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संस्कृति सत्य – जिसने लूटा वही अमरीका बना थानेदार

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Jan 3, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jan 2015 15:35:35

भारत में पिछले कुछ वषोंर् से काले धन की चर्चा जोरों पर है। कर चोरी, गैरकानूनी व्यवसाय एवं सरकारी भ्रष्टाचार के माध्यम से पिछले 60-65 वषोंर् में अनेक धनिक भारतीयों ने विदेशी बैंकों में धन जमा कराया है। यह काले धन को लेकर लगाया जाने वाला मुख्य आरोप है। भारत के संदर्भ में यह मुद्दा इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि संदेह है कि यह रकम अंग्रेजों एवं मुगलों द्वारा अपने जमाने में की गई लूट से भी अधिक है। वास्तव में इस विषय की व्यापकता इससे कहीं अधिक है। भारत के संदर्भ में काले धन का मुद्दा राष्ट्रमंडल देशों के काले धन से अधिक जुड़ा हुआ है। ब्रिटेन के अलावा यूरोप के जिन देशों, जैसे पुर्तगाल, इटली अथवा स्पेन की सत्ता दूसरे देशों पर रही थी उन देशों के काले धन का संबंध उन पर राज करने वाले देशों क्षरा पूर्व में किए गए कामों से है। अपने देश से बाहर गया धन वापस लाना और देश के विकास में उसे लगाना हर देश की सरकार का स्वाभाविक उद्देश्य है, लेकिन यह विषय यहीं तक सीमित नहीं है। जिन 125 देशों पर यूरोप के चार पांच देशों का राज 300 से 500 वर्ष तक रहा था, उनके आर्थिक मामलों से यह विषय जुड़ा हुआ है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि उन इने-गिने देशों एवं पिछले 100 वर्र्ष में अमरीका द्वारा उन 125 देशों से आर्थिक व्यवहार करने की पद्धति क्या थी, उनका उद्देश्य क्या था, और सबसे महवपूर्ण यह कि उन ताकतवर देशों की उन 125 देशों में निवेश की पद्धति क्या थी? जब तक ताकतवर देशों का उन 125 देशों में हस्तक्षेप नहीं रुक जाता, तब तक उन देशों में होने वाली लूट नहीं थमेगी।
जब किसी कंपनी को नया उद्योग शुरू करना होता है और कुछ आर्थिक प्रगति करनी होती है तो उसकी एक निश्चित पद्धति होती है। इसके लिए कंपनी अपने द्वारा उत्पादित होने वाले सामान के लिए जरूरी बाजार का अध्ययन करती है। उसके लिए आवश्यक कच्चा माल, उत्पादन के लिए यांत्रिक निवेश, मानव संसाधन और उचित स्थान की खोज की जाती है फिर काम शुरू होता है। उसी के साथ निरंतर प्रयास किया जाता है कि अपने उत्पादन की बिक्री होती रहे। पिछले 20-22 साल में पूरे विश्व में वैश्वीकरण का माहौल बढ़ता दिखाई दिया है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे विशाल औद्योगिकीकरण से भी अधिक बड़ा फायदा देने वाली चीज है उन 125 देशों के अर्थतंत्र पर नियंत्रण। यद्यपि उन देशों को स्वतंत्रता मिल गई है, लेकिन उनके आर्थिक लेन-देन को नियंत्रित कर अपने अनुकूल माहौल बनाना काले धन के प्रबंधन का ही एक हिस्सा है।
कोई कंपनी जब उत्पादन शुरू करती है तब केवल वार्षिक अथवा पंचवार्षिक नियोजन करने भर से उसका काम पूरा नहीं होता। अपने-अपने उत्पादन के अनुसार कंपनियों को दीर्घकालीन नियोजन की आवश्यकता होती है। ताकतवर देशों का निवेश क्या होगा और नियोजन क्या होगा, इसका विचार करना उन देशों के लिहाज से आवश्यक है। पिछले 50-60 वर्ष के दौरान स्विस बैंकों की विश्व में तूती बजती रही है। लेकिन पांच वर्र्ष पूर्व अपने राज्य एवं देश की सरकारों को उनके खातेदारों की जानकारी देना आवश्यक कर देने का निर्णय होने के बाद इस तरह के गोपनीय खाते अन्य स्थानों पर फिर से जमाने वाली कई कंपनियां यूरोप में आईं। ब्रिटेन के समाचार पत्रों में इसको लेकर आएदिन चर्चा चलती रहती है।
पिछले कई वषोंर् से वैश्वीकरण के कारण ऐसे आर्थिक मामलों की व्यापकता, काले धन की व्यापकता आदि की जानकारी समाचारों के द्वारा दी जाती रही है, लेकिन उन ताकतवर देशों के व्यवहारों की व्यापकता, जो इस सबके पीछे हैं, और उनकी भावी योजनाओं के बारे में ज्यादा कुछ सामने नहीं आता। इसमें एक बात अत्यंत स्पष्ट है कि वे 125 देश कभी भी विकसित देश नहीं बन पाए और महासत्ता होने का सपना भी नहीं देख पाए। ऐसा वे इसलिए नहीं कर पाए, क्योंकि उनके आर्थिक तंत्र ताकतवर देशों ने अनेक दिशाओं से अपने हाथों में जकड़े हुए हैं। एक आकलन है कि पिछले कुछ वषोंर् में विश्व की आर्थिक महासत्ता का केंद्र बदल रहा है। इसे एक बड़े बदलाव की तरह देखते हुए विश्व को इस पर गौर करना होगा। लेकिन आज उन 125 देशों की स्थिति क्या है, इसका जायजा लिए बिना असली कारण समझे नहीं जा सकते।
इस संदर्भ में 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक ने गरीब देशों की स्थिति तथा ताकतवर देशों के अगली कुछ सदियों तक फिर से उपनिवेशवाद का दौर लाने के प्रयासों पर रोशनी डाली है। कोई कंपनी जब कहीं कारखाना लगाती है तो वहां पर कितना निवेश लगेगा और वहां से प्राप्ति कितनी होगी, इसका विचार करती ही है। आज विश्व में सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाले उत्पाद हैं कपड़ा और कम्प्यूटर। खाद्य पदाथोंर् का भी बहुत बड़ा बाजार है, लेकिन वह ज्यादातर स्थानीय आपूर्ति पर आश्रित होता है। जबकि कपड़े का बाजार वैश्विक होता है। इसी के आधार पर ब्रिटिशों ने अपने अर्थतंत्र की जड़ें मजबूत कीं। आज उससे बड़ा बाजार इलेक्ट्रानिक उत्पादों का है। उसमें फिलहाल निवेश चार आने और प्राप्ति एक रुपए की है। लेकिन ताकतवर देशों की गुलामी में रहने वाले देशों की सूचि देखें तो निवेश चार आने और उत्पादन रुपए से भी अधिक दिखता है।

