|
राजनीति विरोधियों को फंसाने की जब भी कोई दास्तान सुनाई जाएगी तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और गुजरात के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह का उल्लेख जरूर किया जाएगा। आखिर बिना किसी सबूत के कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल में सीबीआई ने शाह को सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में फंसाते हुए जेल तक भेज दिया। मुठभेड़ का यह मामला नवंबर 2005 में आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से संबंध रखने वाले सोहराबुद्दीन शेख की पुलिस के साथ मुठभेड़ में हुई मौत से संबंधित था। शाह का कसूर सिर्फ इतना था कि वह तब गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार में गृहमंत्री थे। मोदी के करीबी थे। इसलिए मोदी के साथ-साथ अमित शाह भी कांग्रेस को खटक रहे थे। लिहाजा कांग्रेस ने गुजरात से लेकर पूरे देश में राजनीतिक स्तर पर सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले को भी तुष्टीकरण की राजनीति के रूप में पेश करने में संकोच नहीं किया। कांग्रेस राजनीतिक स्तर पर मोदी और शाह के जरिए भाजपा को घेरने में लगी थी तो सीबीआई बिना किसी सबूत के कानूनी स्तर पर शाह को शिकंजे में लेने में लगी थी। लेकिन मुंबई में सीबीआई की विशेष अदालत ने बीती 31 दिसंबर को जो फैसला सुनाया तो असल सच सामने आया। सीबीआई की विशेष अदालत ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति की कथित हत्या में शामिल होने संबंधी मामले में सभी आरोपों से बरी कर दिया।
वर्ष 2014 के शुरू में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर मुठभेड़ मामलों की सुनवाई अमदाबाद से मुंबई स्थानांंतरित कर दी गई थी। मुठभेड़ के मामलों में शाह सहित डीजी वंजारा एंव राजकुमार पांडियन जैसे कुछ पुलिस अधिकारियों को जमानत भी मिल गई थी। सीबीआई ने सितंबर 2013 में शाह सहित 37 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया था। जांच एजेंसी का आरोप था कि सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसर बी का अपहरण कर सोहराबुद्दीन को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। तुलसीराम प्रजापति सोहराबुद्दीन मामले का चश्मदीद गवाहा था इसलिए सबूत मिटाने के लिए उसे भी फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया। पर अदालत ने इस मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा कि फर्जी मुठभेड़ के मामलों में अमित शाह की भागीदारी साबित करने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जिन गवाहों के बयानों के आधार पर शाह को आरोपी बनाया गया उनमें भी कई विसंगतियां हैं। अदालत ने कहा कि जांच एजेंसियों द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर गौर करने के बाद उसके आरोपों से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। अमित शाह ने अदालत में कहा था कि उन्हें राजनीतिक कारणों से फंसाया गया था।
वैसे तो केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली जो इस मामले की जांच शुरू होने, आरोप पत्र दाखिल होने, अमित शाह की गिरफ्तारी और उन्हें जमानत दिए जाने के समय से ही लगातार नजर रखे हुए थे। वह भी पिछले तीन सालों से एक ही बात कह रहे थे कि अमित शाह पर बिना किसी सबूत के मुकदमा चलाया जा रहा है। जेटली ने कहा,'अमित शाह के खिलाफ तत्कालीन कांग्रेस सरकार के इशारे पर मुकदमे दायर किए गए। तो सबूत का विस्तार से अध्ययन किए बिना मीडिया ने भी सीबीआई की जानकारी के अनुसार पूरे मामले को रिपोर्ट