माओवाद का कलंक- कब तक बलिवेदी पर चढ़ेंगे वीर जवान !
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माओवाद का कलंक- कब तक बलिवेदी पर चढ़ेंगे वीर जवान !

by
Dec 15, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Dec 2014 12:28:16

फिर से छत्तीसगढ़ की जमीन रक्तरंजित हुई है। प्रदेश के सुकमा जिले में फिर बलिदान हुए 14 जवानों की आहुति एक आम रस्म बनकर न रह जाये इसलिए कुछ नए कदम उठाने की आवश्यकता है, अन्यथा बार-बार इसी तरह ताबूत सजाये जायंेगे, नक्सलियों द्वारा की गई कायराना हरकत की निंदा की जायेगी, दिल्ली से मंत्रीगण आयेंगे, मुख्यमंत्री समेत सभी संबंधित नेताओं और अधिकारियों द्वारा श्रद्घासुमन अर्पित करने के साथ ही देश के कोने-कोने में ताबूत उन सुरक्षाबलों के घर पहुंचा दिए जाते रहेंगे। उन घरों में कोहराम मचेगा, घर के कमाने वाले एकमात्र सपूत की शहादत पर छाती पीटेंगे, बूढ़े मां-बाप के लिए कुछ मुआवजा आदि की घोषणा होगी और सभी लोग फिर अपने-अपने कामों में व्यस्त हो जायेंगे। सौ अतिरिक्त खाली ताबूतों के साथ एक स्वयंसेवी संगठन लगातार तैयार रहेगा। ऐसे ही किसी और घटना के बाद देश के सपूतों को ससम्मान उनकी अंतिम यात्रा पर उनके घर भेजने के लिए सब कुछ तयशुदा,तमाम चीजें वैसे ही बिलकुल फिर औपचारिक।
इस हालिया बलिदान में अगर कुछ अनौपचारिक रहता है तो वह है अपने प्राणों की आहुति देने वाले सुरक्षाबलों के परिवारों का जज्बा। बिहार के आरा जिले के एक शहीद के बड़े भाई ने कहा कि उसे फक्र है कि उसका भाई देश के काम आया है। उनके घर और गांव में ढेर सारे युवा अभी भी तैयार हैं, अगर सरकार चाहे तो वे सब भी देश के लिए अपनी जान न्योछावर करने को तैयार हैं। तो सवाल यही है कि जहां इस तरह प्रतिबद्घ और देशभक्त युवाओं की अपार संख्या देश पर मर मिटने को तैयार है, भारत की पहचान जहां दुनियाभर में एक ताकतवर मुल्क के रूप में हो रही है, देश ने जब मंगल तक की दूरी तय कर ली है, वहां आखिर किस बात की कमी है कि हम देश की मांद में घुसे मुट्ठीभर देशद्रोही तत्वों को नेश्तनाबूत नहीं कर पा रहे हैं? आखिर कैसे वह चंद गिरोह इस सबा अरब के देश को इस तरह नाकों चने चबवाने को मजबूर किये हुए है? दुनियाभर में पताका फहरा रहा ताकतवर यह लोकतंत्र आखिर कैसे अपने घर में ही इस तरह विवश, मजबूर और लाचार जैसा खड़ा खुद को किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में पा रहा है? आखिर हर ऐसी घटना के बाद हम लकीर के फकीर बने रहने को क्यों मजबूर होते हैं?
