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हाथ में ब्रश, और गले में लटकती डोरी से बंधे चश्मे से झांकतीं पैनी निगाहें। आर. के. लक्ष्मण का 94 साल की उम्र में संसार से जाना यूं तो प्रारब्ध का लिखा ही कहा जाएगा, पर यह उनके आम आदमी के चाहने वालों के मन में एक टीस जरूर पैदा कर गया है। जीवन के विभिन्न पहलुओं, शहरी और देहाती जीवन की परेशानियों, भ्र्रष्ट राजनीति और उसमें पिसती जनता की कसमसाहटों पर चंद रेखाओं के माध्यम से चुटीले तंज कसने की जो महारत लक्ष्मण में थी वैसी आज के तमाम कार्टूनिस्टों में से किसी में नहीं दिखती। महंगाई हो या बिजली की लुका-छिपी, मुनसीपेलिटी के रीते नल हों या सड़क पर सीवर के महीनों से खुदे पड़े गड्ढे, सार्वजनिक यातायात की मुसीबतें हों या किसी विदेशी नेता का भारत आगमन, आर. के. की पैनी नजर से कुछ ओझल नहीं होता था। चंद रेखाओं और नपे-तुले शब्दों में ऐसा कटाक्ष होता था कि उसके निशाने पर आया नेता या अभिनेता अपने पर हंसे बिना न रहता था, बुरा तो वह मान नहीं सकता था क्यों कि लक्ष्मण इतनी शालीनता और कसे अंदाज में तंज कसते थे कि वह उनके कार्टूनों से सिर्फ सबक ही ले सकता था। वषार्ें टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए पहले पन्ने के कार्टून बनाने वाले आर. के. का 26 जनवरी की शाम पूना में इस धरा से विदा हो जाना सिर्फ पत्रकार जगत के लिए ही बड़ी हानि नहीं है बल्कि यह आम आदमी का आम आदमी से बिछड़ जाना है। महाराष्ट्र सरकार ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया और उनकी याद में एक स्मारक बनाने का वादा भी किया। प्रस्तुत है लक्ष्मण के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विशेष आयोजन।
पीपल की पत्ती से आम आदमी तक ..
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट श्री आर. के. लक्ष्मण जन्म 23 अक्तूबर 1921 को मैसूर में हुआ था। उनके पिता एक हेडमास्टर थे और बड़े भाई थे अंग्रेजी के मशहूर उपन्यासकार आर.के. नारायणन। कार्टूनिस्ट के नाते उनका करियर एक तरह से बचपन से ही शुरू हो गया था। उन्होंने सबसे पहले घर की दीवारों और स्कूल में शिक्षकों के चित्र बनाने शुरू किए थे। स्कूल में ही एक बार उन्होंने पीपल के पेड़ की पत्ती का चित्र बनाया था, जिसकी उनके शिक्षक ने बहुत सराहना की थी। यहीं से उन्हें अपनी कला पर विश्वास जमना शुरू हुआ था। लक्ष्मण पर ब्रिटिश कार्टूनिस्ट सर डेविड लो के कार्टूनों का भी खासा असर था। उन्होंने अपनी जीवनी 'द टनल ऑफ टाइम' में लिखा है कि 'मैं उन चीजों की तस्वीर बनाना पसंद करता हूं जो कि मेरे कमरे की खिड़की के बाहर मेरा ध्यान खींचती हैं, जैसे सूखी हुई पत्तियां, रेंगने वाले जीव, इमारतों पर पर बैठे परिंदे आदि'। हाई स्कूल के बाद उन्होंने जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स, मुंबई में दाखिले का आवेदन किया था लेकिन स्कूल के डीन ने उन्हें ये कहते हुए दाखिला नहीं दिया था कि उनकी ड्राइंग इस स्कूल में दाखिला लेने लायक स्तर की नहीं है। इसके बाद उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से स्नातक किया। कॉलेज के दिनों से ही उन्होंने स्वतंत्र कलाकार के रूप में काम करना शुरू कर दिया था और स्वराज्य के लिए कार्टून बनाए थे। वे उस वक्त स्वराज्य और ब्लिट्ज जैसी पत्रिकाओं के लिए काम करते थे। टाइम्स ऑफ इंडिया में छपने वाले अपने कार्टून चरित्र 'कॉमन मैन' यानी आम आदमी के जरिए समाज से जुड़े मुद्दों को सदैव लोगों के सामने लाते रहे। राजनीतिक मामलों पर उनके बनाए कार्टून बेहद लोकप्रिय हुए थे। हालांकि बाद में आकर उन्होंने राजनीतिक विषयों पर कार्टून बनाना बंद कर दिया था। लक्ष्मण ने एशियन पेंट्स समूह के लिए साल 1954 में बेहद मशहूर कार्टून चरित्र 'गट्टू' भी बनाया था। उन्हें पद्म भूषण, पद्मविभूषण और 1984 में रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया जा चुका है। उन्होंने कई किताबें भी लिखीं।
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