता होगा कि गीता प्रेस अभी भी अपने पाठकों के प्रश्नों और शंकाओं वाले पत्रों का समाधान भी करता है। यही नहीं ऐसे अभिभावक जो अपनी पुत्री के विवाह को लेकर चिंतित होते हैं उन्हें डाक द्वारा एक चित्र और प्रार्थना विधि भी प्रेषित की जाती है। पेशे से चिकित्सक और गीता प्रेस के कार्यक्रमों में रुचि और प्रतिभागिता रखने वाले डा. योगेश छापडि़या कहते हैं- गीता प्रेस मानव कल्याण के लिए कितना प्रतिबद्ध है इसका अंदाजा लगाने के लिए ये प्रकल्प पर्याप्त हैं।
गीता प्रेस के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रकाशनों में से एक कल्याण की स्थापना के पीछे भी यही उद्देश्य था। संस्था के परिकल्पक इसके माध्यम से न केवल दोषरहित मुद्रण के साथ धार्मिक साहित्य का प्रसार करना चाहते थे बल्कि इसके जरिये वे घर-घर में भारतीय संस्कृति के विभिन्न मूल्यों, संस्कारों और परम्पराओं की पुनर्प्रतिष्ठा भी करना चाहते थे। लगभग ढाई लाख प्रसार संख्या वाले कल्याण के विशेषांक पाठकों के लिए धरोहर का दर्जा रखते हैं। अब तक इसके 89 विशेषांक निकल चुके हैं। इन दिनों संस्कृति पर चौतरफा हमलावर खतरों से चिंतित अधिकांश लोग धर्म, अध्यात्म ओर संस्कृति की इस अजस्त्र धारा को हमेशा प्रवाहमान देखना चाहते हैं। स्वयं आंदोलित कर्मचारी भी इस बात से पूर्ण सहमति रखते हैं कि इस संस्थान में तालाबंदी की नौबत नहीं आनी चाहिए और यदि प्रबंधन अपनी आर्थिक मजबूरियों के चलते उनका हितरक्षण नहीं कर सकता तो यह काम सरकार को करना चाहिए क्योंकि गीता प्रेस संस्थान मात्र से ज्यादा एक राष्ट्रीय धरोहर है। अनेक सामाजिक प्रकल्प चलाने वाले विहिप के प्रांत सहमंत्री बृजेश त्रिपाठी कहते हैं- भारत की परंपरा व साहित्य में आस्था रखने वाले हर किसी व्यक्ति को आगे भी इसे सुरक्षित रखने का हरसंभव यत्न करना चाहिए। ल्ल
गीता प्रेस का प्रकाशन संसार
नौ दशकों की इस यात्रा में गीता प्रेस ने कम कीमत पर 53 करोड़ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया है। सिर्फ पिछले वर्ष 5000 टन कागज इस्तेमाल में लाया गया। हालांकि गीता प्रेस के ट्रस्टी और व्यवस्थापक बैजनाथ अग्रवाल सहजता से स्वीकार करते हैं, सत्साहित्य की हमसे जितनी अपेक्षा है, हम उसके अनुरूप आपूर्ति अभी भी नहीं कर पा रहे हैं।
गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित सबसे कम कीमत की किताब है हनुमान चालीसा का गुटका संस्करण जिसकी कीमत दो रुपये है, जबकि गीता के गुटके की कीमत है पांच रुपए। रामचरितमानस 25 रुपए में मिल जायेगा। उपनिषदों के सार-रूप नौ-नौ रुपए, में बेचे जाते हैं। मौजूदा समय में, जबकि कागज से लेकर छपाई सब कुछ महंगी होती जा रही है, गीता प्रेस इतने सस्ते दाम में बेहतरीन-गुणवत्ता और दोषरहित मुद्रण वितरण़्ा कर लेता है। बकौल श्री अग्रवाल 'हम मुनाफे के लिए, काम नहीं करते। फिर हमारा अपना तंत्र है, जिसमें सेवाभाव से जुड़े लोग भी हैं। हम किसी से न तो दान लेते हैं, न ही विज्ञापन। गीता प्रेस के प्रकाशनों की विपुल बिक्री से प्राप्त धन का प्रयोग हम पुन: इसी प्रयोजन में करते हैं। शेष प्रभु की कृपा है।' किताबों की तरह ही गीता प्रेस ने ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों एवं देवी-देवताओं के हजारों रंगीन चित्र भी प्रकाशित किए हैं।
