|
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
सुबह की सैर में हम चार-पांच हमउम्र और समान दृष्टिकोण रखने वाले मित्रों को अखबार की सुर्खियों में छाये हत्या, बलात्कार, डकैती के समाचारों की चर्चा करके सुहानी सुबह को बदरंग बनाना पसंद नहीं था। देश में चल रही हास्यास्पद राजनीतिक उठापटक से लेकर अपने शहर और कॉलोनी की खबरों, क्रिकेट और फूटबाल के बड़े-बड़े मैचों आदि की चर्चा के बीच परस्पर हास-परिहास हमारे घंटेभर की सैर में बहुत खूबसूरत रंग भर देता था। पर पिछले कुछ दिनों में सिडनी और पेशावर में हुई नृशंस आतंकी घटनाओं से हमारी गपशप पर उदासी छाई हुई थी।
हाल में आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुई आतंकी घटना से हम क्षुब्ध थे। पिछले दिनों टीवी चैनलों पर देखे उन दृश्यों की बातें होती रहीं जिनमे एक कैफे में एक ईरानी आतंकी द्वारा निरीह लोगों को बंधक बनाने के बाद आस्ट्रेलियाई पुलिस के जवाबी हमले में उस आतंकी को मार गिराने और बंधकों को छुड़ा लेने के उपक्रम को हमने देखा था। आस्ट्रेलियाई पुलिस की सूझबूझ, साहस और कर्तव्यपरायणता तथा वहां की सरकार के कड़े रुख की प्रशंसा के बीच '26/11' वाले मुम्बई के ताजमहल होटल और लियोपोल्ड कैफे में पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा खूनखराबे का जिक्र भी उठा। सिडनी के आतंकी हारून के नाम के साथ हमारे 'अपने' आतंकी अजमल कसाब का नाम भी याद आया। पर आतंक की इन घटनाओं की चर्चा से तनावग्रस्त माहौल को हमने अजमल कसाब की खाने में बिरयानी और मुर्गे की मांग पर हंसकर फिर से सामान्य कर लिया।
बातों-बातों में हमारी कॉलोनी के उन सज्जन का भी जिक्र उठा जो मानव अधिकारों के महानतम स्वघोषित संरक्षक थे। वे उस समय मौजूद होते तो अजमल कसाब की बिरयानी और पुलाव की मांग पर हमारे हंसने से उत्तेजित हो जाते। भारत में माओवादियों द्वारा अर्धसैन्य बलों और निहत्थे ग्रामीणों की क्रूर हत्या हो या अमरीका द्वारा तालिबान और आई.एस.आई.एस के ठिकानों को नेस्तनाबूद करने का जिक्र, उनकी सहानुभूति हमेशा उसी तरफ रहती थी जिसके क्रिया कलाप हमारे लिए घृणास्पद होते थे। उनके लिए भारत में माओवादी आतंक एक चरमराती आर्थिक व्यवस्था को सुधारने की दिशा में क्रियात्मक कदम था और हाफिज सईद जैसे लोग कश्मीरियों की स्वराज की आकांक्षा के प्रतिपालक थे। उनके हिसाब से इन्डियन मुजाहिद्दीन एक कपोलकल्पित संस्था है और बटाला हाउस में आतंकियों से मुठभेड़ एक कहानी। हम समझ चुके थे कि केवल भगवान ही उन्हें सदबुद्घि दे सकता है। उन्हें भी हमारे संग-साथ की कोई परवाह नहीं थी। देश के स्वनामधन्य मानवाधिकार संरक्षकों की वाहवाह उन्हें प्रफुल्लित रखती थी। रहते भी थे वे ठाठ बाट से। विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में लेखों से उन्हें काफी धनप्राप्ति हो जाती थी। कई गैरसरकारी संस्थाओं के भी वे सर्वेसर्वा थे,जिन्हें विदेशी आर्थिक सहायता की कमी न थी। उनके अधिकांश मित्र भी विदेशों में ही थे। यहां तो वे अपनी कोठी में अपने प्रिय रोटवीलर कुत्तों की संगत में ही मगन रहते थे। रोटवीलर कुत्ते बेहद खूंखार होते हैं। अपने मालिक के प्रति बेहद वफादार पर दूसरों के लिए बहुत खतरनाक। किसी ने टिप्पणी की कि उनके कुत्ते भी आतंकी हैं,हम हंसने लगे।
पर सोचा न था कि वह दिन और कितना मनहूस निकलेगा। सुबह दस बजे से ही न्यूज चैनलों पर पेशावर के सेना स्कूल में तालिबान के आतंकियों की बर्बरता की खबरें आने लगीं। शाम होते-होते पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें मार गिराया,लेकिन लगभग एक सौ चालीस मासूम बच्चे तबतक इन 'पवित्र युद्घ' के महापवित्र योद्घाओं के शिकार हो चुके थे। पाकिस्तान ही नहीं सम्पूर्ण विश्व स्तब्ध था।
अगली सुबह सैर के लिए हम एकत्र हुए तो सब मौन थे। इतनी क्रूरता, इतनी नृशंसता, इंसान की ऐसी दरिन्दगी अकल्पनीय थी। उस दिन हमने सोचा अधिक,बातें कम कीं। सैर के अंत में किसी ने सुझाव दिया कि देखें मानवाधिकार के वे ठेकेदार महोदय आज क्या कहते हैं। हम उनकी कोठी पर पहुंच गए। गेट पर कुत्तों से सावधान करने वाली सूचना पट्टी नहीं दिखी। घंटी बजाने पर उनका बेटा बाहर आया। उसी ने नौकर की अनुपस्थिति और कुत्तों वाली नोटिस के हटाने का राज खोला। बताया पापा को उनके बेहद प्यारे रोटवीलर 'ब्रूटस' ने पिछली शाम बुरी तरह से काट खाया था। उनके नौकर ने शाम को रोज की तरह घुमाते वक्त उसकी मर्जी के खिलाफ चेन को जोर से खींचा तो वह उसके ऊपर चढ़ बैठा था। उसे बचाने के चक्कर में पापा आये तो उन्हें भी घायल कर दिया उसने। फिर दोनों को अस्पताल ले जाया गया, 'ब्रूटस' को एस पी सी ए (पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने वाली संस्था) को सौंप दिया गया था।
हमने उसकी मम्मी जी से मिल कर संवेदना प्रकट करना चाहा तो उसने बताया वे भी घर पर नहीं थीं। उन्होंने भी घर में एक सांप पाल रखा था जिसे वो रोज दूध पिलाती थीं। पर अब बहुत डर गयी थीं अत: उसे घर से दूर कहीं जंगल में छोड़ने गयी हुई थीं। ल्ल
टिप्पणियाँ