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इतिहास दृष्टि/स्वामी विवेकानंद जन्मदिवस (12 जनवरी) पर विशेष
महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान रोमा रोलां से एक बार कहा था, यदि कोई भारत को समझना चाहे तो उसे स्वामी विवेकानंद को पढ़ना चाहिए। इसी भांति महात्मा गांधी ने सहज भाव से कहा था कि विवेकानंद को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कदाचित ही भारत का कोई ऐसा महापुरुष होगा जिसने अपनी युवावस्था में उनसे प्रेरणा न ली हो। योगी अरविंद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, लोकमान्य तिलक, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद, शचीन्द्रनाथ सान्याल तथा उनके अनेक क्रांतिकारी साथी, गुरु गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय तथा अटल बिहारी वाजपेयी जैसे अनेक राष्ट्रभक्तों ने उनसे प्रेरणा ली। स्वामी विवेकानंद ने अपने ओजस्वी विचारों तथा प्रवचनों द्वारा नई पीढ़ी के युवकों में भारत के प्रति प्रेम, राष्ट्र के प्रति भक्ति, अतीत के प्रति गौरव तथा भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की। अपने उद्गारों से नवयुवकों में आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता तथा स्वाभिमान का संचार किया। विश्रृंखलित और पराभूत राष्ट्र के पुनर्निर्माण का पथ प्रशस्त किया तथा हिन्दुत्व के सनातन धर्म का सन्देश पुन: विश्व को दिया।
छात्र जीवन से महाप्रयाण तक कुल 39 वर्षों के स्वामी विवेकानंद के संघर्ष तथा ध्येयवादी जीवन की गाथा है। आध्यात्मिकता, ईश्वरभक्ति उन्हें विरासत में मिली थी। बाल्यकाल से ही उनमें एकाग्रता, अद्भुत स्मरण शक्ति, कुशाग्र व तार्किक बुद्धि तथा हृदय की विशालता आदि सद्गुणों का समावेश था। विद्यार्थी जीवन में ही उन्हें भारतीय दर्शन, धर्म, साहित्य, इतिहास तथा पाश्चात्य चिंतन में बड़ी रुचि थी। जनरल असेम्बली कालेज (अब स्कॉटिश चर्च कालेज) कोलकाता से उन्होंने बीए पास किया था। पिता की मृत्यु हो जाने पर एलएलबी की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। कॉलेज के प्राचार्य विलियम हेस्टी इस प्रतिभाशाली छात्र से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने विवेकानंद के बारे में लिखा था, जर्मनी तथा इंग्लैण्ड के विश्वविद्यालयों में उनके जैसा कोई प्रतिभाशाली छात्र नहीं है। स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने अपने अध्ययन, अनुभव तथा अनुभूति से देश के युवाओं को एक नवीन चेतना दी थी।
केवल सत्रह वर्ष की अवस्था में अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मंत्र प्राप्त कर संन्यास लिया तथा उनके आदेश से धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की सेवा में निरंतर लगे रहने का व्रत भी। पच्चीस वर्ष की आयु से परिव्राजकत्व ग्रहण कर वे समग्र भारत की यात्रा पर निकल पड़े। तीस वर्ष की आयु में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में पहुंचे। आधुनिक भारत में राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने समाज में धर्म के नाम पर अज्ञानता, अन्धविश्वास को महसूस किया। नगरों में रहने वाले पढ़े-लिखे वकीलों, पत्रकारों, अध्यापकों तथा सरकारी अधिकारियों की जनता के प्रति उपेक्षा, महिलाओं के प्रति कटु व्यवहार तथा जाति प्रथा कुटिलता आदि को देखा। समाज के कष्टों, कठिनाइयों, समस्याओं को देखकर वे व्याकुल हो उठे।
स्वामी विवेकानंद विद्यार्थी जीवन से ही अपने साथियों के नायक थे। उनका शिकागो में विश्व के प्रथम धर्म सम्मेलन में भाग लेना एक अद्भुत प्रयास था। उनकी इस यात्रा में चेन्नई के अध्यापकों तथा छात्रों का बड़ा योगदान था। वस्तुत: उनको इस यात्रा का विचार भी कुछ तामिलनाडु के शिष्यों ने ही दिया था। उन्होंने एक दिन अपने प्रिय शिष्य आला सिंगा पेरुमल को बुलाकर कहा कि यदि मां की ऐसी इच्छा है तो मुझे अमरीका जाना ही होगा। उन्होंने यह भी कहा कि वे जनप्रतिनिधि के रूप में जाना चाहेंगे। वे इस कार्य में जनसाधारण की सम्मति जानना चाहते थे। अत: उन्होंने अपने शिष्यों से जनसाधारण से भिक्षा लेकर धन जुटाने की बात कही थी।
स्वामी विवेकानंद को प्रारंभ से ही आधुनिक युवा पीढ़ी पर अटूट विश्वास था। उनको लगता था कि इससे कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी होगी, वे समस्त समस्याओं के निवारण के लिए वीर शेरों की तरह कार्य करेंगे। उन्होंने एक बार कहा, हमें चाहिएं कुछ ऐसे युवा जो सब कुछ त्याग दें तथा देश सेवा के लिए अपना जीवन सर्वस्व लगा दें। हमें पहले उनके जीवन गढ़ने होंगे तभी कुछ वास्तविक कार्य की संभावना होगी।
1893 में जब स्वामी विवेकानंद अमरीका गये, यह वह काल था जब भारत में अज्ञानवश विदेश यात्रा या समुद्र पार जाने को पाप समझा जाता था तथा जाने वाले को धर्म से बहिष्कृत कर दिया जाता था। परन्तु अमरीका जाते हुए उन्होंने मार्ग से ही अपने तामिलनाडु के शिष्यों को पत्र लिखे जो भारतीय युवकों के लिए प्रेरक बन गए। याकोहामा से एक पत्र में उन्होंने लिखा, हमारे देश के युवकों के प्रति वर्ष दल के दल जापान जाने चाहिए। तुम लोग कर क्या रहे हो? देश छोड़कर बाहर जाने से तुम लोगों की जाति बिगड़ जाती है! तुम लोग अपनी शक्ति बर्बाद कर रहे हो। आओ, मनुष्य बनो। अपने संकीर्ण अन्धकूपों से बाहर आकर देखो, सभी राष्ट्र कैसे उन्नति के पथ पर चल रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर अपने संदेशों में देश की युवाशक्ति को विभिन्न गुणों से युक्त होने का आह्वान किया। राष्ट्र की पुनर्रचना तथा निर्माण में वे युवकों का ध्येयवादी जीवन बनाने को आतुर रहते थे। एक बार उन्होंने कहा, हमें चाहिए केवल दृढ़, तेजस्वी, आत्मविश्वासी तरुण, ठीक-ठीक सच्चे हृदय वाले।
1896 में लंदन से आला सिंगा को लिखे पत्र से स्पष्ट होता है कि उनकी आंखें ऐसे युवकों की खोज में लगी थीं। उन्होंने लिखा, मैं चाहता हूं लौहपेशियां और इस्पात के स्नायु जिनके भीतर उसी धातु का बना मस्तिष्क रहता है, जिसका वज्र बनाया जाता है। शक्ति, पौरुष, क्षात्र-वीर्य-ब्रह्मतेज। हमारे सुन्दर एवं आशावादी युवकों के पास ये सब चीजें हैं।
उन्होंने पुन: लिखा, हे भगवान, मेरा हृदय विलाप करता है, उसे सुनो। चेन्नै (मद्रास) तभी जाग्रत होगा जब उसके प्रत्यक्ष हृदय स्वरूप सौ शिक्षित युवक संसार को त्यागकर और कमर कसकर देश-देश में भ्रमण करते हुए सत्य का संग्राम लड़ने को तैयार हों। स्वामी जी का कथन था कि देशभक्ति के लिए शक्तिशाली शरीर की आवश्यकता है। एक बार एक तरुण स्वामी जी के पास गया और बोला- स्वामीजी, मुझे गीता का ज्ञान दीजिए। उन्होंने उत्तर दिया कि, मेरे तरुण मित्र, शक्तिशाली बनो, मेरी तुम्हें यही सलाह है। तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल के द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुंच सकोगे।
स्वामी विवेकानंद ने असीम शक्ति के साथ बुद्धि, हृदय तथा आत्मा के विकास की बात कही। उन्होंने युवाओं में आध्यात्मिकता, धर्म, संस्कृति, इतिहास, साहित्य तथा दर्शन की सही संदर्भ में प्रेरणा दी। उन्होंने भारत के प्रत्येक व्यक्ति को जीवन मूल्यों में अध्यात्म तथा धर्म की सर्वोच्चता को बतलाया। उन्होंने कहा, जो आध्यात्मिक नहीं मैं उसे हिन्दू नहीं मानता। उन्होंने युवकों का आह्वान किया कि भारत में समाजवादी अथवा राजनीतिक विचारों की बाढ़ आने से पहले देश में आध्यात्मिक विचारों की मूसलाधार वर्षा कर दो। उन्होंने भारत की राष्ट्रीय आत्मा धर्म को बतलाया। परन्तु युवकों से कहा कट्टरपंथी न बनो, धर्मांध न बनो। उन्होंने संस्कृत पढ़ने पर आग्रहपूर्वक बल दिया तथा कहा, हर किसी को संस्कृत पढ़ाइए। हमें संस्कृत अध्ययन के लिए विशेष प्रयास करने चाहिएं, क्योंकि हमारी मौलिक विद्वत्ता के रत्न इसी भण्डार में छिपे हैं। केवल इसके द्वारा ही हम भारत को समझ सकेंगे।
स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा कि जब कोई मनुष्य अपने पूर्वजों के बारे में लज्जित होने लगे तो समझिए उसका पतन आ गया है। उन्होंने अपनी बात को दोहराते हुए कहा, कभी हमें यह नहीं बताया जाता है कि हमारे बीच में से भी महापुरुषों का जन्म हुआ है। हमें एक भी तो अच्छी बात नहीं सिखाई जाती। हमें अपने हाथ पांव चलाने तक नहीं आते। हमें इंग्लैण्ड के पूर्वजों की तो एक-एक घटना और तिथि याद हो जाती है, पर दु:ख है कि अपने देश के अतीत से हम बेखबर रहते हैं। हम केवल निर्बलता का पाठ पढ़ते हैं। पराजित राष्ट्र होने से हमें यह विश्वास हो गया है कि हम शक्तिहीन तथा परावलम्बी हैं।
सन 1891 में स्वामी विवेकानंद ने कोलकाता के युवा विद्यार्थियों के एक विशाल समूह के समक्ष कहा था, अंग्रेजों तथा अन्य (पाश्चात्य लेखकों) द्वारा लिखित हमारे देश का इतिहास हमारे मन को कमजोर नहीं कर सकता, क्योंकि वे केवल पतन की चर्चा करते हैं। ऐसे विदेशी भी हैं जो हमारे स्वभाव, रीति रिवाजों या धर्म एवं दर्शन के बारे में बहुत कम जानते हैं। वे भारत के बारे में विश्वसनीय तथा निष्पक्ष इतिहास कभी कैसे लिख सकते हैं? स्वाभाविक रूप से उसमें अनेक झूठे कथन तथा गलत निष्कर्ष हैं।
उन्होंने विद्यार्थियों के समक्ष कहा कि, ऐसे इतिहास को अस्वीकार करो। उनकी पूर्ण आस्था तथा विश्वास था कि प्राचीन भारत के वर्णन से भी भविष्य को परिवर्तित किया जा सकता है। अत: जितना ज्यादा हिन्दू अपने गौरवमय अतीत का अध्ययन करेंगे, उतना ही शानदार भविष्य होगा। जो जितना अतीत के द्वार पर खड़ा होने का प्रयत्न करता है उतना ही राष्ट्र हितैषी भी वही है।
स्वामी विवेकानंद ने देश के युवकों में आध्यात्मिक ज्ञान, मानवीय वेदना तथा राष्ट्रीय चेतना की भावना भरी। स्वामी जी ने देश के युवकों से पूछा, त्
ाुम्हें ईश्वर को ढूंढने को कहा जाता है? क्या गरीब, दुखी और निर्बल ईश्वर नहीं है। पहले उनका पूजन क्यों नहीं करते? तुम गंगा के किनारे खड़े होकर कुआं क्यों नहीं खोदते हो? मैं पुन:-पुन: जन्म धारण करूं और हजारों मुसीबतें सहूं ताकि मैं उस परमात्मा को पूज सकूं जो सब जातियों, सब वर्गों के गरीबों के रूप में प्रकट हुआ है। वही एकमात्र मेरा आराध्य है। उन्होंने व्यक्तिगत मोक्ष की आकांक्षा को स्वार्थ कहा। स्वामी विवेकानंद ने दरिद्र सेवा को सर्वोच्च तथा मानवीय सेवा बतलाया।
स्वामी विवेकानंद को उन पढ़े-लिखे व्यक्तियों से सात्विक विरोध भी था जो गरीबों के प्रति संवेदनशील ही नहीं हैं बल्कि उनको उपेक्षित तथा दुर्लक्ष्य करते हैं। उन्होंने कहा, मैं कहूंगा कि जो ज्ञान सम्पन्न हैं, जिन्हें समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त है जो ऊंचे पदों पर हैं, जो धनवान हैं, उन्होंने अपने समाज के एक बड़े वर्ग की ओर दुर्लक्ष्य करके बहुत बड़ा पाप किया है।
उन्होंने ऐसे युवकों तथा शिक्षाविदों को लताड़ते हुए पुन: कहा, … मूर्खो पुस्तकों को हाथ में लिए केवल समुद्र तट पर विचरण, यूरोपीय मस्तिष्क की अपचित जूठन को बे समझे रटना, तीस रुपए की मुंशीगिरी के लिए अथवा बहुत हुआ तो एक वकील बनने के लिए जी जान से तड़पना, यही तो तरुण भारत की सर्वोच्च महत्वाकांक्षा है। तिस पर प्रत्येक छात्र के झुण्ड के झुण्ड बच्चे भी पैदा हो जाते हैं, जो भूख से बिलबिलाते, उसके पैरों के चारों ओर चिपटकर रोटी के लिए चिल्लाते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि उसमें तुम, पुस्तकें, गाउन और तुम्हारी विश्वविद्यालय की उपाधियां आदि सब डूब सकें। ऐसे व्यक्तियों को स्वामी विवेकानंद ने देशद्रोही तथा भारत के ऐसे उच्च वर्गों को राष्ट्र की कब्र तथा चलती फिरती लाशें कहा है।
स्वामी विवेकानंद ने देश के युवकों में राष्ट्र प्रेम, देशभक्ति, समाज सेवा की लौ जलाई। वे आधुनिक भारत के इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा, मैं यद्यपि हिन्दू जाति का नगण्य घटक हूं, किन्तु मुझे अपनी जाति पर गर्व है, मुझे अपने पूर्वजों पर गर्व है। मैं स्वयं को हिन्दू कहने का गर्व अनुभव करता हूं। हम उन महान ऋषियों के वंशज हैं जो संसार में अद्वितीय रहे हैं। उनका विश्वास था कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारतवासी मेरा प्राण तथा भारत के कल्याण में ही मेरा कल्याण है। अत: स्वामी जी ने युवकों को हिन्दुत्व की ऊर्जा का संदेश दिया। उन्होंने देशप्रेम तथा राष्ट्रभक्ति को धर्म के मूल तत्वों में से एक बतलाया।
अमरीका में मिस मैक्ल्यूड नाम की महिला ने उनके भाषण से अत्यधिक भाव विभोर होकर उनसे पूछा कि मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूं? तो स्वामी जी ने सहज उत्तर दिया भारत के प्रति प्रेम जताकर। इसी भांति तीन वर्षों के प्रवास काल के पश्चात एक ब्रिटिश लेखक ने पूछा कि तीन वर्ष तक पश्चिम के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन में रहने के पश्चात भारत की मातृभूमि के बारे में आपने क्या सोचा। उत्तर स्पष्ट था, मैं भारत से पहले से ही प्रेम करता था। मैं दूर इधर चला आया। अत: भारत की धूल भी मेरे लिए पवित्र है। मैं पुन:-पुन: जन्म धारण करूं और हजारों मुसीबतें सहूं ताकि मैं उस परमात्मा को पूज सकूं जो सब जातियों, सब वर्गों के गरीबों के रूप में प्रकट हुआ है। वही एकमात्र मेरा आराध्य है। उन्होंने व्यक्तिगत मोक्ष की आकांक्षा को स्वार्थ कहा। स्वामी विवेकानंद ने दरिद्र सेवा को सर्वोच्च तथा मानवीय सेवा बतलाया।
स्वामी विवेकानंद ने भारत को केवल मिट्टी, पत्थर या भू भोगभूमि न मानकर पूण्यभूमि, तपोभूमि, साधनाभूमि कहा। उन्होंने देश के प्रत्येक नर-नारी, युवक- सभी का आह्वान करते हुए कुछ समय के लिए सभी देवी-देवताओं को भूलकर भारतमाता की आराधना करने को कहा। उन्होंने हुंकारते हुए कहा, आगामी पचास वर्षों तक तुम लोग एकमात्र स्वर्गादपि गरीयसी जननी जन्मभूमि की आराधना करो। इन वर्षों में दूसरे देवताओं को भूल जाने में कोई हानि नहीं है। दूसरे देवतागण सो रहे हैं। इस समय तुम्हारा एकमात्र देवता है तुम्हारा राष्ट्र। सभी स्थानों में इसका हाथ है। अनेक सतर्क कर्ण सभी जगह मौजूद हैं।
अत: स्वामी विवेकानंद ने देश की भावी पीढ़ी में देशभक्ति, स्वाभिमान, आत्मविश्वास तथा आत्म गौरव की तीव्र भावना जागृत की। स्वामी विवेकानंद ने कठोपनिषद से उद्धृत करते हुए देश के सभी युवकों को एक चिर प्राचीन तथा चिर नवीन संदेश दिया उत्तिष्ठत। जाग्रत।।
स्वामी विवेकानंद जैसे युगद्रष्टा के संदर्भ में उनकी एक शिष्या क्रिश्चियना का यह उद्गार सही है, धन्य है वह देश जिसने उन्हें जन्म दिया, धन्य धन्य हैं वे लोग जो उस समय पृथ्वी पर जीवित थे। धन्य धन्य हैं वे जिन्हें उनके चरणों में बैठने का मौका मिला। ल्ल
जहां मानवजाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है, जहां आध्यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्मान्वेषण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है। आप लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति महान उत्तराधिकार लेकर जन्मा है, जो आपके महिमामय राष्ट्र के अनंत अतीत जीवन का सर्वस्व है। सावधान, आपके लाखों पुरखे आपके प्रत्येक कार्य को बड़े ध्यान से देख रहे हैं।
मन का विकास करो और उसका संयम करो। उसके बाद जहां इच्छा हो, वहां प्रयोग करो। उससे अतिशीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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