आपातकाल का 'सेकुलरिज्म'
July 19, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • अधिक ⋮
    • ऑपरेशन सिंदूर
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • जनजातीय नायक
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • अधिक ⋮
    • ऑपरेशन सिंदूर
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • जनजातीय नायक
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • धर्म-संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

आपातकाल का 'सेकुलरिज्म'

by
Feb 9, 2015, 12:00 am IST
in Archive
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

दिंनाक: 09 Feb 2015 12:23:00

शिवानन्द द्विवेदी
सू चना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में दिए गये एक विज्ञापन में भारतीय संविधान की प्रस्तावना का जिक्र आया था। चूंकि विज्ञापन का उद्देश्य 26 जनवरी, 1950 को लागू संविधान के भाव को दर्शाना था, लिहाजा विज्ञापनदाता मंत्रालय ने उसी प्रस्तावना को प्रस्तुत किया जो तत्कालीन दौर यानी 1950 में लिखी गई थी। इस विज्ञापन के प्रकाशित होने के बाद खुद को सेकुलर कहने वाले कुछ छद्म बुद्घिजीवियों सहित कथित सेकुलर राजनीतिक दलों की पीड़ा का पारावार उमड़ पड़ा। उनका दर्द यह था कि विज्ञापन में छपे चित्र में संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवाद' व 'सेकुलर' शब्द हटा लिए गये हैं। हालांकि इस पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने कहा कि विज्ञापन में जो सामग्री दी गयी है, वह संविधान की वही मूल सामग्री है, जो संविधान लागू होने के समय थी, जबकि 'सेकुलर' व 'समाजवादी' शब्द 42वें संशोधन के तहत बाद में जोड़े गये हैं। इन सबके बीच संविधान की प्रस्तावना में इन दोनों ही शब्दों के औचित्य एवं 42वें संशोधन की पूरी प्रक्रिया पर न सिर्फ बहस शुरू हो गयी बल्कि सवाल उठाए जाने लगे। इस मामले पर शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने तो स्पष्ट कहा कि संविधान की प्रस्तावना से ये दोनों ही शब्द हटा लिए जाने चाहिएं। वहीं केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संजय राउत के बयान से सहमती जताते हुए कहा कि सरकार इस मुद्दे पर बहस को तैयार है कि भारत के संविधान की प्रस्तावना में ये दोनों ही शब्द होने चाहिए कि नहीं! इन तमाम बयानों और विवादों के बीच सवाल यह उठ रहा है कि क्या वाकई भारतीय संविधान की प्रस्तावना से ये शब्द हटाए जाने चाहिएं?
इस पूरे मसले को जानने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि आखिर संविधान की प्रस्तावना में ये शब्द जुड़े कैसे और इनको जोड़ने की प्रक्रिया क्या रही। दरअसल जब 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था, उस दौरान प्रस्तावना में लिखा था, 'हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को़.़.़.आत्मर्पित करते हैं!' लेकिन संविधान लागू होने के ढाई दशक बाद जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर अपनी तानशाही का आपातकाल थोपा था और देश के सभी गैर-इंदिरा समर्थक नेता जबरन जेल में ठूंस दिए गए थे, तभी सन् 1976 में इंदिरा गांधी ने संविधान की मूल प्रस्तावना में असंवैधानिक ढंग से छेड़-छाड़ करते हुए 'सेकुलर' व 'समाजवादी' शब्दों को जोड़ दिया। दरअसल भारत के संविधान की प्रस्तावना में हुई यह छेड़-छाड़ न तो जनता की मांग थी और न ही देश की जरूरत ही थी। यह अवैध संशोधन पूरी तरह से तानाशाह इंदिरा गांधी की जिद और सियासी स्वार्थ की परिणति था। बड़ा सवाल यह है कि जब देश आजाद हुआ और संविधान सभा ने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव अम्बेडकर एवं राजेन्द्र प्रसाद सरीखे लोगों के नेतृत्व में संविधान निर्माण शुरू किया, तब भी उन्हें इन शब्दों की जरूरत प्रस्तावना में महसूस नहीं हुई थी। हालांकि तब नेहरू व जिन्ना की सियासी जिद ने देश को मजहब के नाम पर बांट दिया था, बावजूद इसके भारत के सामाजिक चरित्र व संस्कृति को 'सेकुलर' शब्द की जरूरत नही पड़ी थी। ़तो क्या कहा जाय कि वे संविधान निर्माता 'कम्युनल' थे? क्या 26 जनवरी, 1950 से लेकर 1976 तक भारत एक 'कम्युनल स्टेट' था, जो इन शब्दों को जोड़ देने मात्र से 'सेक्युलर' हो गया? आखिर इस संशोधन का निहितार्थ क्या था? इन सवालों के सन्दर्भ में अपना पक्ष रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय कहते हैं, 'सभी जानते हैं कि आपातकाल के दौर में इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र का गला घोंटते हुए संविधान के 42वें संशोधन के तौर पर 'सेकुलरिज्म' एवं 'समाजवाद' शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ दिया था। दरअसल वह इंदिरा गांधी की तानाशाही का दौर था। चूंकि हर तानाशाह का उद्देश्य होता है कि वह विरोध के स्वरों को दबा दे एवं आम जनमानस से अपने बारे में अच्छा दृष्टिकोण प्राप्त करे, इसलिए इंदिरा गांधी का उद्देश्य भी यही था। अगर देखा जाय तो 42वें संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में इन दो शब्दों को जोड़ने के अलावा भी बहुत बड़ा हिस्सा बदल दिया गया था। ऐसे समय में जब विपक्ष नहीं हो, कोई बहस न हुई हो, तो संविधान की प्रस्तावना को बदल देना पूरे संविधान के साथ खिलवाड़ कहा जाएगा। हालांकि जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने 45वें संशोधन से आपातकाल के दौरान हुए कई संशोधनों को बदल दिया, लेकिन प्रस्तावना में हुए संशोधन को नहीं बदला। उन्हें इसे भी बदल देना चाहिए था! वैसे इन दो शब्दों को इंदिरा गांधी ने अनावश्यक ही जोड़ा था, इनकी कोई जरूरत नहीं थी। हमारे संविधान में समानता व सर्वधर्म समभाव पहले से है। इस पर संविधान निर्माण के दौरान भी चर्चा हुई, लेकिन इसकी जरूरत नहीं महसूस की गयी थी। हालांकि अब विज्ञापन पर हुए इस विवाद के बाद मेरा यह कहना है कि हमें अपने पूरे संविधान पर भी विचार करना चाहिए।'
