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कैलास-मानसरोवर
जाने कितने जन्म, कितने वर्ष, इस दिन के लिए प्रतीक्षा की थी। कभी भी कैलास-मानसरोवर का उल्लेख सुना तो मन उन्मादी सा हो उठता था लगता था चलना चाहिए, चलो, अभी। दो दशक बंद रहने के बाद पहले पहल 1981 में फिर यात्रा शुरू हुई थी। तब आने-जाने का कुल खर्च पांच हजार पड़ता था। नौ सौ रुपए महीने की नौकरी थी। फिर भी कहीं से जुगाड़ किया। पर छुट्टी नहीं मिली। मन खट्टा हो गया। ऐसी भी क्या नौकरी! कुछ दिन बाद नौकरी ही छोड़ दी थी। 11 साल बीत गए। यूं ही। 92 में फिर हूक उठी। धेला पास में एक नहीं। पर मन में था- इस बार नहीं, तो कभी नहीं। मित्रों को लिखा। परिचितों-अपरिचितों ने कुछ ऐसा साथ दिया कि अचंभित रह गया! मान गए, भोले भण्डारी को! जब बुलाते हैं तो यूं हाथ पकड़कर कि व्यक्ति बस आनन्दविभोर हो अवाक रह जाता है।
केलास और मानसरोवर विश्व की सबसे सुन्दर और सबसे दुर्गम तीर्थयात्रा है। दिल्ली से लगभग 865 किमी दूर है ये क्षेत्र। भारत का विदेश मंत्रालय चीन सरकार के साथ मिलकर यह यात्रा आयोजित करता है जो उत्तराखण्ड के धारचूला, गब्यांग, गुंजी, लिपुलेख से गुजरती हुई 27 दिन में पूरी होती है। दूसरा मार्ग इस बार चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने खुलवाया है जो नाथुला (सिक्किम) से होकर है। यह सारा पथ गाडि़यों से किया जा सकता है। जबकि पहला मार्ग आधा पैदल, आधा गाडि़यों से है। नेपाल होकर भी यात्रा होती है- काठमांडू-ल्हासा-हवाई मार्ग और फिर पजेरो गाडि़यों से या काठमाण्डू से कैलास आना-जाना गाडि़यों से। हम पहली बार पैदल गए।
कैलास पर्वत साक्षात् भगवान शिव का निवास स्थान है। तिब्बत में भी अत्यंत श्रद्धा से कैलास की पूजा की जाती है। तिब्बती भाषा में कैलास को काडग रिमपोछे कहा जाता है। कैलास दर्शन कर भावुक यात्रियों की आंखों में आनंद के अश्रु छलक उठते हैं। नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी कैलास का प्रथम दर्शन कर उसके सम्मुख श्रद्धा से नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकता। पृथ्वी लोक पर यही एक ऐसा स्थान है जहां देवाधिदेव महादेव शिव का निवास स्थान है और जिसे हम अपनी आंखों से देख सकते हैं, जहां के क्षेत्र को स्पर्श कर सकते हैं। कैलास परिक्रमा दो दिन में पूरी होती है। मानसरोवर की परिधि 90 किलोमीटर की है। यह परिक्रमा भी दो दिन मं पूरी की जाती है। यह विश्व की झीलों में सबसे सुंदर, सबसे प्रेरक, सबसे मनमोहक एक दिव्य आभा लिए साक्षात् स्वर्ग भूमि का आभास कराती है। इसके उत्तर में कैलास और दक्षिण में गुरला मांधाता पर्वत है। दिल्ली से यात्रा मार्ग में धारचूला तक बस जाती है, आगे पैदल या खच्चरों पर रास्ता तय करना होता है। सम्पूर्ण मार्ग अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त है। सैकड़ों हजारों प्रपातों का दूधिया जादू, हरियाली के हजार रूप और नवी ढांग में पर्वत जैसे चमत्कार। पर्वत शिखर पर ऐसा हिमनद बना है जो ठीक के आकार का है- एक स्थायी हमेशा दिखने वाला (जब बादल न हों) दृश्य!! यात्री मंत्रमुग्ध हो देखते ही रह जाते हैं।
कैलास पर्वत तक पहुंचना स्वप्नवत् ही था। हम शिविर में सुबह 5 बजे उठे। सामान बांधा। पौने छह बजे नाश्ता किया। जल्दी से बस में बैठे। हमारा सामान पीछे ट्रक में रखा था। यात्री दो दलों में विभक्त थे- एक दल अ- जो पहले कैलास यात्रा पर जाने वाला था अैर दूसरा ब, जो पहले मानसरोवर परिक्रमा करेगा। तकलाकोट से अगला पड़ाव तारचेन में था, प्राय: 80 किमी. दूर। मार्ग में मानसरोवर तट पर जैदी शिविर पड़ता है, जहां कुछ देर रुककर यात्री स्नान करते हैं और पास ही एक पहाड़ी पर चढ़कर कैलास के प्रथम दर्शन करते हैं। इस यात्रा के रोमांच और उत्तेजना के बारे में क्या कहा जाए। लगता है बस अब जीवन सफल हो गया। अब कुछ भी हो जाए परवाह नहीं। मानसरोवर में स्नान के बाद कैलास दर्शन हो जाएं तो फिर और क्या शेष रह जाता है चाहने को? तो साहब, सुबह बस चलते ही गणपति बप्पा मोरया के जयघोष से तकलाकोट गूंज उठा। गणेश चतुर्थी के दिन पहले गणपति स्मरण किया फिर भजन गूंजने लगे। एक घंटे बाद अबूधाबी से आए राव साहब चीखे- अरे बायीं ओर देखो, बायीं ओर। फैंटास्टिक। सबने मुंह घुमाया तो अवाक् रह गए। वह स्वप्न था या सत्य? हल्के-हल्के उजाले में आकाश के अनंत विस्तार के एक छोर पर दिव्य मणि सा चमकता वह अपार गरिमामय पर्वत- शुभ्र, उज्जवल, मनमोहक। गाइड बोला- यह गुरला मान्धाता पर्वत है। लोकश्रुति के अनुसार महाराजा मान्धाता ने मानसरोवर की खोज की थी और वहीं तट पर तपस्या की थी।
मान्धाता पर्वत के मंत्रमुग्ध कर देने वाले दर्शन के उपरान्त आगे बढ़े। हम एकदम मैदानी क्षेत्र से गुजर रहे थे। पठार, पहाड़ी क्षेत्र से बिल्कुल भिन्न होता है। ऊंचाई पर रेगिस्तान मैदान जैसा- जहां छोटे-छोटे टीले, टीलेनुमा पहाडि़यां ही ज्यादा होती है। 9 बजे के लगभग दो पहाडि़यों के बीच स्फटिक सा निर्मल गहरे नीले रंग का जलाशय दिखा तो सब यात्री खुशी से चिल्ला उठे- मानसरोवर। 11 बजे हम मानसरोवर तट पर पहुंचे मानसरोवर की लहरें सागर की लहरों के समान उठती-गिरतीं, क्षितिज और मानस के जल का रंग एक जैसे- एक रूप। तट के आसपास रंगीन फूलों वाली घास थी, जिस पर पांव रखते ही धंसते थे। इसी मानसरोवर का वर्णन हमारे रामायण, महाभारत, सभी पुराणों- विशेषकर स्कन्दपुराण में इसका वर्णन है। बाणभट्ट की कादम्बरी, कालिदास के रघुवंश और कुमारसंभवम्, संस्कृत और पालि के बौद्ध ग्रंथों में भी इसका सुन्दर वर्णन है। बौद्ध ग्रंथों में इसे अनोतत्त या अनवतप्त- जो ऊष्मा और कष्ट से परे है- कहा गया है। महाभारत में इसे बिन्दुसर तथा जैन ग्रंथों में इसे पद्म हृद कहा गया है। इसके चारों ओर सतलज, करनाली, ब्रह्मपुत्र तथा सिन्धु के उद्गम हैं। इसके उत्तर में कैलास, दक्षिण में गुरला मान्धाता, पश्चिम में राक्षस ताल है। सागरतट से 14950 की ऊंचाई पर स्थित मानसरोवर का व्यास 54 मील तथा गहराई 300 फीट है। यह 200 वर्ग मील क्षेत्र में फैली है।
मानस में स्नान कर सूर्य को अर्घ्य दिया- गायत्री मंत्र व महामृत्युंजय मंत्र का जप किया। मौन व्याप गया था सर्वत्र। किसी को किसी का ध्यान नहीं रहा। दण्डवत प्रणाम कर सब चुप बैठ गए। दिलीप संघवी दूर तक शूटिंग करते चले गए थे। दौड़कर लौटे और लिपट गए। मेरे कंधे उनके प्रेमाश्रुओं से गीले हो गए। कुछ कहते ही नहीं बनता था। गला रूंधा था। यह अनुभव साक्षात् प्रभुदर्शन से कम न था। –तरुण विजय
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