इतिहास दृष्टि - मजहबी उन्मादियों का अड्डा बनीबंगाल की पुण्यभूमि
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इतिहास दृष्टि – मजहबी उन्मादियों का अड्डा बनीबंगाल की पुण्यभूमि

by
Jan 3, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jan 2015 15:38:27

यह इतिहास का विचित्र संयोग तथा विडम्बना है कि भारत की जिस पवित्र धरती ने विदेशी ब्रिटिश शासकों को भारत से उखाड़ने तथा भगाने में देश सेवा, राष्ट्रभक्ति तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाई, प्रेरणा दी, नवीन ऊर्जा प्रदान की, वही बंगाल की भूमि आज कुछ नेताओं के क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के कारण विदेशी आतंकवादियों तथा बंगलादेश से आये घुसपैठियों के षड्यंत्रों का केन्द्र तथा आरामगाह बन गई है। जहां भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व, बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में किसी भी क्रूर तथा अत्याचारी ब्रिटिश प्रशासक अथवा अधिकारी का कोलकाता की सड़कों पर रात्रि में चलना खतरे से खाली न था, वहां इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में ही किसी भी राष्ट्रप्रेमी तथा देशभक्त का दिन के उजाले में भी चलना खतरे से खाली नहीं है। दुर्भाग्य से इन आतंकवादियों तथा घुसपैठियों के प्रति बंगाल सरकार जानबूझकर उदासीन है, प्रदेश की पुलिस लापरवाह तथा गुप्तचर विभाग बेखबर है। बंगाल के मुस्लिम वोट पाने के लिए, मुस्लिम तुष्टीकरण की सभी सीमाएं लांघने पर राष्ट्र की एकता, सुरक्षा तथा अखण्डता को एक भयंकर खतरा बन गया है।
स्वतंत्रता से पूर्व
गंभीर चिंतन का विषय है कि स्वतंत्रता के पश्चात कुछ ही वषार्ें में बंगाल का चेहरा कैसे धुंधला, धूमिल तथा भयावह हो गया। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में बंगालियों ने सदैव नेतृत्व प्रदान किया। राजा राममोहन राय (1772-1833 ई.) पहले भारतीय थे, जो भारतीय हितों के लिए इंग्लैण्ड गये थे तथा जिन्होंने सामाजिक सुधारों द्वारा आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान दिया था। 1857 के महासमर में कौन व्यक्ति ब्लैक या पैनिकी सण्डे (14 जून 1857) वाले कोलकाता को भूल सकता है जिसमें प्रत्येक यूरोपीय जेब में पिस्तौल रखकर जान बचाने के लिए दौड़ रहा था (देखें जीबी मैलिसन हिस्ट्री आफ द इंडियन म्यूटिनी, भाग एक, लंदन 1878, पृ. 23-25)
बंगाल की भूमि सदैव भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्रवाद के जागरण का सन्देशवाहक रही। यहीं पर 1873 ई. में स्वामी दयानन्द के कोलकाता आगमन पर ब्रिटिश गवर्नर जरनल लार्ड नार्थब्रुक ने इस खतरनाक फकीर के आगमन की सूचना तुरन्त रानी विक्टोरिया को एक पत्र लिखकर दी थी तथा उनके पीछे गुप्तचर लगा दिये थे। यहीं बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने (1838-1894) अपने चौदह उपन्यासों तथा बंगदर्शन पत्र द्वारा राष्ट्रभक्ति जगाई तथा वन्देमातरम् का स्वतंत्रता मंत्र दिया था। उन्होंने ब्रिटिश लेखकों द्वारा लिखे भारत के इतिहास की तीव्र भर्त्सना की तथा इसे प्राकृतिक इतिहास के विरुद्ध बताया (देखें, रणजीत गुहा, ऐन इंडियन हिस्टोरियोग्राफी ऑफ इंडिया : ए नाइन्टींथ सेंचुरी एजेण्डा एण्ड इट्स इंप्लिकेशन्स, कोलकाता, 1988, पृ. 56) इसी भूमि पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.) ने मानव सेवा तथा मानव धर्म के दो दिव्य मंत्र अपने शिष्य को दिये थे। यहीं से स्वामी विवेकानंद (1863-1902 ई.) ने शिकागो के विश्वधर्म सम्मेलन के महा प्रांगण में खड़े होकर केवल साढ़े तीन मिनट के भाषण में हिन्दुत्व की अलख जगाई थी। इसी तूफानी हिन्दू के बारे में प्रसिद्ध क्रांतिकारी वीर सावरकर ने देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए विवेकानंद का संदेश तथा शिवाजी का मार्ग आवश्यक बताया था। यहीं योगिराज महर्षि अरविन्द (1872-1950 ई.) ने एकात्मक वेदांत का संदेश दिया तथा वन्देमातरम् जैसे क्रांतिकारी पत्र का सम्पादन किया था। यहीं पर महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941 ई.) हुए जिन्हें विद्वत्समुदाय कवि, दार्शनिक तथा देशभक्त मानता है (देखें, डीपी नागराज राव, टैगोर द ग्रेट ह्यूमनिस्ट, भवन जनरल अप्रैल 1961) जिन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई सर की उपाधि त्यागकर जालियांवाला बाग काण्ड (13 अप्रैल 1919) की तीव्र आलोचना की थी।
