लोकतंत्र का वसंत :वसंत और वरिष्ठ लोकतंत्र के नागरिक
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लोकतंत्र का वसंत :वसंत और वरिष्ठ लोकतंत्र के नागरिक

by
Jan 22, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Jan 2015 14:52:30

.उर्मिल कुमार थपलियाल
लाब का बासा पानी बदलने के खिलाफ देश के जनमानस ने जैसी सक्रियता पिछले एक साल में दिखाई है, उसे घोर निराशा के अंधेरे में आशा की एक किरण के रूप में देखा जा सकता है। और सही मायने में यही जनमानस का और हमारे लोकतंत्र का वसंत भी है। वास्तव में यही लोकतंत्र का स्वरूप भी है कि वहां कुछ भी बासा नहीं होता। निरंतर ताजा होता रहता है। बासा मरता रहता है। संघटन-विघटन की यह प्रक्रिया ही लोक के हाथों में तंत्र की चाबी सौंपने का जरिया बनती है। और यह इस बात को दर्शाता है कि वरिष्ठ होते लोकतंत्र के हम योग्य ध्वजवाहक साबित होने जा रहे हैं।
वर्तमान विश्व में भला लोकतंत्र कहां नहीं है! लोकविश्व है तो तंत्र का भी विश्व है। अपना अपना लोक अपना अपना तंत्र। भारतीय लोकतंत्र भी है जहां संसद भवन के सामने खड़ा होकर कोई भी व्यक्ति सरकार को हड़का सकता है। पाकिस्तान में भी तो लोकतंत्र है जहां की संसद के सामने खड़ा होकर कोई भी पाकिस्तानी भारत को अपशब्द बोल सकता है। अमरीका के लोकतंत्र में थानेदार का स्वभाव है। वहां दुनिया में हनक जमाने का लोकतंत्र है। दुनिया अगर माचिस की डिबिया है तो उसकी तीलियां भी लोकतंत्रीय हैं। आतंकवादियों का लोकतंत्र उनसे बस्तियां जला सकता है। हमारा लोकतंत्र उन तीलियों से दिवाली के दीये जलाता है। बस्तियां जलाने और दीय जलाने में बड़ा फर्क है हालांकि माचिस की तीली वही होती है। लेकिन जिस हाथ में होती है वैसा ही काम करती है। लोकतंत्र कहिए, गणतंत्र कहिए, जनतंत्र कहिए क्या फर्क पड़ता है, लोकधर्म भी है तो राजधर्म भी है। जनपथ है तो राजपथ भी। गणतंत्र दिवस की परेड में इन पथों पर हर साल विभिन्न राज्यों की झांकियां निकलती हैं, इसलिए इस राष्ट्रीय पर्व पर दिल्ली में देश का प्रवेश दर्शनीय होता है।
जिनको शक रहा होगा वे भी पिछले वसंत के मुकाबले इस वसंत में कुछ फर्क महसूस कर रहे होंगे, जनमानस की अंगड़ाई ने यथास्थिति को तोड़ा है। हमारा लोकतंत्र अब अपनी आयु के अनुरूप वरिष्ठ नागरिक की तरह अनुभवी और जिम्मेदार है। सदियों के बाद मिले इस लोकतंत्र ने अपने इतिहास में केवल राजशाही देखी, किन्तु हमारा इतिहास अनुदार नहीं था। वहां भी लोकतंत्र के लक्षण थे।
भगवान श्रीराम तो राजा भी थे और भगवान भी। उन्होंने लंका विजय के बाद आदर सहित विभीषण का राजतिलक किया किन्तु लोगों ने स्वीकार नहीं किया और हमेशा के लिए एक लोकतंत्रीय मुहावरा दे दिया कि-घर का भेदी लंका ढाए। राजशाही के भीतर यह लोकतंत्र के बीज थे। इसी लोकतंत्रीय परम्परा के कारण राम को सीता को दोबारा वनवास देना पड़ा था। तब एक सामान्य धोबी लोकतंत्र का प्रतीक बन गया था। तब दुष्टों द्वारा लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने का काम शुरू नहीं हुआ था।
हमारे साहित्य में भी भक्तिकाल का सारा साहित्य लोकतंत्रीय साहित्य है। छायावाद तक उसका असर रहा। भक्तिकाल का साहित्य बोलियों का साहित्य है। इसीलिए उसमें मिठास है। भाषा की शास्त्रीयता में एक जटिल अनुशासन भले ही होता हो किन्तु बोलियों के लोकतंत्र में संयम है, संवेदन है, सरलता है, सहजता है, इसीलिए वह स्वाभाविक है।
लोकधर्मिता में मौलिकता होती है। यह सच है कि जो मौलिक है वही प्राकृतिक है। हमें गर्व है कि हमारे पास हमारा मौलिक लोकतंत्र है। लोकतंत्र विचार भी है, विचारधारा भी। हम उसे कोट की तरह पहन कर नहीं निकल सकते। यह फैशन नहीं है। यह आचार व्यवहार है। यह ध्वज है। हाथ का झंडा नहीं। यह हमारी अस्मिता है।
कहते हैं कि उदार चरित्र वालों के लिए पूरा विश्व कुटुम्ब के समान होता है, पर यह कुटुम्ब किसी काम का हो तब ! यह जो बात कथाओं, प्रतीकों में कही जा रही है इसे आज के संदर्भ में देखने का प्रयास करें। लोकधर्म यह भी है कि हम अपना कुटुम्ब संभालें। लोकतंत्र में असुरों को भी स्वतंत्रता है। रावण, राम से इतना भयभीत था कि मारे डर के उसने एक सिर के ईद गिर्द नौ सिर लगा लिए। हुआ क्या? परिवार बिखर गया। लोकप्रियता, लोक में ही प्राप्त होती है। परलोक में नहीं। लेकिन इसके लिए राजनेताओं को तपस्वी के समान तप करना होगा, राष्ट्रनिर्माण के लिए अपना हर हित कुर्बान करना होगा। मैं समझता हूं कि इसके लिए एक वातावरण तैयार होता दिख रहा है।
अपना अपना लोकतंत्र है। हमारे लखनऊ में सूखी गोमती है। गंगा-जमुना दूर-दूर तक नहीं, तब भी यहां के सद्भाव को गंगा-जमुनी संस्कृति कहा जाता है। जहां गोमती थी वहां अब गोमती नगर है। यूपी में अपना-अपना लोकतंत्र है कि सारे चोर, चोरी तो संगठित रूप से करते हैं मगर सिर फुटव्वल बंटवारे के समय होती है।
लोक तो एक 'जड़' है और तंत्र क्रिया है। क्रिया, प्रतिक्रिया से ही अन्तर्क्रिया होती है, जिसमें विचलन होता है। घटनाएं जनमती हैं। हम जीवंत होते हैं। राजनीति को लोकतंत्र की चेरी होना चाहिए। धर्म को चर के सत्य नहीं बोला जाता। पंचतत्वों का अपना अपना धर्म है, मगर मानव का धर्म क्या है, यह हमें हमारा लोकतंत्र बताता है।
ईश्वर करे इस साल किसी के पांव में बिवाई न पड़े। पराई पीर जानने के लिए हमें किसी के कष्ट का सहारा न लेना पड़े। हमारा लोकतंत्र बुजुर्ग होता जा रहा है। हमें उसे आदर देना होगा। लोकतंत्र तभी दीर्घायु होगा और वसंत की तरह नित नूतन भी। वह अडिग रहे, अटल रहे और उसके आशीर्वाद से हम भी।

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