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उनींदी आंखें, अलसाया बदन, चाय की गरम चुस्की, कुछ देर और सो जाने के मन के बीच एक आदमी की अंत:चेतना को तड़ाक से एक तमाचा पड़ता है। तमाचे की तिलमिलाहट के बावजूद भी वह आदमी अगर मुस्करा उठता है- तो मान लीजिये उसने अभी अभी आर. के़ लक्ष्मण का एक ताजा व्यंग्य अखबार में देखा-पढ़ा है। पचपन बरस में हिन्दुस्थान में लाखोें पाठकों के दिनों की शुरुआत ऐसी ही तिलमिलाहटों और मुस्कुराहटों से होती रही है। विडम्बनाओं, विसंगतियों और दोहरेपन की शिकार जीवनचर्या, सामाजिक व्यवस्थाओं और दिनोंदिन दूषित होती राजनीतिक व्यवस्थाओं पर तमाचे रसीद करने वाले व्यंग्योंं को देख-पढ़कर तीन सुधी पीढि़यां भारत में जवान हुई हैं। पिछले कुछ वषार्ें से बीमारी के कारण लगे अल्पविराम पर अब नियति ने पूर्ण विराम लगा दिया है। प्रख्यात व्यंग्यकार आर.के़ लक्ष्मण अब हमारे बीच नहीं रहे। इस पर आई ज्यादातर प्रतिक्रियाओं में उन्हें आम आदमी का चितेरा ठहराकर कर्तव्य पूरा कर लिया गया है, मगर लक्ष्मण सिर्फ यही नहीं थे। वे खांटी देशी दृष्टि से हमारे समय, समाज में अंतर्निहित दोहरेपन पर चोट करने वाले व्यंग्यकार थे। वे सही मायनों में मानवता को समर्पित राष्ट्रभक्त थे।
स्व. आर. के़ लक्ष्मण ने कभी किसी की आस्था को ठेस पहुंचाने वाले व्यंग्य नहीं बनाये। उनके पात्र दुनिया में आग लगाने और हिंसा फैलाने वाली वृत्तियों से दूर रहे। वे सभी मत-पंथों का आदर करते रहे और अपने धर्म का सही अनुपालन भी। उनकी कूची सही मायनों में निरपेक्ष रूप से चली। किसी बेतुकी परंपरा पर उन्होंने व्यंग्य भले ही किया हो, मगर पंथ, पंथ संस्थापकों और पांथिक अवधाराणाओं पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की। किसी फतवे, आदेश ने उनके काम पर अंगुली नहीं उठाई। वे सादगी से सच कहते-दिखाते रहे।
मैसूर में तमिल परिवार में जन्मे स्व. लक्ष्मण के व्यंग्य चित्र में 'कैप्शन' अंग्रेजी में हुआ करते थे मगर वे अंग्रेजीदां नहीं थे। उनके विषय, उनके पात्र, उनके सरोकारों में, भारत का सचमुच आखिरी व्यक्ति हुआ करता था, जो आज भी अंग्रेजीदां व्यवस्था का सबसे बड़ा शिकार है। इसे अभिव्यक्त करने के लिये उन्हांेने एक आम आदमी रचा जो हर जगह उपस्थित तो रहता है मगर दखल देने की स्थिति में नहीं है। जो चुप रहता है, मगर मौन नहीं है। व्यवस्था भले ही जिसे नासमझ मानती है, लेकिन सच में तो वह उसे समझ पा रहा है। वह सत्ताधीशों के समक्ष विवश है। लक्ष्मण ने अपनी रेखाओं से उसे आवाज दी है। कॉमनमैन की दैनंदिनी से उपजने वाली पीड़ाओं, सवालों को उन्हांेने मुख्य रूप से अपने काम के केन्द्र में रखा। भ्रष्टाचार और शोषण पर वे तीखा प्रहार करते थे। अंग्रेजी उनके लिये सम्प्रेषण का माध्यम अवश्य रही परंतु अपने विचारों, कर्म, परंपरा, मूल्यों और संस्कृति से वे हिन्दुस्थानी बने रहे। अंग्रेजियत को उन्हांेने अपने राष्ट्रवादी मूल्यों पर हावी नहीं होने दिया ।
आपातकाल के दौर में भी वे सत्ता के शिखर पुरुषों पर प्रहार करने से नहीं चूके। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री और उनके बेटे पर उस दौर में भी व्यंग्य चित्र बनाये जब अभिव्यक्ति पर कड़े पहरे थे। उनकी सक्रियता के दौर में देश में ज्यादातर कांग्रेस का शासन रहा, इसीलिये उसके नेताओं पर लक्ष्मण के व्यंग्य चित्रों की संख्या ज्यादा भले ही दिखाई दे मगर उन्होंने अन्य दलों और राजनेताओं को बख्शा कभी नहीं । वे कभी किसी दल या राजनेता का यशोगान करने वाले चित्रकार नहीं बने ।
उनको मैगसेसे, पद्म विभूषण, पद्म भूषण जैसे सम्मान मिले। उनके काम को अनेक माध्यमों में संजोकर रखा गया है। आने वाली पीढि़यां जब-जब उनके कालजयी काम को देखेंगी-पढं़ेगी तब-तब तिलमिलायेंगी भी और मुस्कुरायेंगी भी। ये मुस्कुराहटें ही उनका सच्चा सम्मान और सच्ची श्रद्घाञ्जलि होगी। -शांतिलाल जैन
लेखक वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं
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