दरअसल भारतीय संविधान में यह संशोधन ही शक्ति का बेजा इस्तेमाल करके एवं लोकतंत्र को हाशिये पर रखकर किया गया था। चूंकि अपनी खिसकती राजनीतिक जमीन एवं देश की राजनीति में उठ चुके कांग्रेस-विरोधी स्वरों का भान इंदिरा गांधी को हो चुका था, उन्हें इस बात का आभास भी हो चुका था कि अब देश में कांग्रेस की राजनीतिक विचारधारा के सामानांतर एक प्रतिवादी विचारधारा का विकास हो रहा है, लिहाजा उन्होंने अपने राजनीतिक हितों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए इन दोनों ही शब्दों को आपातकाल के उस विपरीत दौर में भी संविधान में शामिल करा दिया। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के लिहाज से देखा जाये तो इंदिरा गांधी द्वारा किये गये इन संशोधनों की आड़ में कहीं न कहीं कांग्रेस आज तक 'सेकुलरिज्म' की राजनीति करती आई है। ऐसा नहीं है कि 42वें संशोधन के तहत महज यही एक बदलाव हुआ। इसके अलावा भी केंद्र की तानाशाही से जुड़े कई संशोधन एवं न्यायपालिका की शक्तियों में हस्तक्षेप की कोशिश भी तब इंदिरा गांधी सरकार द्वारा की गयी थी। मसलन अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लगाने के प्रावधानों में भी बदलाव किया गया था। हालांकि आपातकाल के बाद आई जनता पार्टी सरकार ने तमाम संशोधनों को निरस्त कर दिया। आज जब दुबारा यह मुद्दा सियासी रंग लेता दिख रहा है तो बहस इस बात पर होनी चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में जिस 'सेकुलर' शब्द का जिक्र है, उसके मायने क्या हैं और उसकी आड़ में 'सेकुलरिज्म' के कथित पैरोकार किस किस्म का भ्रम फैला रहे हैं। इस शब्द की आड़ में एक बड़ा भ्रम फैलाया गया है कि चूंकि संविधान में 'सेकुलर' शब्द का जिक्र है, लिहाजा भारत के हर नागरिक को सेकुलर होना चाहिए। जबकि यह पूरी तरह से गलत अवधारणा है। सीधी सी बात है कि व्यक्ति न तो सेकुलर होता है और न ही भारत का संविधान किसी व्यक्ति के लिए सेकुलर होने की शर्त रखता है।
'सेकुलरिज्म' का सीधा संबंध राज्य एवं उस राज्य के संविधान से है। संविधान व राज्य सेकुलर हो सकते हैं, अथवा नहीं हो सकते हैं। मसलन भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, जबकि पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है। राज्य एवं उसका कानून धर्म व मजहब आधारित भेद अपने नागरिकों के लिए न करे, यही 'राज्य का सेकुलरिज्म' है। मगर कोई व्यक्ति सेकुलर हो सकता है, यह तर्क समझ से परे है! इसमें कोई शक नही कि भारत आदिकाल से सर्वधर्म सदभाव व सबका सम्मान करने वाला राष्ट्र है। चूंकि एक राष्ट्र के तौर पर इसकी संस्कृति हिन्दू संस्कृति रही है अत: इसे हिन्दू राष्ट्र कहा जाना गलत नहीं है। लेकिन जब भी बात हिन्दू राष्ट्र की होती है, तब-तब 'सेकुलरिज्म' के कथित पैरोकार इस भ्रम को हवा देने लगते हैं कि 'हिन्दू राष्ट्र' की वकालत संविधान की प्रस्तावना के खिलाफ है। जबकि सचाई यह है कि राष्ट्र और राज्य दोनों अलग-अलग अर्भें वाली संज्ञाएं हैं। राज्य जहां संविधान संचालित होता है वहीं राष्ट्र का निर्माण उस भूभाग की संस्कृति से होता है। इतिहास की पृष्ठभूमि पर जाकर भी यदि भारत के संदर्भ में देखें तो राज्य का अस्तित्व समय के साथ-साथ बदलता रहा है, जबकि एक राष्ट्र के तौर पर यह हजारों सालों से हिन्दू संस्कृति का राष्ट्र रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत का हिन्दू संस्कृति का राष्ट्र होना इसके सफल 'सेकुलर स्टेट' होने की बड़ी वजह है। वरना दुनिया में तमाम इस्लामिक राष्ट्रों में 'स्टेट' की स्थिति कैसी है, यह किसी से छुपा नहीं है। चूंकि भारत की हिन्दू संस्कृति के चरित्र में ही एक सर्वधर्म समभाव वाले राज्य की संभावना आदिकाल से रही है, लिहाजा संविधान की प्रस्तावना में 'सेकुलर' शब्द और जोड़ने का औचित्य नहीं था।
यह संशोधन अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के उद्देश्यों से ही अर्जित किया गया था। आज अगर संविधान की मूल प्रस्तावना को विज्ञापन में जगह दी गयी तो उसका विरोध किया जाना संविधान निर्माताओं का अपमान है। ये डा. अम्बेडकर का अपमान है, डा. राजेन्द्र प्रसाद का अपमान है। सवाल यह है कि क्या इस प्रस्तावना में से इन शब्दों को हटाया जा सकता है, अथवा कुछ नया जोड़ा जा सकता है? अगर सेकुलर व समाजवादी के क्रम में एक शब्द 'राष्ट्रवादी' भी जोड़ दिया जाये तो किसी को दिक्कत नही होनी चाहिए! आखिर राष्ट्रवादी राज्य से दिक्कत की वजह भी तो कोई नहीं है!