इसके पीछे उनका जरिया थे उन देशों में ऐसे मर्म स्थान, जहां चोट की जा सके और मतांतरण। उन गुलाम बनाए गए 125 देशों में से हर एक देश में 500 साल के दौरान वही कार्यक्रम चला था और वह आज भी जारी है। महासत्ता के रूप में दादागिरी दिखाने वाला अमरीका भी इसमें अपवाद नहीं है। अमरीका में मार्टिन लूथर किंग से ओबामा तक, रंगभेद विरोधी आंदोलन यानी अश्वेतों द्वारा यूरोपीय लोगों के विरुद्ध आंदोलन में वही मुद्दा अधोरेखित होता है। लेकिन स्थानीय लोग आज भी 'एबोरिजिनल इंडियन' के नाम से जीवन जी रहे हैं। उन 125 देशों में यूरोपीय लोगों द्वारा क्या किया गया, यह सम्रगता में सामने आना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इस तरफ बिल्कुल काम नहीं हुआ, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि 125 देशों ने संगठित रूप से उसका प्रतिकार किया हो।
इस इतिहास पर परिणामकारक मार्ग जब निकलेगा तब निकलेगा, लेकिन उनके जो प्रयास जारी हैं और उसमें जो निवेश हो रहा है उसकी ओर आंखें सतर्क रखनी आवश्यक हैं। भारत के गृह विभाग ने सात वर्ष पूर्व ईसाई मिशनरियों को मिल रही राशि सात हजार करोड़ रुपए आंकी थी। उसकी ओर इशारा करते हुए कहा गया था कि ये तो बस ग्लेशियर का ऊपरी सिरा है। सात हजार करोड़ रुपये तो बस वह ऊपरी सिरा हैं। असली आंकड़ा कितना बड़ा हो सकता है, उसका इससे अंदाजा लगाया जा सकता है। चंदे के रूप में भारत में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष राशि के अलावा निवेश के लिए अन्य कई मार्ग हैं। मुख्य रूप से यूरोप और अमरीका के लगभग हर विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र हैं। उनके माध्यम से अनेक युवाओं को विदेश ले जाकर भारत में अनेक पृथकतावादी आंदोलन शुरू किए जाते हैं। विदेशों से अलग अलग मिशन के लिए आने वाले धन में सबसे ज्यादा पैसा तमिलनाडु में जाता है, जो कि सालाना 16 हजार करोड़ रुपए तक है। 'वर्ल्ड विजन', 'चैरिटी इंडिया'और 'बिलिवर्स चर्च' को क्रमश: 200, 100 एवं 70 करोड़ रुपए मिलने के आंकडे़ छह वर्ष पूर्व के हैं। इस पैसे के आने का एक और खतरनाक जरिया हैं चुनाव। जिन प्रत्याशियों द्वारा इन विदेशों ताकतों को बल मिलने की संभावना हो उन्हें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर देश-विदेश से रकम पहुंचाई जाती है। ईसाई मिशनरी संस्थाओं के समान अनुपात में उत्तर-पूर्वी भारत की अनेक संस्थाओं को यह राशि पहंुचाई जाती है। अर्थात् उसका मकसद विभाजनवादी कार्रवाइयां करना ही होता है। इस पूरे प्रकरण पर व्यापक विचार होना चाहिए। जो स्थिति भारत में है वही स्थिति उन125 देशों में उसी अनुपात में है।
इन सभी देशों में पिछले 300 वषोंर् से इस तरह का निवेश हो रहा है। वहां मतांतरण हो रहे हैं। हर देश में कोई न कोई स्थानीय मुद्दे होते हैं जैसे भारत में अछूत प्रथा एक बड़ी समस्या रही है। उसी तरह द्रविड़-आर्य की झूठी खड़ी की गई समस्या है। 125 देशों में 1000 से अधिक ऐसी समस्याएं हैं। ये समस्याएं हल करने की बजाय वैश्विक स्तर पर उसे विद्रोह का रूप देना और उन देशों में कभी कभी निर्माण होने वाली नाजुक स्थिति का फायदा उठाते हुए उन देशों पर अपनी सत्ता लादना, यही उन दादागिरी दिखाने वाले देशों का स्वरूप है। इस तरह से उन 125 देशों से कितनी राशि यूरोप-अमरीका की ओर गई, इसका हिसाब अभी तक नहीं हुआ है। संबंधित देशों के काले धन में अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन पुन: सत्ता प्राप्त करने तक का अल्पकालिक माध्यम है। -मोरेश्वर जोशी

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