बंगभूमि देश के क्रांतिकारियों की कर्मभूमि, त्यागभूमि, तपस्या भूमि रही। 1905 ई. के बंगभंग के विरोध में यहीं से रक्षाबंधन, गंगा स्नान तथा वन्देमातरम् के गगनभेदी नारों के माध्यम से आंदोलन प्रारंभ हुआ, जो बंगाल की सीमा को लांघकर समूची राष्ट्र जागृति का द्योतक बन गया था। यहीं पर पी. मित्रा ने अनुशीलन समिति का गठन किया था। क्या कोई खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी के बलिदान को भूल सकेगा? क्या कोई देशबन्धु चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस तथा डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के कार्यों को भूल सकेगा? कौन नहीं जानता कि जिस सुभाष को इंगलैण्ड के लार्ड ऐटली ने भारत को आजादी दिलाने वाला, जर्मनी ने भारत का नेता तथा जापान ने एशिया का महानतम क्रांतिकारी माना है, क्या उसी महान नेता को, रूस तथा चीन की कठपुतली, भारतीय कम्युनिस्टों द्वारा तोजो का कुत्ता अथवा उनकी आजाद हिन्द फौज को लुटेरों की सेना कहने से उनकी प्रतिष्ठा घट जायेगी? क्या कोई 1946 में ब्रिटिश सेना के विरुद्ध बंगाल में जलसेना की हड़ताल को भूल सकेगा?
स्वतंत्रता के पश्चात बंगाल
राष्ट्रीय विचारों, गतिविधियों तथा नेतृत्व की दृष्टि से, स्वतंत्रता से पूर्व का काल यदि सद् विचारों का काल अथवा वाद था तो यह स्वतंत्रता के पश्चात शीघ्र ही प्रतिवाद में बदल गया। 1947-2014 ई. तक के भटकाव के काल में बंगभूमि, कांग्रेस,कम्युनिस्ट तथा तृणमूल कांग्रेस की राजसत्ता की भूख, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं तथा वोट बैंक की राजनीति का शिकार हो गई, व्यक्तिगत हित पार्टी, हित सर्वोच्च हो गए तथा देशहित, राष्ट्रहित गौण हो गए।
कांग्रेस का ढुलमुल शासन
1947 ई. में बंगाल का भी विभाजन हुआ तथा भारत के पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान (1971 बंगलादेश) का निर्माण हुआ। केन्द्रीय सेना पर कांग्रेस का एकछत्र राज्य स्थापित हुआ। बंगाल में भी विस्थापितों की समस्या ने भयंकर रूप धारण किया पर कांग्रेस उदासीन रही। साथ ही तभी से बंगाल में घुसपैठियों का दौर भी बढ़ा। सरकार का ध्यान मुस्लिम तु ष्टीकरण तथा कम्युनिस्टों के सहयेाग का ही रहा है। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे राष्ट्रीय नेता का कश्मीर की कारागृह में रहस्यमय ढंग से बलिदान हुआ, पर कांग्रेस ने कोई चिंता न की। 9 मार्च 1959 को चीन ने तिब्बत को हड़प लिया। भारतीय समाचार पत्रों ने इसे तिब्बत का बलात्कार (द हिन्दुस्तान टाइम्स, 30 मार्च 1959) कहा। कम्युनिस्टों को छोड़कर देशव्यापी विरोध हुआ। बंगाल के कम्युनिस्टों ने चीनियों की भाषा बोली, कहा- तिब्बत के लोग मध्यकालीन अंधकार से सभ्यता तथा समानता की ओर अग्रसर हैं। (देखें, टाइम्स आफ इंडिया,1अप्रैल1959)भारत के प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने भी खिसियाने अंदाज में कहा, वे अगर इस ढंग से बातें करते हैं तो भारतीय नहीं कहलाने चाहिए (देखें, स्टेट्समैन 6 अप्रैल 1959) 1962 में चीन का भारत पर आक्रमण हुआ, भारत की शर्मनाक पराजय हुई। परन्तु अब भी बंगाल के कम्युनिस्टों ने चीनी सेना के स्वागत की तैयारी ही न दिखलाई, बल्कि 1964 में अलग से सीपीएम (मार्क्सवादी) बना डाली। परन्तु कांग्रेस सत्ता का कम्युनिस्टों के प्रति मोह न छूट सका। 1965 ई. में भारत-पाक संघर्ष में कम्युनिस्ट उदासीन ही नहीं रहे, बल्कि ताशकंद में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु पर चुप्पी साधकर बैठे रहे। इतना ही नहीं कांग्रेस ने भाकपा से दोस्ती कर अपनी ही पार्टी के दो भाग कर 1971 में सत्ता पर कब्जा किया। अत: इस तरह बंगाल में भी कांग्रेस की सत्ता वामपंथियों के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सहयेाग से चलती रही। परन्तु 1975 में आपातकाल में जहां डांगे की कम्युनिस्ट पार्टी इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बनी रही, माकपा के भी कुछ नेता गिरफ्तार किये गये। इससे वे चेते तथा स्वतंत्र सत्ता को स्थापित करने के लिए बंगाल में गंभीरता से विचार करने लगे।
