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ज्ञानेन्द्र बरतरिया
आतंकवाद या आतंकवादी वारदातें पाकिस्तान के लिए कोई नई बात नहीं है। पिछले कम से कम दो दशकों से आतंकवाद पाकिस्तान की रोजमर्रा जिंदगी का हिस्सा है, और अगर आतंकवाद के लिए दिए गए परोक्ष-अपरोक्ष तकोंर् को ध्यान में लिया जाए, तो आतंकवाद और पाकिस्तान हमेशा से एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। यह तर्क खुद पाकिस्तान सरकार ने भी दिए हैं और उसके धार्मिक-राजनैतिक-सैनिक नेताओं ने भी। जैसे यह कहना कि यह आतंकवाद थोड़े ही है, यह तो जिहाद है, या यह तो स्वतंत्रता संग्राम है या यह कि पहले इसकी मुख्य जड पऱ बात की जानी चाहिए (परवेज मुशर्रफ) या यह कि जब तक अमरीका, इस्रायल और भारत हैं, यह सब तो चलेगा या कुछ भी और।
फिर पेशावर नरसंहार की चर्चा अलग से क्यों की जा रही है? मूलत: इसके दो कारण हैं- एक यह कि इस बार किसी बड़ी वारदात का पीडि़त पक्ष खुद पाकिस्तान है, पाकिस्तान ही नहीं बल्कि उसकी सेना है, सेना ही नहीं, बल्कि सैनिक अधिकारियों के बच्चे हैं। यह वैसा ही है, जैसे किसी ने क्रेमलिन के अंदर जाकर जर्मन झंडा फहरा दिया हो। दूसरा कारण है घटना की नृशंसता। आतंकवादियों के हाथों मारे गए स्कूली बच्चे थे, और उन्हें बेहद निर्दयता से, बेहद निर्ममता से मारा गया है, ऐसी नृशंसता, जो दुनिया भर में किसी भी इंसान को हिला कर रख दे।
जाहिर है, पूरी दुनिया को अफसोस हो रहा है, दुख हो रहा है, पाकिस्तान शोक मना रहा है, हर व्यक्ति माता, पिता, भाई या बहन की दृष्टि से मारे गए बच्चों की तरफ देख रहा है। इस पर बहस भी छिड़ गई है।
बहस या अनुमानों के अभी तक दो अहम बिन्दु उभरकर सामने आए हैं- एक यह कि क्या पाकिस्तान इससे कोई सबक ले सकेगा और अपनी उस रट पर लगाम लगा सकेगा, जो आज तक उसने आतंकवाद के पक्ष में लगा रखी है? और दूसरा यह कि क्या इससे पाकिस्तान की अफगान नीति (या बदनीयती) पर कोई असर पड़ेगा? पाकिस्तान इसी कोशिश और फिराक में है कि 31 दिसम्बर, 2014 को अफगानिस्तान से अमरीकी सेना के वापस होते ही वहां तालिबान राज कायम करवाकर आतंकवाद का पुराना खेल फिर खेला जाए। अभी हाल तक उनका कहना था कि या तो कश्मीर मसला हल किया जाए (माने उनके हिसाब से हल किया जाए) या अफगानिस्तान में उन्हें खुला खेल खेलने दिया जाए। बहुत संक्षेप में कहा जाए, तो भारत की कश्मीर स्थिति का संबंध हमेशा से अफगानिस्तान की स्थितियों से जुड़ा रहा है।
आप तर्क दे सकते हैं, अनुमान लगा सकते हैं, साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं और भविष्यवाणियां कर सकते हैं लेकिन यह सब चलता आया है। बहुत जल्द, पाकिस्तान फिर वापस अपने ढर्रे पर लौट आएगा। संकेत के लिए, यह ध्यान रखना जरूरी है कि नवाज शरीफ और इमरान खान ने घटना की निंदा की है, लेकिन तालिबान का नाम भी नहीं लिया है। तालिबान के उस्ताद, मदरसा हक्कानिया के मौलाना समीउल हक ने घटना की निंदा करना भी जरूरी नहीं समझा है। मदरसा हक्कानिया पेशावर से बिल्कुल सटे नौशेरा में है और आज के सारे अफगानी-पाकिस्तानी तालिबान नेताओं की फैक्ट्री है। इससे एक कदम आगे हैं जमात-उद-दावा के हाफिज सईद, जिन्होंने लाहौर में बैठकर ऐलान कर दिया कि यह हमला भारत ने किया है (और लिहाजा भारत से बदला लिया जाना जरूरी है)।
क्षैतिज दृष्टि से देखने पर सभी कुछ बहुत ज्यादा सहज नजर आता है, लेकिन दबे पांव बढ़ते कदम किसी और दिशा की तरफ संकेत कर रहे हैं, जो जरा भी सामान्य नहीं है। कुछ तथ्यों को गौर से देखिए, इन कदमों की दिशा उससे साफ हो जाती है।
