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पेशावर हमला – सबक देता मौत का सन्नाटा

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Dec 20, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Dec 2014 15:50:09

पश्तो भाषा मंे एक कहावत है कि 'जब कोई बच्चा मरता है, तो तुम उसे अपने दिल में दफनाते हो। वह बच्चा वास्तव में तब मरता है, जिस दिन तुम मरते हो।'16 दिसंबर 2014 को पेशावर में जो कुछ हुआ, उसने पाकिस्तान समेत पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया। 132 बच्चों के जनाजे एक साथ उठे, तो हजारों लोग बिलख पड़े। मासूम स्कूली छात्रों की जिस बर्बरता से हत्याएं की गईं हैं, उससे मानवता स्तब्ध रह गयी। संवेदनशील हृदय द्रवित हुए। साथ ही कई सवाल वातावरण में तिरने लगे। इनमें से कुछ सवाल आपके मन में भी उठे होंगे। जैसे- पाकिस्तान के पाले पोसे आतंकियों ने पाकिस्तान पर ही इतना बर्बर हमला क्यों किया? बच्चों को निशाना क्यों बनाया? इससे उन्हें क्या फायदा होगा? क्या अब पाकिस्तान का रवैया बदलेगा? इसके जिम्मेदार कौन लोग हैं?
मंगलवार की सर्द सुबह तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान के छ: आतंकियों ने खैबर पख्तूनख्वा की राजधानी पेशावर के एक सैनिक विद्यालय पर हमला किया, तो सबकी आंखें समाचार माध्यमों पर अटक गईं। फ्लैश हो रही खबरों के बीच एक आठवीं कक्षा के बच्चे का जिक्र आया, जो सीने में गोली लगने के बाद भी माँ बाप को हिम्मत बंधा रहा था। बच्चे का नाम है 'ओसामा'। ओसामा का जन्म अमेरिका के ट्विन टावर्स पर हुए आतंकी हमले के बाद हुआ है। 9/11 के बाद ओसामा बिन लादेन के सम्मान में हजारों पाकिस्तानी नवजातों का नाम ओसामा रखा गया था। ये त्रासदियों की एक श्रंृखला है, जिसके दोषियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है।
16 दिसंबर को पाकिस्तान के सैकड़ों परिवारों में हाहाकार मचा था। जिसे दिखाते हुए मीडियाकर्मी सिसक रहे थे। पाकिस्तान के नेता और फौज के 'जिम्मेदार' अधिकारी बदले की बातें कर रहे थे, जिससे उनकी कुंठा और लीपापोती की इच्छा ही झलक रही थी। टीवी कैमरों के सामने एक पीडि़त अभिभावक कह रहा था 'इतना बुरा तो हमारे साथ हिंदुओं ने भी नहीं किया…' आईएसआई के प्यादे सोशल मीडिया में इसे रॉ-मोसाद और सीआइए की हरकत बता रहे थे। संयोग ही है, कि 16 दिसंबर को ही भारत की सैनिक कार्यवाही के चलते बंग्लादेश अस्तित्व में आया था, सो इसे 'हिंदुओं का दिया एक और घाव' बताने की होड़ लगी थी। शाम होते-होते हाफिज सईद ने जहर उगला कि भारत से पेशावर के बच्चों का बदला लिया जाएगा। हमारे रक्षा सूत्र जानते हैंं, कि हाफिज सईद की बात को गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है, क्योंकि पाक फौज चाहेगी कि बदले के नाम पर भारत को कोई घाव देकर मामले को मोड़ दे दिया जाए। इसी बीच तहरीक ए तालिबान पााकिस्तान का बयान आया कि उसे 'इस कार्यवाही का कोई अफसोस नहीं है।' ये इस्लामी गणतंत्र पाकिस्तान है।