बंगाल में वामपंथी शासन
सन 1957 में वामपंथियों की पहली सरकार केरल में बनी तथा दूसरा क्रम 1977 में बंगाल का आया, जो इंदिरा गांधी के अमानवीय अत्याचारों, जो आपातकाल में किये गये थे, उसकी भयंकर प्रतिक्रिया का परिणाम थी। वस्तुत: बंगाल में वामपंथियों को पुष्पित, पल्लवित करने का श्रेय कांग्रेस की नेतृत्वहीनता, उदासीनता तथा दुष्कर्मों को जाता है। वामपंथी नेता बीटी रणदिवे ने स्वयं स्वीकार किया है कि उनके विभिन्न आन्दोलनों से केवल शिक्षित बेकार लोग ही प्रभावित हुए थे। अभी तक बंगभूमि पर उनके सिद्धांतों का कोई प्रभाव न था। यह तो बंगाल की परेशान, हताश जनता के बदल की चाह मात्र थी। पश्चिम बंगाल में विभाजन से उजड़े बिखरे लाखों विस्थापितों के लिए कुछ भी नहीं किया गया था। वामपंथियों ने इनकी दुर्दशा को वर्गभेद के रूप में लिया था। समय-समय पर स्थानीय मुद्दों को हवा दी थी, प्रांतीय भावना को उत्तेजित किया था। कांग्रेस नेतृत्व के अभाव में अपनी पकड़ मजबूत की थी।
यह उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता के समय भारतीय वामपंथियों की स्थति बड़ी दयनीय थी। विद्वान लेखक जेडी सेठी के अनुसार उनका सबसे बड़ा विश्वासघात था पाकिस्तान के सिद्धांत को बौद्धिक औचित्य प्रदान करना। मुस्लिम लीग की वकालत, विभाजन का समर्थन, रूस की चापलूसी, बहुराष्ट्रवाद का समर्थन, हिंसा में विश्वास, सुभाषचन्द्र बोस का विरोध आदि अनेक विषयों के कारण उनकी स्थिति अस्थिर थी। प्रारंभ में उनके नेता पीसी जोशी ने कांग्रेस के नेतृत्व को देख अपना रुख सहज बना लिया था पर तेलंगाना विद्रोह के रूप में उनके हिंसात्मक क्रांति के असफल प्रयास चलते रहे थे। पार्टी का नेतृत्व राजेश्वर राव व अजय घोष के हाथ में आने के पश्चात भी उनको सफलता नहीं मिल रही थी। अत: शीघ्र ही वामपंथियों को भी हिंसा का मार्ग छोड़ शांति का मार्ग अपनाना पड़ा (देखें विक्टर एम फिक, पीसफुल टर्मिशन टू कम्युनिज्म इन इंडिया, स्ट्रेटजी ऑफ द कम्युनिस्ट 1969 पृ. 1)
1977 में बंगाल में वामपंथी शासन स्थापित हुआ जो 2011 ई. तक चला। वामपंथी शासन के क्रियाकलापों की बहुत पहले ही महात्मा गांधी ने अपने जीवनकाल में मीमांसा की थी। उनके अनुसार कम्युनिस्ट समझते हैं कि उनका सबसे बड़ा कर्त्तव्य, सबसे बड़ी सेवा मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना तथा हड़ताल करना है। (देखें गांधीजी को कलेक्टेड वर्क्स, भाग 89, पृ. 406) अत: इसी के अनुरूप परस्पर भेदभाव बढ़ाना, हिंसात्मक ढंग से भूमि पर कब्जा कर उद्योगों में लगाना, लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन, मनमाने मुकदमे गढ़ना आदि कार्य किये। 1977 से 2008 ई. तक नंदीग्राम के भयंकर नरसंहार तथा लूटमार की कहानी उनके शासन का वैशिष्ट्य रहा।
आज वामपंथियों के जाने के बाद जबसे ममता बनर्जी ने गद्दी संभाली है बंगाल की हालत जस की तस है। 10,000 हजार करोड़ की हजम राशि तथा उस पर भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बन्दर घुड़की। क्या यह इतिहास का एक अत्यंत अशोभनीय तथा हास्यास्पद प्रसंग नहीं है? क्या देश की जनता को भारत के कुछ राजनीतिज्ञ ऐसे ही भ्रमित तथा मूर्ख बनाते रहेंगे? क्या केन्द्र सरकार केवल मूकदर्शक तथा कानून की आड़ में मुखौटा पहने बैठी रहेगी? क्या देश की एकता अखण्डता तथा सुरक्षा की अनसुनी की जायेगी? आशा है केन्द्र सरकार शीघ्र ही इसका कोई औचित्यपूर्ण, न्यायिक तथा राष्ट्रहितकारी हल निकालेगी। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल

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