किया। यहां तक कि मीडिया के लिए सीबीआई की फाइल में की गई एक महत्वपूर्ण टिप्पणी कोई खबर नहीं थी कि अमित शाह को फंसाना जरूरी है ताकि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को फंसाया जा सके। मुझे संतोष इस बात का है कि भारत में स्वतंत्र न्याय प्रणाली है जिसने अमित शाह को फर्जी मुठभेड़ मामलों के आरोपों से बरी कर दिया।' भाजपा के राष्ट्रीय सचिव श्रीकांत शर्मा ने कहा कि, अब पूरे देश के समक्ष यह बात स्पष्ट हो गई है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने अमित शाह को फंसाने के लिए राजनीतिक षड्यंत्र रचा था। इससे यह भी सबित हो गया कि कांग्रेस ने हमेशा अपने राजनीतिक स्वाथांर्े की पूर्ति के लिए जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया। क्योंकि कांग्रेस राजनीतिक स्तर पर भाजपा से जीत नहीं सकती थी इसलिए उसने भाजपा नेता शाह की छवि को धूमिल करने की साजिश रची और सीबीआई को जरिया बनाया। लिहाजा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस अपराध के लिए देश से क्षमा मांगनी चाहिए।'
अदालत के फैसले के बाद कांग्रेस के नेताओं ने इसे कानूनी मामला बताकर चुप रहना बेहतर समझा तो दिल्ली के विधानसभा चुनाव को देख आम आदमी पार्टी ने इस मामले में प्रतिक्रिया देने में तेजी दिखाई और उसके प्रवक्ता योगेंद्र यादव ने सीबीआई की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद शाह को लेकर सीबीआई का नजरिया बदल गया।
असल में शाह के मामले में कांग्रेस को मिली मात राजनीतिक दृष्टि से उसके लिए तगड़ा झटका है। जनता की अदालत में नरेंद्र मोदी से हारने के बाद कांग्रेस को अदालत में शाह के मामले में भी मात मिली है। दरअसल जब तक केंद्र में कांग्र्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार रही, सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले को लेकर कांग्रेस कानूनी और राजनीतिक स्तर पर मोदी और शाह को घेरने की हर स्तर पर कोशिश करती रही। सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामला और कांग्रेस की राजनीति को समझने के लिए कुछ तथ्यों को समझना जरूरी है। नवंबर 2005 में पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर- ए-तैयबा से संबंध रखने वाले सोहराबुद्दीन शेख की पुलिस मुठभेड़ में मौत हुई थी। सोहराबुद्दीन मध्य प्रदेश के झरनिया गांव का रहने वाला था। वह कई आपराधिक मामलों में लिप्त था। वह उदयपुर, अमदाबाद और उज्जैन से गिरोह चलाता था। वह अवैध हथियारों की लेनदेन करता था। टाडा के अंतर्गत भी उसे दोषी ठहराया गया था। मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा उज्जैन जिले में झरनिया गांव स्थित उसके परिसरों में ली गई तलाशी में 40 से अधिक एके-56 राइफलें, कारतूस और सैकड़ों हथगोले मिले। कई राज्यों की पुलिस ने उसे भगोड़ा घोषित कर रखा थ् ाा। सोहराबुद्दीन के संबंध लश्कर से होने की सूचना खुफिया एजेंसी को मिली थी। जब आंतकवादी निरोधक दस्ते ने उसे हिरासत में लेने की कोशिश की तो उसने गोलीबारी शुरू कर दी और इस तरह मुठभेड़ में उसकी मौत हो गई। जबकि वह मुठभेड़, जिसमें सोहराबुद्दीन शेख मारा गया था एक ऐसी कार्रवाई थी जो केंद्र सरकार के गुप्तचर ब्यूरो के निर्देश पर की गई थी।