असली लड़ाइयां समाचार जगत की आंखों से दूर लड़ी जाती हैं। पाकिस्तान में रोज लोग मारे जाते हैं, लेकिन खबर तब बनती है, जब मरने वाला कोई फौजी हो, या पंजाबी। पेशावर में मारे गए ज्यादातर बच्चे फौजी परिवारों से हैं। वरना बलूचिस्तान, पाक के कब्जे वाले कश्मीर, फाटा, एन डब्ल्यू एफ पी और कराची में हर दिन खून बह रहा है। ज्यादातर मामलों में संगीनें खाकी वालों की ही होती हैं। पेशावर के बच्चों के खून के छींटे भी आतंकवादियों की शलवार-कमीजों तक सीमित नहीं हैं। 1950 में शिकागो विश्वविद्यालय के अमरीकन विदेश नीति अध्ययन केंद्र के निदेशक हैंसले मॉरगेज्ताउ ने अपनी किताब 'द न्यू रिपब्लिक' में लिखा- 'पाकिस्तान कोई राष्ट्र नहीं है, और मुश्किल से एक राज्य (स्टेट) है। इसका कोई औचित्य, नस्लीय उद्गम, भाषा, सभ्यता या सामूहिक चेतना नहीं है। पाकिस्तानियों का कोई साझा उद्देश्य या हित नहीं है, सिवाय हिंदू वर्चस्व के भय के।' यही कारण है, कि पाक फौज का पिट्ठू हाफिज पेशावर का 'बदला' भारत से लेना चाहता है। बीते छ: दशकों से पंजाबी पाक सेना मजहबी, नस्लीय, भाषायी और सामाजिक रेखाओं पर बंटे धरती के इस हिस्से को अपनी बंदूक के जोर से अपने पैर के नीचे दबाए हुए है। पंजाबी पाक फौज गैर पंजाबियों को दोयम दर्जे का इंसान मानती आई है। तालिबान पूरी तरह पश्तून लोग हैं। पंजाबी मुसलमानों और पश्तूनों के ऐतिहासिक झगड़े रहे हैं। ऐसे में पश्तून क्षेत्र में जब फौज कोई कार्यवाही करती है, तो पाकिस्तान की जमीन में दरारें गहराने लगती हैंं। पश्तून लोग पाकिस्तान अफगानिस्तान सीमा के दोनों ओर फैले हुए हैं। आज भी ये इलाके अपनी स्थानीय कबीलाई पद्घति से ही संचालित होते हैंं इस परंपरा में 'तोरा' अर्थात् साहस एवं 'बदल' अर्थात् प्रतिशोध का बोलबाला है। मेहसूद कबीले के इलाके दक्षिणी वजीरिस्तान में तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान की मजबूत पकड़ है। उत्तरी वजीरिस्तान में अफगान तालिबान के हक्कानी गुट का दबदबा है। अफगान तालिबान को पाकिस्तानी फौज समर्थन देती है। उसकी दृष्टि में अफगान तालिबान अफगानिस्तान पर अपनी पकड़ बनाने का जरिया है। अफगान तालिबान तथा ऐसे ही दूसरे अनेक संगठनों को पाकिस्तानी जनरल अपना सामरिक औजार समझते हैं। पूर्व आईएसआई प्रमुख हामिद गुल, परवेज मुशर्रफ, अशफाक कयानी ने इस आशय के सार्वजनिक बयान दिए हैं। पाकिस्तान सरकार के विदेश मामलों के सलाहकार सरताज अजीज ने हाल ही में बयान दिया कि ''पाकिस्तान को उन गुटों (आतंकियों) से नहीं उलझना चाहिए, जिनका सीधा निशाना पाकिस्तान नहीं है।'' गौरतलब है, कि अफगानी तालिबान पाकिस्तान के अंदर किसी भी प्रकार के हमले के खिलाफ हैं। उनका निशाना अफगानिस्तान और नाटो सेनाएं हैं। जबकि 'तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान' पूरी तरह पाकिस्तान केंद्रित है, जो पाकिस्तान में वहाबी छाप इस्लामी कानून लागू करवाना चाहता है।
अंधेरी गलियों के लेन-देन
इन आतंकी गुटों और पाक फौज की साठगांठ के समीकरण बेहद जटिल हैं। मई 2010 में अमरीकी जनरल डेविड पैट्रियस ने एक साक्षात्कार में कहा 'सभी आतंकी संगठनों के परस्पर संबंध हैं। चाहे वो अलकायदा हो, पाकिस्तानी तालिबान हो या अफगानी तालिबान अथवा टीएनएसएम हो। आप उनके बीच संबंध को ठीक-ठीक परिभाषित नहीं कर सकते। वे एक-दूसरे का समर्थन करते हैं, तालमेल बिठाकर काम करते हैं। कभी-कभी वे प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, और कभी-कभी एक दूसरे की हत्याएं भी करते हैं।' कुछ समय पूर्व अमरीकी खुफिया अधिकारियों ने खुलासा किया था, कि 'पाकिस्तानी तालिबान को अफीम और दूसरे मादक पदार्थों के व्यापार से (जिस पर आईएसआई और अफगान तालिबान का नियंत्रण है) आय हो रही है।' अफगान तालिबान पाकिस्तानी तालिबान को धन भी मुहैया करवा रहे हैं। अब जबकि पाक फौज का अफगान तालिबान से गर्भनाल का रिश्ता हैे, ऐसे में पाकिस्तानी तालिबान (तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान) के विरुद्घ पाक की फौजी कार्यवाही कितनी विश्वसनीय रह जाती है? पेशावर के कातिलों ने इसे पाक फौज की क्रूर कार्यवाही का बदला बताया है। ये दावा अर्द्धसत्य है। दरअसल वहाबी इस्लाम, कबीलाई कानून, आपसी प्रतिस्पर्द्धा और खाकी वर्दी वालों कीे शतरंजी चालों के बीच पेशावर के मासूम बच्चे पीसे गए हैं। पाकिस्तानी सेना दस वर्षों से इन जिहादियों को बिठाकर खिला रही है। अब अफगानिस्तान से अमरीका के जाने की स्थिति में इनको फिर से खदेड़कर अफगानिस्तान जिहाद में झोंकना जरूरी है, इसलिए जून माह से ऑपरेशन जर्ब ए अज्ब चलाया जा रहा है। दूसरा, जिस विद्यालय पर उन्होंने हमला किया वो आधुनिक शिक्षा देने वाला विद्यालय है, जहां लड़के व लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं। इसलिए मामला इस्लामी मान्यताओं का भी है। फिर बदला लेना उन्हें खूब आता है ही। फौज और तालिबान दोनों के लिए ये सब छोटी मोटी बातें हैं। आखिरकार दोनों को एक दूसरे की जरूरत है।
विडंबनाओं की धरती पर कपटपूर्ण बातें इस्लामाबाद की जिस लाल मस्जिद में छिपे आतंकियों पर फौजी कार्यवाही के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप पाकिस्तानी तालिबान का जन्म हुआ, उसके मुल्ला अब्दुल अज़ीज ने पेशावर हमले की निंदा करने से मना कर दिया है। जबकि जमात उद दावा के गुर्गे बच्चों की अंत्येष्टि में बैनर लेकर पहुंचे जिन पर लिखा हुआ था कि 'बच्चों के खून से भारत, अमरीका और इजराइल का पतन होकर रहेगा'। इसी बीच अफगान तालिबान के हाथों अफगानिस्तान को तबाह करने पर आमादा पाक सेना के प्रमुख राहिल शरीफ अफगानिस्तान पहुंचे और मांग की कि पाक तालिबान के सरगना को पकड़कर उनके हवाले किया जाए नहीं तो वो अपने तरीके से काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। राहिल शरीफ की ये बेचैनी देख दुष्यंत कुमार की पंक्तियां याद आती हैं कि 'वो सलीबों के करीब आए तो, हमें कायदे कानून समझाने लगे हैं।'' दुष्यंत कुमार की ही अगली पंक्तियां मानो पाकिस्तान के हालात का वर्णन करते हुए निरपराध बच्चों के दुर्भाग्य पर अश्रुपात कर रही हैं- 'कब्रिस्तान में एक घर मिल रहा है, तहखानों में जिसमें तहखाने लगे हैं।़.़ अब नयी तहजीब के पेशे नजर हम, आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।ल्ल

ऑस्ट्रेलिया में गहरातीं इस्लामिक स्टेट की जड़ें
ऑस्ट्रेलिया के सिडनी के लिंट कैफे पर हुए आतंकी हमले के संदर्भ में। 15 दिसंबर को एन एस डब्ल्यू पुलिस दल ने हमला कर 17 घंटे से चल रहे बंधक संकट को समाप्त कर दिया। इसमें एक जिहादी हमलावर समेत तीन मौतें हुईं। जैसा कि हमेशा होता है, पश्चिमी जगत का वामपंथी वर्ग और तथाकथित उदारवादी तबका इसे 'अपराध' का मामला बताने में जुट गया है। 'इस्लामिक स्टेट ने ऑस्टे्रलिया पर हमला कर दिया है', का नारा बुलंद करने वाले जिहादी मोनिस को दुष्प्रचार प्रभावित सनकी बताया गया। ऐसा करते हुए उन तमाम संकेतों की अवहेलना कर दी गई जो बता रहे हैं कि कट्टरपंथी इस्लाम ऑस्टे्रलिया की धरती पर जड़ें जमा रहा है। ऑस्ट्रेलिया के सभी बड़े शहरों से जिहाद के लिए शस्त्र उठाने के आह्वान सुनाई पड़ रहे हैं। पढ़े लिखे ऑस्टे्रलियाई मुसलमानों में इस्लामिक स्टेट और जिहादियों के प्रति सहानुभूति बढ़ रही है। अक्तूबर माह में सिडनी में ही एक रैली में एक आठ वर्षीय बच्ची ने मुस्लिम भीड़ को संबोधित करते हुए जिहाद में भाग लेने और विश्व में इस्लामी खिलाफत कायम करने की पुकार लगाई। रैली में लोग तख्तियां पकड़े हुए थे जिन पर लिखा था- 'जो रसूल की तौहीन करे, उसका सर कलम कर दो'। इस्लामिक स्टेट के लिए शस्त्र उठाने वालों में ऑस्टे्रलिया के युवकों की भी पर्याप्त संख्या है।
मुस्लिम पहचान ऑस्टे्रलिया की राष्ट्रीयता पर हावी हो रही है। ऑस्ट्रेलिया की मस्जिदों पर वहाबी तत्व कब्जा कर रहे हैं। 2014 में ही मैड्रिड की सबसे बड़ी मस्जिद में जिहादियों की भर्ती किए जाने का मामला सामने आया था। सितंबर 2014 में सिडनी के ओमराजान अजारी नामक युवक को गिरफ्तार किया गया जो सड़क से किसी भी गैर मुस्लिम का अपहरण कर उसका सर कलम करने की योजना बना रहा था। अजारी की योजना इस कृत्य का वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर डालने की थी। ये सारी बातें बता रही हैं, कि ऑस्टे्रलिया की धरती पर स्थान-स्थान पर इस्लामी कट्टरता और जिहादी उग्रवाद की खेती लहलहा रही हैं
हॉलीवुड की मशहूर फिल्म गॉडफादर में माफिया सरगना विटो कॉरलियान का चरित्र है। विटो कॉरलियान आपको जो प्रस्ताव देता है, उसे आप अस्वीकार नहीं कर सकते। पश्चिमी जगत को समझना होगा कि इस्लामी कट्टरपंथी भी आप को जो प्रस्ताव दे रहे हैं, उसमें आपके इंकार करने की गुंजाइश नहीं है। ये बहुत गंभीर बात है। फिर विटो कॉरलियान तो काफी संवेदनशील व्यक्ति था। वो आपके आड़े तब तक नहीं आता जब तक आप व्यर्थ उसकी राह न काटें। ये तो जिहादी जुनून के मारे हैं, ये आपके खिलाफ सिर्फ इसलिए हैं, कि आप उनके जैसे नहीं हैं।  -प्रशांत बाजपेई

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