श्रीमद्भगवदगीता की 7 करोड़ से भी अधिक प्रतियां प्रकाशित कर चुका गीता प्रेस एक अन्य लोकप्रिय प्रकाशन 'कल्याण' के लिए भी प्रसिद्ध है। इस समय प्रतिमाह इसकी दो लाख बीस हजार प्रतियां छपती हैं। अब तक इसके 89 विशेषांक प्रकाशित हो चुके हैं। कल्याण के पहले अंक में महात्मा गांधी का एक लेख भी प्रकाशित हुआ था। कल्याण के लिए आाशीर्वाद प्राप्त करने भाईजी और सेठ जमनालाल बजाज गांधी के पास गए।
गांधीजी ने आशीर्वाद में कहा कि कल्याण में कभी कोई बाहरी विज्ञापन प्रकाशित न किया जाए और इसमें कभी पुस्तकों की समालोचना न छापी जाए। 1600 ग्र्राहकों से शुरू हुए कल्याण के वार्षिक ग्र्राहकों की संख्या ढाई लाख पार कर गई है, मगर इस नीति में अभी तक बदलाव नहीं आया। गीता प्रेस हिन्दी में कल्याण और युग कल्याण के अलावा अंग्रेजी में 'कल्याण कल्पतरु' मासिक छापता है। गीता प्रेस की पुस्तकों तथा कल्याण के प्रसार के लिए गीता प्रेस ने गोरखपुर, दिल्ली, कोलकाता, हरिद्वार तथा ऋषिकेश स्थित खुदरा विक्रेताओं का एक विपणन संजाल तैयार किया है।
गीता प्रेस ने साइबर आकाश में संपर्क सूत्र स्थापित किया है। कोई दो साल पहले ६६६.ॅ्र३ंस्र१ी२२ नाम वाली वेबसाइट शुरू की गई, जिसे बहुत सारे लोग देखते हैं और इंटरनेट के जरिए गीता प्रेस के प्रकाशनों की खरीद-फरोख्त भी करते हैं। ल्ल
ऐसे हुई शुरुआत
बांकुड़ा (राजस्थान) के धर्मानुरागी सेठ जयदयाल जी गोयन्दका को श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करना अत्यंत प्रिय था। वे इसी में जीवन की समस्त दार्शनिकता का दर्शन करते थे लेकिन जब भी वे इसे पढ़ते उनका मन इस ग्रंथ के अठारहवें अध्याय के 68वें और 69वें श्लोकों पर कुछ देर के लिए बंध सा जाता था जिसमें लिखा था-
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्य संशय:।।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि।।
अर्थात जो पुरुष इस रहस्य युक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको प्राप्त होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई होगा भी नहीं।
सेठ जी को लगा जैसे उन्हें पूरे जीवन का उद्देश्य ही मिल गया। उनकी सारी साधना गीतामय होने लगी। उसी क्षण से उनके मन में इसके कई-कई अर्थ प्रकट होने लगे। सेठ जी घूम-घूम कर, घर-घर जाकर सत्संग और प्रवचन करने लगे। गीता का प्रचार उनके लिए जैसे प्रभु की आज्ञा हो गयी। किसी ने सुझाव दिया कि यदि वे इन प्रवचनों और टीकाओं को छपवा कर लोगों में वितरित करें तो बड़ी संख्या में लोगों को लाभ मिलेगा। सेठ जी ने कलकत्ता के वाणिक प्रेस से इसे छपवाया तो पर जब किताब हाथ में आयी तो उन्हें ढेरों अशुद्धियां अपने हाथ से सुधारनी पड़ीं। उनका मन खिन्न हो गया। गोरखपुर के कारोबारी घनश्याम दास जालान उनके अनन्य भक्त थे।