पर गुजरात दंगों को लेकर मोदी को घेरने में लगी कांग्रेस ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले को भी तूल देकर मजहबी राजनीति से जोड़ दिया। कारण, मुठभेड़ की यह घटना 2007 के गुजरात विधान सभा चुनाव से ठीक पहले हुई। गुजरात में लगातार चुनाव हार रही कांग्रेस ने सोहराबुद्दीन मामले में भी तुष्टीकरण की नीति अपनाई और इसे राजनीतिक रंग देते हुए फर्जी मुठभेड़ के तौर पर प्रचारित किया। गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई। पर कांग्रेस ने राजनीतिक हार का बदला लेने के लिए मुठभेड़ मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग करनी शुरू कर दी। जनवरी 2010 में सीबीआई को यह मामला सौंप दिया गया। सीबीआई ने बिना किसी ठोस सबूत के जुलाई 2010 में अमित शाह को गिरफ्तार कर लिया। अमित शाह को गिरफ्तार करने के लिए सीबीआई ने गुजरात के दो भू-माफियाओं रमनभाई पटेल और दशरथभाई पटेल की झूठी गवाही पर भरोसा किया। आरोप पत्र में सीबीआई की थ्योरी के अनुसार अमित शाह ने मुठभेड़ के छह महीने बाद दोनों को कथित तौर पर बताया था कि सोहराबुद्दीन ने खुद के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है रमनभाई पटेल और दशरथभाई पटेल, दोनों का आपराधिक रिकार्ड रहा है और दोनों के खिलाफ गुजरात में आपराधिक मामले चल रहे हैं। शाह के खिलाफ गवाही देने पर इन दोनों को गुजरात कांग्रेस के एक समारोह में बधाई तक दी गई।
इन दोनों गवाहों की गवाही उन्हें 'पासा' हिरासत में मदद करने के लिए जबरन वसूली पर आधारित थी। गुजरात सरकार के रिकार्ड से पता चलता है कि 'पासा' के अंतर्गत इन दोनों व्यक्तियों को हिरासत मेंे लेने का कभी विचार ही नहीं किया गया। दोनों गवाहों ने यह भी दावा किया कि उन्होंने किसी अजय पटेल के जरिए तीन किश्तों में शाह को 75-75 लाख रुपए दिए और इसके लिए उन्होंने अपने बयान में कुछ तारीखों का जिक्र किया। उन्होंने कथित रूप से धनराशि अजय पटेल को खुद जाकर सौंपी। उन्होंने यह भी दावा किया कि वे उन सभी तारीखों पर मौजूद थे। यह गवाही अन्य बातों के अलावा इस आधार पर झूठी है कि कुछ तारीखों पर अजय पटेल भारत में नहीं थे। आखिरकार अमित शाह दो वर्ष की अवधि तक गुजरात से बाहर रहे। उच्च न्यायालय के इस आदेश को उच्चतम न्यायालय ने बरकरार रखा। इधर तुलसी प्रजापति मुठभेड़ का मामला सोहराबुद्दीन मामले का सीबीआई द्वारा किया गया विस्तार था। सीबीआई ने अदालत में इस मामले की जांच के लिए विशेष निवेदन किया। सीबीआई का मामला था कि प्रजापति पुलिस अधिकारियों की हिरासत से सोहराबुद्दीन के लापता होने तक के मामले में गवाह था लिहाजा गुजरात पुलिस ने उसका सफाया कर दिया। सीबीआई ने इस मामले में शाह के खिलाफ जिस एकमात्र सबूत का जिक्र किया, वह यह कि शाह भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी आर.के.पांडियन से नियमित संपर्क में थे जो इस मामले में एक आरोपी हैं। असल में तो पांडियन की शाह के साथ इस घटना से काफी समय पहले और घटना के बाद रोजना टेलीफोन पर बातचीत होती थी, क्योंकि पांडियन राजनीतिक आंदोलनों और राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखने वाली राज्य पुलिस के पुलिस अधीक्षक, गुप्तचर ब्यूरो का काम भी देख रहे थे। किसी भी राज्य के गृहमंत्री का ऐसे अधिकारियों के साथ सपंर्क में रहना जरूरी होता है।
इस तरह शाह और भाजपा के दूसरे नेताओं को फंसाने का षड्यंत्र उच्च स्तर पर रचा गया था। लिहाजा अदालत को कहना पड़ा कि सीबीआई ने सोहराबुद्दीन मामले में सिर्फ शाह की 'कॉल डीटेल' खंगाली। जबकि वास्तविक वार्तालाप के आधार पर अपराध में शाह की मिलीभगत साबित नहीं होती। गवाहों के बयान तथ्यों के बजाय सिर्फ अफवाहों पर आधारित थे इसलिए उन्हें कानूनी साक्ष्य नहीं माना जा सकता। –मनोज वर्मा
'भारत में स्वतंत्र न्याय प्रणाली है जिसने अमित शाह को फर्जी मुठभेड़ मामलों के आरोपों से बरी कर दिया।'
-अरुण जेटली, केन्द्रीय वित्त मंत्री
टिप्पणियाँ