पेशावर जैसा नरसंहार पाकिस्तान के लिए कोई नई बात नहीं है। सिर्फ उदाहरण के लिए, 10 जनवरी 2013 को क्वेटा के हाजरा शिया इलाके – आलमदार रोड पर दो धमाके किए गए, एक धमाका लोगों को मारने के लिए, और दूसरा घायलों को वहां से निकालते समय मारने के लिए। 108 लोग मारे गए, 120 घायल हुए। पाकिस्तान ने न तो शोक मनाया, न अफसोस जताया। निंदा शायद ही किसी ने की हो। किसी सेना प्रमुख ने न तो लश्कर-ए-झंगवी को वहशी दरिंदा कहा और न उसके सरगनाओं को गिरफ्तार करने की बात कही। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस पर खुशी जताने वाले मौजूद थे, सेना और पुलिस ही नहीं, सवार्ेच्च अदालतों तक की हमदर्दी हमलावरों के पक्ष में रही।
मुंबई पर हुए हमलों में पेशावर से ज्यादा लोग मारे गए थे, और पाकिस्तान में अदालतों समेत शायद ही किसी को इस पर अफसोस हुआ हो। इन उदाहरणों का मकसद पाकिस्तान की जनता की सोच के एक ऐसे पक्ष को रेखांकित करना था, जो किसी और तरफ भी इशारा करता है। यह पक्ष है नृशंसता के लगातार बढ़ते स्तर को पाकिस्तान की आम जनता में प्राप्त स्वीकार्यता का।
दूसरी स्थिति। मान लीजिए कि पेशावर की घटना यहां न घटकर नाइजीरिया में घटी होती, तो क्या होता? बोको हरम, (जिसके पूरे नाम का शाब्दिक अनुवाद किया जाए, तो आपको लगेगा कि इस नाम के तो कई संगठन पाकिस्तान में पहले से हैं) के लिए यह कोई अनूठी बात नहीं होती। अगर इसी वारदात को, इतने ही परिमाण में, आईएसआईएस ने अंजाम दिया होता, तो भी शायद किसी को आश्चर्य नहीं होता। यह महत्वपूर्ण पक्ष है। नृशंसता का आईएसआईएस स्तर पाकिस्तान पहुंचा है, जहां इसके लिए सशर्त स्वीकार्यता पहले से मौजूद है।
आईएसआईएस के लिए सशर्त स्वीकार्यता और किस-किस पहलू में पाकिस्तान में पहले से मौजूद है? पाकिस्तान के इतिहास से लेकर नागरिक शास्त्र और अंकगणित तक की किताबों में भारत शत्रु नंबर 1 है, तो आईएसआईएस ने भी जिन 11 देशों को खुली धमकी दी है, उनमें भारत का नाम शामिल है। आईएसआईएस द्वारा हाल ही में प्रसारित किए गए एक नक्शे में गुजरात सहित उत्तर-पश्चिमी भारत के एक बड़े हिस्से को खिलाफत के इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान का हिस्सा बताया गया है। माने वैचारिक मेल पहले से उपलब्ध है।
सामरिक मेल यह है कि बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सेना के पूर्व सैनिक और लश्कर-ए-झंगवी और पाकिस्तान तालिबान के लड़ाके सीरिया-इराक में आईएसआईएस की ओर से सक्रिय हैं। जो हमले लश्कर-ए-झंगवी हाजरा शियाओं पर करता था या बाकी संगठन मुंबई में कर चुके थे, अब वैसा ही काम, एक पायदान ऊपर जाकर, पाकिस्तान तालिबान ने (पेशावर में) सुन्नी पंजाबी बच्चों पर कर दिखाया है। इसका तीसरा पायदान क्या होगा?
अगर आप आईएसआईएस को मध्य-पूर्व का परिदृश्य मानते हैं, तो खुद पाकिस्तान भी अपने आपको भारतीय उपमहाद्वीप का हिस्सा मानने के बजाय मध्य-पूर्व का पूर्वी छोर मानता है। भाड़े के टट्टू ही नहीं, भाड़े के आत्मघाती तक पाकिस्तान में आसानी से उपलब्ध हैं। अगर मध्य-पूर्व की अस्थिरता, वहां की लचर सुरक्षा स्थिति, निजी या स्वतंत्र मिलिशियाओं की मौजूदगी और पालापलट सैन्य तंत्रों ने आईएसआईएस के लिए मैदान खाली छोड़ा था, तो यह सारी स्थितियां पाकिस्तान में सदा-सर्वदा मौजूद हैं। सबसे अहम है हिंसा और विशेषकर नरसंहारों के लिए जबरदस्त मोह, और जिहाद के नाम पर हत्याओं की खुली स्वीकार्यता की स्थितियां। अब, पेशावर के बाद, इनकी दिशा पाकिस्तान के तमाम आतंकवादी संगठनों और वस्तुत: उसकी पूरी मशीनरी को ग्रेजुएट होने का प्रमाणपत्र दे रही है। पाकिस्तान आईएसआईएस का अगला मैदान, जिहाद-खिलाफत और नरसंहारों की अगली प्रयोगशाला बनने जा रहा है।
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