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

ज्ञान सभा 2025 : विकसित भारत हेतु शिक्षा पर राष्ट्रीय सम्मेलन, केरल के कालड़ी में होगा आयोजन

सीबी गंज थाना

बरेली: खेत को बना दिया कब्रिस्तान, जुम्मा शाह ने बिना अनुमति दफनाया नाती का शव, जमीन के मालिक ने की थाने में शिकायत

प्रतीकात्मक चित्र

छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ में सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में छह नक्सली ढेर

पन्हाला दुर्ग

‘छत्रपति’ की दुर्ग धरोहर : सशक्त स्वराज्य के छ सशक्त शिल्पकार

जहां कोई न पहुंचे, वहां पहुंचेगा ‘INS निस्तार’ : जहाज नहीं, समंदर में चलती-फिरती रेस्क्यू यूनिवर्सिटी

जमानत मिलते ही करने लगा तस्करी : अमृतसर में पाकिस्तानी हथियार तस्करी मॉड्यूल का पर्दाफाश

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

ज्ञान सभा 2025 : विकसित भारत हेतु शिक्षा पर राष्ट्रीय सम्मेलन, केरल के कालड़ी में होगा आयोजन

सीबी गंज थाना

बरेली: खेत को बना दिया कब्रिस्तान, जुम्मा शाह ने बिना अनुमति दफनाया नाती का शव, जमीन के मालिक ने की थाने में शिकायत

प्रतीकात्मक चित्र

छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ में सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में छह नक्सली ढेर

पन्हाला दुर्ग

‘छत्रपति’ की दुर्ग धरोहर : सशक्त स्वराज्य के छ सशक्त शिल्पकार

जहां कोई न पहुंचे, वहां पहुंचेगा ‘INS निस्तार’ : जहाज नहीं, समंदर में चलती-फिरती रेस्क्यू यूनिवर्सिटी

जमानत मिलते ही करने लगा तस्करी : अमृतसर में पाकिस्तानी हथियार तस्करी मॉड्यूल का पर्दाफाश

Pahalgam terror attack

घुसपैठियों पर जारी रहेगी कार्रवाई, बंगाल में गरजे PM मोदी, बोले- TMC सरकार में अस्पताल तक महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं

अमृतसर में BSF ने पकड़े 6 पाकिस्तानी ड्रोन, 2.34 किलो हेरोइन बरामद

भारतीय वैज्ञानिकों की सफलता : पश्चिमी घाट में लाइकेन की नई प्रजाति ‘Allographa effusosoredica’ की खोज

डोनाल्ड ट्रंप, राष्ट्रपति, अमेरिका

डोनाल्ड ट्रंप को नसों की बीमारी, अमेरिकी राष्ट्रपति के पैरों में आने लगी सूजन

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • जीवनशैली
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • धर्म-संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies