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जारी है सनातनता पर चोट

by
Jan 10, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Jan 2015 14:02:06

.नीरज अत्री
टलर ने जब जर्मनी की बागडोर संभाली थी तो उसने जर्मनी के बच्चों के मन में, पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से, यहूदियों के प्रति घृणा भरने पर विशेष ध्यान दिया था। इसके लिए मनोविज्ञान के सिद्धांतों का सहारा लिया गया था। हिटलर, जो कि एक कट्टर ईसाई था, को इस घृणा की प्रेरणा उसे बाइबिल से मिली थी। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा 2006 से प्रचलन में लाई गई पुस्तकों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो वही सिद्धांत परिषद् द्वारा द्वारा अपना लिए गए हैं। अंतर केवल इतना है कि इन में आक्रमण सनातन धर्म पर किया जा रहा है। परिषद् प्रकाशित छठी कक्षा की पुस्तक 'हमारे अतीत' के पृष्ठ 46 पर लिखा है –
ऋग्वेद में मवेशियों, बच्चों (खासकर पुत्रों) और घोड़ों की प्राप्ति के लिए अनेक प्रार्थनाएं हैं। घोड़ों को लड़ाई में रथ खींचने के काम में लाया जाता था। इन लड़ाइयों में मवेशी जीत कर लाए जाते थे। लड़ाइयां वैसे जमीन के लिए भी लड़ी जाती थीं जहां अच्छे चारागाह हों या जहां पर जौ जैसी जल्दी तैयार हो जाने वाली फसलों को उपजाया जा सकता हो। कुछ लडाइयां पानी के स्रोतों और लोगों को बन्दी बनाने के लिए भी लड़ी जाती थीं। युद्ध में जीते गए धन का कुछ भाग सरदार रख लेते थे तथा कुछ हिस्सा पुरोहितों को दिया जाता था। शेष धन आम लोगों में बांट दिया जाता था।
जब सूचना के अधिकार के अंतर्गत राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद से इस अनुच्छेद को सत्यापित करने के लिए इस से संबंधित फाइल की प्रति की मांग की गई तो परिषद का उत्तर मिला कि ऐसी कोई फाइल अथवा सूचना विभाग के पास उपलब्ध नहीं है। जब विभाग के पास उपलब्ध वेदों के अनुवाद की प्रतिलिपि और विशेषज्ञ के नाम की मांग की गई तो उस का भी वही नकारात्मक उत्तर मिला। वेदों के जो वास्तविक विद्वान हैं, उनके अनुसार वेदों में कहीं भी इस प्रकार के आचरण का उल्लेख नहीं है। तो प्रश्न यह उठता है कि परिषद की पुस्तकें इस झूठ को क्यों पढ़ा रही हैं?
जब एक दस बारह वर्ष का बच्चा इसे पढ़ेगा तो उस के मन में जो अपने पूर्वजों की छवि उभरेगी, वह एक ऐसे सभ्य और विकसित समाज की नहीं होगी जिसने विश्व को प्रथम सभ्यता प्रदान की, बल्कि एक ऐसे समुदाय की होगी जो कि इतनी छोटी-छोटी बातों पर युद्ध करता था और दास प्रथा में विश्वास रखता था।
वास्तविकता यह है कि हमारे पूर्वजों ने न केवल भवन निर्माण कला, चिकित्सा और नगर विकास में उस समय महारत विकसित कर ली थी जब अन्य सभी भागों में लोगों को अक्षर ज्ञान भी नहीं था बल्कि युद्ध के लिए भी ऐसे उच्च आचरण और नियमों की व्यवस्था की थी जिन्हें आज भी आदर्श माना जाता है। आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व, जब चंद्रगुप्त मौर्य के समय में मेगस्थनीज नामक यूनानी राजदूत ने भारत के युद्ध से संबंधित आचरण को देखा तो वह लिखता है:-
यहां सबसे अधिक जनसंख्या किसानों की है। उनके पास कोई हथियार नहीं होते और न ही उन्हें युद्ध में भाग लेने के लिए विवश किया जाता है। वह केवल कृषि का कार्य करते हैं और राजा को कर देते हैं। युद्ध के समय में क्षत्रियों को न तो कृषकों को हानि पहुंचाने की अनुमति है और न ही उनकी भूमि को कोई क्षति पहुंचाने की।
इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि न केवल वेदानुसार आचरण के काल में बल्कि उसके कहीं बाद भी हमारे पूर्वज एक बहुत ही सुलझी हुई सामाजिक व्यवस्था के अनुसार व्यवहार करते थे। यदि हम संयुक्त राष्ट्र द्वारा बनाए गए जेनेवा कन्वेंशन के प्रारूप को देखते हैं तो वह क्षत्रिय परंपरा के नियमों में से ही लिए गए प्रतीत होते हैं। लगभग 2500 साल पहले के भारत में कृषि का वर्णन करते हुए, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की इसी पुस्तक के पृष्ठ 59 पर लिखा गया है कि इसमें कमरतोड़ परिश्रम लगता था। ये काम ज्यादातर दास, दासी और भूमिहीन खेतिहर मजदूर करते थे।
यह वही कालखण्ड है जब मेगस्थनीज भारत में था। परिषद के विद्वानों के अनुसार उस समय भारत देश में दास प्रथा चलन में थी। इस संदर्भ में भी मेगस्थनीज परिषद के इन विद्वानों से विपरीत मत दे रहा है। वह भारत के विषय में एक विशेष तथ्य बताता है कि सभी हिन्दुस्तानी स्वतंत्र हैं, और कोई भी किसी का दास नहीं है, ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद में बैठे विद्वान सारा कीचड़ हमारे महान राष्ट्र के गौरव पर फेंक रहे हैं, क्योंकि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् एक लोकतांत्रिक संस्था है, इसलिए इसका विहित कर्म है कि हमारे बच्चों को सत्य से अवगत करवाए।
ऊपर दिये उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार वेदों पर और सनातन धर्म की परंपराओं पर झूठ का सहारा लेकर भी आघात किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर जहां भी ईसाई अथवा इस्लामी विचारधाराओं का विषय आता है तो परिषद के विद्वानों को सत्य दिखना बंद हो जाता है। जन साधारण को यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन दोनों विचारधाराओं में गुलामी अथवा स्लेवरी का न केवल खुला समर्थन है बल्कि बाइबिल और कुरान में काफिरों अथवा इनफिडलों को गुलाम बनाने के स्पष्ट दिशा निर्देश हैं।
उदाहरण के लिए, बाइबिल के व्यवहार विवरण (डियुटेरोनोमी) का जो बीसवां अध्याय है, उसका नाम ही है 'युद्ध के लिए नियम' उसमें लिखा है 'जब तुम नगर पर आक्रमण करने जाओ तो वहां के लोगों के सामने शान्ति का प्रस्ताव रखो। यदि वे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार करते हैं और अपने फाटक खोल देते हैं तब उस नगर में रहने वाले सभी लोग तुम्हारे दास हो जाएंगे और तुम्हारा काम करने के लिए विवश हो जाएंगे। किन्तु यदि नगर शान्ति प्रस्ताव स्वीकार करने से इन्कार करता है और तुम से लड़ता है तो तुम्हें नगर को घेर लेना चाहिए और जब यहोवा, तुम्हारा परमेश्वर नगर पर तुम्हारा अधिकार कराता है तब तुम्हें सभी पुरुषों को मार डालना चाहिए। तुम अपने लिए स्त्रियां, बच्चे, पशु तथा नगर की हर एक चीज ले सकते हो। तुम इन सभी चीजों का उपयोग कर सकते हो। यहोवा, तुम्हारे परमेश्वर ने ये चीजें तुमको दी हैं। जो नगर तुम्हारे प्रदेश में नहीं हैं और तुम से बहुत दूर है, उन सभी के साथ तुम ऐसा व्यवहार करोगे।
इसी प्रकार, कुरान का जो आठवां अध्याय है, उसका नाम है अन्फाल। यह अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'लूट का माल' यह कुरान के सबसे लंबे अध्यायों में से एक है और पूरा अध्याय सच्चे मुसलमानों को काफिरों को मारने, लूटने और लूटने के पश्चात काफिरों का माल आपस में बांटने के विषय में निर्देश देता है।
कुरान के अतिरिक्त, मुसलमान जिन पुस्तकों को मानते हैं उन्हें हदीस कहा जाता है। ये मोहम्मद के जीवन से जुड़ी हुई घटनाओं के संकलन हैं। इनमें से छह को पूर्णतया अधिकृत माना जाता है। इन छह में से भी सबसे विश्वसनीय है सहीह मुस्लिम। इस के भाग 19 में, जो कि जिहाद से संबंधित है, हदीस संख्या 4345 के अनुसार- सलामा बिन अक्वा के अनुसार: हम ने फजरा के कबीले से लड़ाई लड़ी जिसमें अबू बकर हमारा नेता था। उसे अल्लाह के पैगंबर ने नेता बनाया था। जब हम दुश्मन के पानी के स्रोत से करीब एक घंटे की दूरी पर थे, अबू बकर ने हमें हमला करने का हुक्म दिया। हमने रात के आखिरी हिस्से में रुककर आराम किया और फिर चारों तरफ से हमला कर दिया। हम उनके पानी निकालने के कुएं के पास पहुंच गए जहां खूब लड़ाई हुई। कुछ दुश्मनों को हम ने मार दिया और कुछ को हमने कैद कर लिया। मंैने बच्चों और औरतों का एक झुंड देखा। मुझे डर था कि कहीं वह मेरे पहुंचने से पहले ही पहाड़ तक न पहुंच जाएं, इसलिए मैंने उनके और पहाड़ के बीच में एक तीर छोड़ा। जब उन्होंने तीर को देखा तो वह रुक गए।
मैं उन्हें खदेड़ता हुआ अपने साथ ले आया। उनमें फजरा कबीले की एक औरत थी। वो एक चमडे़ से बना लबादा पहने थी। मैं जब उन सब को खदेड़कर अबू बकर के पास ले गया तो अबू बकर ने वह औरत मुझे इनाम में दे दी। इसके बाद हम मदीना आ गए। मैंने अभी उस औरत के कपडे़ नहीं उतारे थे जब अल्लाह का पैगम्बर मुझे एक गली में मिला और उसने मुझ से कहा: ऐ सलामा, वह लड़की मुझे दे दे। मैंने कहा ऐ अल्लाह के पैगंबर, वह मुझे बेहद पसंद है। अगले दिन अल्लाह का पैगंबर फिर मुझे गली में मिल गया। उसने मुझ से कहा ऐ सलामा, वह लड़की मुझे दे दे, अल्लाह तुम्हारे वालिद को सलामत रखे। मैंने कहा ऐ अल्लाह के रसूल! आप उसे ले लो। अल्लाह कसम, मैंने अभी उसके कपड़े नहीं उतारे हैं।
अल्लाह के रसूल ने वह लड़की मक्कावासियों को दे दी और उस की कीमत के बदले में, मक्कावासियों ने जिन मुसलमानों को कैद कर रखा था उन्हें छुड़ा लिया। संक्षेप में कहा जाए तो परिषद् के विद्वान, अपने परिश्रम से, इस्लाम और ईसाइयत के मूलभूत सिद्धांतों को सनातन धर्म पर आरोपित करने का कार्य कर रहे हैं। इसे चरित्र विस्थापन कहा जा सकता है।
पाठकों से अनुरोध है कि इंटरनेट चलाएं और कुरान के आठवें अध्याय के पहली और चालीसवीं आयत को पढ़ लें। यहां स्पष्ट निर्देश है कि काफिरों को लूटने से जो माल मिले, उसमें से पांचवां भाग अल्लाह, पैगंबर और पैगंबर के संबंधियों का है।
पैगंबर के जीवन काल में, हर लूट के बाद बीस प्रतिशत भाग मोहम्मद को दिया जाता था और उसके देहांत के उपरांत, यह बीस प्रतिशत इस्लाम के ठेकेदारों को दिया जाने लगा। जब कोई मुसलमान शासक ऐसा नहीं करता था तो आसपास के इमाम और काजी इसे अपना अधिकार मान कर मांगने में किसी प्रकार की लज्जा का अनुभव नहीं करते थे।
चरित्र विस्थापन के अतिरिक्त, परिषद के विद्वानों ने शब्दावली पर भी विशेष परिश्रम किया है। जहां तो वेदों का वर्णन है, वहां तो कोई अलंकार नहीं है लेकिन कुरान का उल्लेख आते ही वह होली कुरान हो जाती है। शब्दों के उपयोग से बच्चों पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडता है, उसका बहुत ध्यान रखा है इन विद्वानों ने हमारे बच्चों का आमसम्मान हरने के लिए। काश! इतना परिश्रम इन विद्वानों ने राष्ट्र निर्माण में लगाया होता! आशा है कि वर्तमान शासन तंत्र इन विकृतियों पर शीघ्रता से ध्यान देगा ताकि हमारे बच्चे इन विषैली पुस्तकों से बच कर अपनी धरोहर पर गर्व कर सकें।

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