उन्होंने सेठ जी को सुझाव दिया कि जब तक अपना प्रेस नहीं होगा, मुद्रण त्रुटियों से निजात पाना कठिन होगा। सेठ जी को बात जंच गयी और तय हुआ कि कलकत्ता स्थित उनके गोविन्द भवन कार्यालय से संचालित इस मुद्रणालय को जालान जी की निगरानी में गोरखपुर में खोला जायेगा। गोरखपुर के पुराने मुहल्ले उर्दू बाजार में दस रुपये महीने पर किराये के मकान में छपाई की जो मशीन लगी उस पर शुरू में तीन किताबें छपीं- त्याग से भगवत प्राप्ति, गजल-गीता तथा प्रेमशक्ति प्रकाश। जालान जी ने पंडित सभापति मिश्र को इसका विपणन प्रभारी बनाया। मिश्र जी गांव-गांव जाकर लोगों को इन प्रकाशनों की महत्ता के बारे में बताया करते। जालान जी ने गीता को घर-घर पहुंचाने के लिए एक अद्भुत प्रयोग किया। उन्होंने ऐलान किया कि जो भी विद्यार्थी गीता का एक अध्याय कंठस्थ करके सुना देगा उसे आठ आने का पुरस्कार दिया जायेगा। इस प्रयोग ने श्रीमद्भगवदगीता की प्रतियों का प्रसार तेजी से बढ़ा दिया। वाणिज्य और व्यवसाय प्रबंधन के आचार्य हेमशंकर वाजपेयी कहते हैं- विपणन और प्रबंधन के ये सूत्र आज भी व्यवसाय प्रबंधन के विद्यार्थियों को चौंका देते हैं। ल्ल
गीता प्रेस, गोरखपुर का संक्षिप्त परिचय
गीताप्रेस के संस्थापक ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका का जीवनव्रत था- गीता प्रचार। उनकी मंगल अभिलाषा थी कि गीता से जो प्रकाश उन्हें मिला है वह मानव मात्र को मिले। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गीताप्रेस की स्थापना विक्रमी संवत् 1980 (सन 1923 ई.) के मई महीने में हुई।
गोबिन्द भवन- कार्यालय, कोलकाता के नाम से सोसायटी पंजीयन अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत गीता प्रेस आरंभ से ही एक धार्मिक संस्था के रूप में प्रतिष्ठित रही है। इसका संचालन संस्था के ट्रस्ट बोर्ड के नियंत्रण में होता है। गीता प्रेस का मुख्य कार्य सस्ते से सस्ते मूल्य पर सत्साहित्य का प्रचार और प्रसार करना है। पुस्तकों के मूल्य प्राय: लागत से कम रखे जाते हैं, परन्तु इसके लिए यह संस्था किसी प्रकार के चन्दे या आर्थिक सहायता की याचना नहीं करती।
मार्च 2010 तक गीता प्रेस के द्वारा विभिन्न संस्करणों में जो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं- उनकी संख्या इस प्रकार है-श्रीमद्भगवदगीता- 881 लाख, श्रीरामचरितमानस एवं तुलसी साहित्य 790 लाख, पुराण, उपनिषद आदि ग्रंथ – 205 लाख, महिला एवं बालोपयोगी – 995 लाख, भक्तचरित्र एवं भजनमाला 931 लाख, अन्य प्रकाशन – 989 लाख। कुल 47 करोड़ 11 लाख।
गत वर्ष लगभग रु. 34 करोड़ मूल्य की पुस्तकें उपलब्ध करायी गयीं, इसके लिए लगभग 4500 टन कागज का उपयोग किया गया।
गीता प्रेस के 1,655 वर्तमान प्रकाशनों में लगभग 800 प्रकाशन संस्कृत एवं हिन्दी के हैं। शेष प्रकाशन मुख्यतया गुजराती, मराठी, तेलुगु, बंगला, उडि़या, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी आदि भारतीय भाषाओं में हैं। श्रीरामचरितमानस आदि का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी है। गीता प्रेस की पुस्तकों एवं कल्याण का प्रचार 18 निजी थोक, 4 फुटकर पुस्तक दुकानों, 30 स्टेशन स्टालों तथा हजारों पुस्तक विक्रेताओं के माध्यम से होता है। कल्याण, युग-कल्याण एवं कल्याण कल्पतरु- गीताप्रेस द्वारा तीन मासिक पत्र कल्याण तथा युग कल्याण हिन्दी में एवं कल्याण कल्पतरु अंग्रेजी में प्रकाशित किये जाते हैं।
