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किसी ने नहीं सुनी तब चिनारों की चीत्कार…

by
Dec 22, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Dec 2014 12:31:05

 

जम्मू-कश्मीर में हाल में हुए विधानसभा चुनावों में जिस तरह से लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है उससे एक बार फिर यह बात साफ हुई है कि बंदूक नहीं, लोकतंत्र में आवाज गूंजेगी तो सिर्फ बैलेट की।  

आलोक गोस्वामी

कश्मीर की सर्द घाटी में आज बयार बदली-बदली सी है। 1990 से लेकर आगे कई सालों तक वहां बहे निर्दोष कश्मीरी हिन्दुओं के लहू के निशान टीलों और चिनार के दरख्तों पर अब शायद नहीं दिखते, धुंधला या मिट गए होंगे वे। पर श्रीनगर, गंदरबल, बड़गाम, अहगाम, सोपोर, शोपियां,छत्तीसिंहपुरा, बांदीपुर, बारामूला, कुलगाम, पुलवामा…में वीरान पड़े, जलाए, लूटे-उजाड़े उन कश्मीरी हिन्दुओं के जर्जर तिमंजिले घरों के अवशेष अब भी भांय-भांय करते खड़े हैं जो 'अल्लाहो-अकबर' के नारों के बीच अपने बाल-बच्चों के साथ रात के अंधेरे में जान बचाने को घाटी को, अपनी जन्मभूमि को छोड़कर भागे थे। 1989-90। भाड़े के हत्यारों को मुजाहिदीन का तमगा लगाकर जब पड़ोसी पाकिस्तान ने घाटी के भटके उन्मादियों के साथ कश्मीर से हिन्दुओं का नामो-निशान मिटा देने के वास्ते हाथों में कलाश्निकोव और ए.के.-56 थमाके खुला छोड़ दिया था कि 'मारो, जितनों को मार सकते हो', 'खत्म कर दो सब काफिरों को', 'उनका नाम लेने वाला भी न छोड़ना यहां', 'इसे दारुल-अमन बनाना है, ईमान वालों को बसाना है', बस।
सरकार तब वहां फारुख अब्दुल्ला की थी, पर चूं तक नहीं की सरकारी कारिन्दों ने। मुख्यमंत्री के नाते अब्दुल्ला अपने पिता शेख से दो कदम आगे निकल गए थे मजहब का झण्डा बुलंद करने वालों को बढ़ावा देने में। और दिल्ली में वी. पी. सिंह की सेकुलर सरकार थी, जिसको हिन्दू क्रंदन सुनाई न देना ही अपने सेकुलर होने का एकमात्र प्रमाणपत्र जैसा लगता था। कश्मीर में एक के बाद एक, हिन्दुओं को निशाना बनाया जाने लगा। सबसे पहले सितम्बर,1989 में घाटी के जाने-माने नेता पंडित टीका लाल टपलू को हब्बाकदल में जेकेएलएफ ने मौत के घाट उतारा। टपलू इलाके के सम्मानित भाजपा नेता थे। 27 दिसम्बर, 1989 को एडवोकेट प्रेमनाथ भट्ट को अनंतनाग में गोलियों से भून दिया गया। फरवरी 1990 में श्रीनगर दूरदर्शन केन्द्र के निदेशक लस्सा कौल को उनके घर के बाहर गोलियों से छलनी कर दिया गया। 14अप्रैल 1990 को शेरे कश्मीर इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसिज में बतौर नर्स काम कर रही युवा सरला गंजू को उसके होस्टल से अगवा किया गया और 19 अप्रैल को उसकी गोलियों से छलनी लाश श्रीनगर के अंदरूनी इलाके से मिली। उसका बलात्कार करने के बाद, शरीर के अंग काट डाले गए थे। लेकिन उन दिनों, 1990 में अपने कर्तव्य को खूंटे पर टांग फारुख लंदन में अपनी सुकूनगाह में जा बैठे थे, हिन्दुओं को हत्यारों के भरोसे छोड़कर। घाटी में रहते हुए भी वे जितना वक्त गोल्फ खेलने में लगाते थे उसका एक चौथाई भी अल्पसंख्यक हिन्दुओं की पीड़ा समझने में नहीं लगाते थे। 25 जनवरी, 1998 को वंधामा में 23 कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या की गई, जिसमें 9 महिलाओं और 10 पुरुषों सहित 4 बच्चे भी थे। मुख्यमंत्री फारुख ही थे तब। 20 मार्च 2000 को छत्तीसिंहपुरा में 36 सिखों को उस वक्त कत्ल कर दिया गया जब वे अपने गांव में होली के मौके पर होला मोहल्ला का उत्सव मना रहे थे। उस समय भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अब्दुल्ला खानदान के वारिस फारुख अब्दुल्ला ही बैठे हुए थे। सरकारी कोठी के अंदर खामोश बैठ तमाशा देखने वाले मुख्यमंत्री के दरवाजे पर हिन्दुओं ने अपनी दर्द भरी आवाज उन तक पहुंचाने की भरपूर कोशिश की, पर नतीजा सिफर ही रहा। फारुख तब भी चुप रहे जब घाटी की मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकरों से हिन्दुओं को धमकियां दी जाती थीं कि 'अपनी मां-बेटियों को हमारे हवाले करके भाग जाओ वर्ना…!' हिन्दुओं के घरों के बाहर यही धमकी लिखे पर्चे-पोस्टर चिपकाए जाते थे। आखिरकार सात लाख से ज्यादा कश्मीरी हिन्दुओं को अपने घर-बार छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर होना पड़ा। साल दर साल वे तंबुओं या सामुदायिक भवनों में अपने बच्चों, जवान बेटियों और गिनती के चार बर्तन-भांडे लेकर रहे, पर मन में कहीं आस जरूर बंधी थी कि घाटी लौटेंगे एक दिन, कोई तो सुनेगा उनका रुदन, बांटेगा उनका दर्द। तिस पर फारुख का अंदाजे-बयां ये कि 'जो भाजपा को वोट दे वह समन्दर में डूबे'। रोम के जलते वक्त बंसी बजाने वाले के मुंह से ऐसे बयान आना बेशर्मी की हद को भी शर्मसार कर जाता है। अप्रैल, 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तब बेलाग शब्दों में कहा था कि कश्मीर से हिन्दुओं को निकाल बाहर करने में किसी का हाथ है तो वह है अब्दुल्ला परिवार। मोदी ने एक आस जगाई थी कि दिल्ली में अब कोई है जो कश्मीरी हिन्दुओं का दर्द समझता है, जो उनको उनके मूल घर वापस भेजने को लेकर गंभीर है, उनके स्वाभिमान का सम्मान करने और कराने की दिशा में काम जारी है। जम्मू-कश्मीर में हाल में हुए विधानसभा चुनावों में जिस तरह से लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है उससे एक बार फिर यह बात साफ हुई है कि बंदूक नहीं, लोकतंत्र में आवाज गूंजेगी तो सिफ बैलेट की।

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