कल्याण की वर्तमान समय में लगभग 2,15,000 प्रतियां छपती हैं। वर्ष का पहला अंक किसी विषय का विशेषांक होता है। जनवरी 2011 का विशेषांक दान महिमा अंक है। कल्याण भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, सदाचार एवं साधन-संबंधी सामग्री द्वारा जन-जन को कल्याण के पथ पर अग्रसरित करने का निरंतर प्रयास कर रहा है। कल्याण कल्पतरु के अब तक 56 विशेषांक निकल चुके हैं।
नित्यलीलालीन परम श्रद्धेय हनुमान प्रसाद जी पोद्दार ने आजीवन कल्याण एवं कल्याण कल्पतरु का सम्पादन कार्य किया। महात्मा गांधी जी की सम्मति के अनुसार कल्याण एवं कल्याण कल्पतरु में आरंभ से ही न तो कोई विज्ञापन छापा जाता है और न पुस्तकों की समालोचना ही की जाती है।
गीता प्रेस मुख्य द्वार – गीता द्वार की रचना के प्रत्येक पाद में भारतीय संस्कृति, धर्म एवं कला की गरिमा को सन्निहित करने का प्रयास किया गया है। इस मुख्य द्वार के निर्माण में देश की गौरवमयी प्राचीन कलाओं तथा विख्यात प्राचीन मन्दिरों से प्रेरणा ली गयी है और इनकी विभिन्न शैलियों का आंशिक रूप में दिग्दर्शन कराने का प्रयास किया गया है।
लीला चित्र मन्दिर – गीता प्रेस के लीला चित्र मन्दिर में भगवान श्रीराम और भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं के रमणीय 684 चित्रों के अतिरिक्त प्रतिभावान चित्रकारों द्वारा बनाये हुए अनेक हस्त निर्मित चित्रों का संग्रह है। चित्र मंदिर की दीवार पर संगमरमर के पत्थरों पर संपूर्ण श्रीमद्भगवदगीता एवं संत भक्तों के 700 से अधिक दोहे तथा वाणियां खुदी हुई हैं। इस विशाल मंडप में प्रतिवर्ष गीता जयंती के परम पावन अवसर पर वृहद गीता प्रदर्शनी एवं समय-समय पर प्रवचन तथा अन्य धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है।
पुस्तकों का प्रदर्शन – गीता प्रेस, गोरखपुर मुख्य द्वार के सामने निर्मित वातानुकूलित पुस्तक दुकान में विभिन्न भाषाओं में स्वप्रकाशित पुस्तकों के भव्य प्रदर्शन एवं बिक्री की
व्यवस्था है।
गीता प्रेस का मुख्य द्वार एवं लीला चित्र मंदिर, गोरखपुर का एक महत्वपूर्ण दर्शनीय आकर्षक स्थल है।
इनका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपने करकमलों द्वारा 29 अप्रैल 1955 में किया था।
संस्था के अन्य कार्यकलाप
गीता भवन स्वर्गाश्रम- पुण्यसलिला भगवती भागीरथी श्रीगंगाजी के तट पर स्थित गीता भवन में दुर्लभ सत्संग का नित्यप्रति आयोजन
चलता है।
यहां पर 1000 से अधिक कमरे हैं जिसमें साधकों के लिए नि:श्ुाल्क आवास, नि:शुल्क आयुर्वेदिक चिकित्सा तथा कम मूल्य पर भोजन आदि की व्यवस्था है।
साधुओं को मुफ्त भोजन, वस्त्र आदि दिये जाते हैं। गंगा तट पर श्रद्धालुओं द्वारा 31 अरब रामनाम की हस्तलिखित पुस्तिकाओं की नींव पर बना रामनाम स्तंभ आगंतुक भक्तों की परिक्रमा एवं साधना का एक सुन्दर स्थल है। यहां पर बना कला-स्थल तथा रमणीय घाटों पर गंगा स्नान, साधन एवं भजन आदि की सुन्दर
व्यवस्था है।
गीता भवन- आयुर्वेद संस्थान स्वर्गाश्रम तथा गोविन्द भवन- आयुर्वेदिक औषधालय कोलकाता में शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण एवं स्वर्गाश्रम, कोलकाता, गोरखपुर, चूरू, सेरत आदि स्थानों पर नि:शुल्क आयुर्वेदिक चिकित्सा की व्यवस्था है।
ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, चूरू (राजस्थान) में प्राचीन पद्धति के अनुसार लगभग 200 से अधिक ब्रह्मचारियों के नि:शुल्क शिक्षा, आवास, चिकित्सा आदि की तथा अल्प मासिक शुल्क पर भोजन की व्यवस्था है।
गोविन्द भवन- कार्यालय, कोलकाता- संस्था के प्रधान कार्यालय, कोलकाता के विशाल सभागार में नित्य गीता पाठ और संत महात्माओं के प्रवचन की व्यवस्था है। यहां की परम सेवा समिति मरणासन्न व्यक्तियों को श्रीभगवन्नाम संकीर्तन एवं गीता पाठ सुनाने की तथा तुलसी, गंगाजल सेवन कराने की व्यवस्था करती है। यहां स्वप्रकाशित पुस्तकें, आयुर्वेदिक औषधियां एवं कपड़े आदि शुद्ध वस्तुओं की उचित मूल्य पर बिक्री करने की व्यवस्था है। संस्था के अन्य विभागों में प्रमुख – गीता रामायण-परीक्षा समिति, गीता-रामायण प्रचार संघ, साधक संघ, नाम जप विभाग एवं गीता प्रेस हस्तनिर्मित वस्त्र विभाग आदि हैं।
इन विभागों द्वारा संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप शुद्ध वस्तुओं की उपलब्धि एवं अन्य जन कल्याणकारी कार्य होते हैं।
गीता प्रेस सेवादल – दुर्भिक्ष, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं में पीडि़तों की यथासंभव आवश्यक सेवा करता है। ल्ल
अद्भुत है लीला चित्र मंदिर
गीता प्रेस संभवत: दुनिया का एकमात्र ऐसा प्रकाशन केंद्र है, जिसे दर्शनीय तीर्थस्थल का दर्जा हासिल है। इसकी प्रतिष्ठा में यहां स्थापित लीला चित्र मंदिर का विशेष योगदान है, जो देश में अपने ढंग का अकेला चित्र संसार है। बीस फीट ऊंचे तथा लगभग 7100 वर्ग फीट विस्तार में बने इस मंदिर में भगवान विष्ण़्ाु, राम, कृष्ण, शिव, देवी, बुद्व महावीर, जरथ्रुस्त्र आदि के चित्र हैं। 29 अप्रैल 1955 को राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसका उद्घाटन किया। इस चित्र मंदिर की दीवारों पर संगमरमर में गीता के सभी 18 अध्याय उत्कीर्र्ण किए गए हैं। इसके अलावा रणभूमि में रथ पर सवार कृष्ण़्ा-अर्जुन के गीता-संवाद की मनोहर मूर्ति भी है। बाहर-भीतर की दीवारों पर विभिन्न संतों के लगभग सात सौ दोहे-चौपाइयां भी अंकित हैं। गीता की पुरानी-नई 1167 प्रतियां हैं, जिनमें 22 भाषाओं में 'मुक्ति गीता' के संस्करण़्ा भी हैं। इस चित्र संग्रह में कृष्ण़्ालीला के 151, रामलीला के 182, शिवलीला के 26 चित्रों सहित 332 फ्रेमों में कुल 583 बहुरंगे हस्तनिर्मित चित्र हैं, जिनमें से कुछ में तो सोने का काम है। -हर्ष कुमार
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