ऐसी हर घटना के बाद देश की यह अपेक्षा होती है कि सरकारें निंदा-भर्त्सना से ऊपर उठ कर कुछ ऐसे कदमों की घोषणा करें, जिससे स्थानीय वनवासियों समेत देशभर में एक भरोसे का माहौल तैयार हो। उन्हें लगे कि उनका देश इतना क्षमतावान तो है ही कि राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़ी चुनौती के रूप में परिभाषित किये नक्सलवाद (सरकार की नयी परिभाषा के अनुसार वाम उग्रवाद) को समूल नष्ट किया जा सके। इन तमाम बातों का एकमात्र जवाब यही है कि कर्णधारों में दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव है। यह बात किसी व्यक्ति या दल विशेष की आलोचना से संबंधित नहीं है। सवाल उस परिपाटी का है,जिसे छोड़ नयी तरह की चुनौतियों का नये तौर तरीकों से समाधान की सोच आखिर नियंताओं में आने की अपेक्षा का है? आखिर जब अनेक बार यह साबित हो गया है कि वर्तमान तौर-तरीकों से इस संकट से निपटना संभव नहीं है तो कुछ नए तरीकों के बारे में विचार क्यों नहीं किया जा रहा? दो टूक यह कहने की जरूरत है कि एकमात्र 'सेना' ही इस नासूर का इलाज है। उसके अलावा की जा रही तमाम बातें महज रस्म अदायगी के अलावा और कुछ नहीं। सीधा सवाल यही है कि तमाम तरह के विरोधों के बावजूद अगर हम पूवार्ेत्तर में सेना का इस्तेमाल कर सकते हैं, जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्र को सेना के पुरुषार्थ की बदौलत ही हम उसे अपना अभिन्न अंग रखने में सफल हैं तो आखिर बस्तर ही इस नीति का अपवाद क्यों है?
निश्चित ही अर्द्धसैनिक बलों की वीरता पर किसी तरह का कोई संदेह नहीं किया जा सकता, लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि बस्तर जैसी लड़ाई लड़ने के लिए उन्हें प्रशिक्षित नहीं किया गया है। अभी तक की तमाम घटनाओं में यह बात देखने में आती थी कि जवानों ने 'सिक्योरिटी मेजर्स' का इस्तेमाल नहीं किया था। मसलन वे एक साथ झुण्ड में चलते थे, जबकि उन्हें वी आकार में खुद को रखकर चलना था। वे गाडि़यों का इस्तेमाल नहीं करेंगे ताकि बारूदी विस्फोटों से नुकसान कम से कम हो। वे जिस रास्ते से जाएं उन्हीं रास्तों का इस्तेमाल वापसी के लिए नहीं करेंगें,आदि-आदि़…। सुकमा के ताजा हमले में पहली नजर में यह लगता है कि इस बार जवानों ने लगभग इन सारे उपायों का बखूबी इस्तेमाल किया था। यानी यह कहा जा सकता है कि नक्सलियों ने जवानों की रणनीति के बाद भी नयी-नयी प्रतिरोधात्मक रणनीति अपनाने में महारत हासिल कर ली है। तो सवाल यही है कि जिस तेजी से वे अपनी रणनीतियों को अद्यतन कर पाते हैं वैसा हम क्यों नहीं कर पाते हैं? बात यह बिलकुल नहीं हैं कि सरकार इस मामले में गंभीर नहीं है। वह पूरी तरह गंभीर है। अपनी क्षमता के अनुसार वह कोशिश भी पूरी कर रही है। प्रदेश सरकार की आकर्षक आत्मसमर्पण नीति और सुरक्षा बलों के दबाव के कारण बड़ी संख्या में नक्सली आत्मसमर्पण करने पर मजबूर भी हो रहे हैं। इस हमले से एक दिन पहले ही नक्सल प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने प्रेस को भेजी विज्ञप्ति में यह स्वीकार भी किया था कि हाल में उसे काफी नुकसान उठाना पड़ा है। उनके काफी लोग संगठन छोड़ कर चले गए हैं,लेकिन यह हमला कर एक बार फिर से इस गिरोह ने यह साबित कर दिया है कि वे उतना भी कमजोर नहीं हुए हैं कि वर्तमान तौर-तरीकों से उनका सफाया कर देना संभव हो।
तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ के एक हिस्से बस्तर के काफी छोटे इलाके में इनका कब्जा है। समूचा बस्तर केरल से बड़ा लगभग 40 हजार वर्गकिलोमीटर का क्षेत्र है,जिसमें से केवल अबूझमाड़ का 4 हजार किलोमीटर इलाका ऐसा है,जिसे आप आंशिक रूप से नक्सल कब्जे वाला क्षेत्र कह सकते हैं। वहां की दुरूह भौगोलिक परिस्थितियां ही एकमात्र ताकत हैं नक्सलियों की। बार-बार हुए चुनाव में नक्सल धमकियों के बावजूद शहरों से ज्यादा मतदान होना यह साबित करने का पर्याप्त आधार है कि जनसमर्थन वहां भी इनका न के बराबर है। जबरन महिलाओं और बच्चों को आगे कर भले नक्सली कुछ समय के लिए भारी पड़ जाते हों लेकिन नक्सल समर्थित बुद्घिजीवियों का यह दुष्प्रचार ही है कि वे जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं।

देखा जाये तो अभी तक के नक्सल अभियान की सबसे बड़ी सफलता उस आन्दोलन को कहा जा सकता है जिसे दुनिया 'सलवा जुडूम' के नाम से जानती है। उस आन्दोलन की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि खुद उस इलाके के नौजवानों ने नक्सलियों के दांत खट्टे करने को हथियार उठा लिए थे। सरकारी शिविरों में बड़ी संख्या में वनवासियों के आ जाने के कारण सुरक्षाबलों के लिए नक्सलियों को पहचान पाना भी आसान हो गया था। आन्दोलन बिलकुल निर्णायक दौर में था,लेकिन जैसा कि इस आन्दोलन के माध्यम से बस्तर की जमीनी लड़ाई लड़ने वाले स्व. महेंद्र कर्मा ने कहा था कि यह आन्दोलन केवल 'पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन' में हार गया। दिल्ली और महानगरों में बैठे नक्सल समर्थक बुद्घिजीवियों का दुष्प्रचार बस्तर के माटी पुत्रों पर भारी पड़ा और यह आन्दोलन अकाल ही काल कवलित हो गया। सरकार द्वारा एसपीओ का दर्जा दिए लड़ाकों को अदालत के आदेश से भंग करना पड़ा। हालांकि उस समय प्रदेश सरकार ने तत्परता दिखाते हुए सभी ऐसे वनवासी जवानों को फिर से बहाल करने के लिए नियम बनाए, बस्तर की भौगोलिक स्थितियों से पूरी तरह जानकार वे 'कोया कमांडो' नक्सलियों पर हावी भी हो रहे थे,लेकिन तमाम दुष्प्रचारों के कारण अंतत: हतोत्साहित होकर यह आन्दोलन अपने अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाया।
बहरहाल बलिदान हुए इन जवानों के पराक्रम को व्यर्थ नहीं जाने देने का तकिया कलाम अगर धरातल पर उतारना है तो स्पष्ट तौर पर सरकारों को अपनी नीति में बदलाव करना होगा। देश-प्रदेश में बहुमत से एक ही दल की सरकार होने के कारण अब कोई राजनीतिक गतिरोध भी नहीं है। देश और सरकार को सीधे तौर पर यह समझ लेना होगा कि महज विकास से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। बल्कि इस समस्या का समाधान होने के बाद वहां विकास होना उचित होगा। सड़क-पुल-पुलिया आदि के बिना कुछ वर्ष और रह सकते हैं वहां के लोग,लेकिन नक्सलियों के साथ उन्हें रहना अब गंवारा नहीं यह कोई रहस्य नहीं रहा कि सरकार की तमाम विकास योजनाओं का हिस्सा 'लेवी' के रूप में नक्सलियों तक पहुंचता है और यही 'लेवी' उनकी रीढ़ है। अगर कुछ समय के लिए पीडीएस के अलावा अन्य तमाम विकास कार्यों को रोक कर,तमाम कथित मानवाधिकारवादियों को नजरंदाज करते हुए अबूझमाड़ में सीधे सेना भेज दी जाए एवं इस आतंकी गिरोह से भी 'लिट्टे' जैसे तरीके का इस्तेमाल कर इनको पस्त किया जाये तब नक्सलवाद महज कुछ महीनों का ही सबक साबित होगा। अन्यथा ऐसे ही निंदा-भर्त्सना करते रहिये। न देश में देशभक्त युवाओं की कमी है और न ही उन्हें अपने घर तक पहुंचाने के लिए ताबूतों की। पर इतना कम से कम समझिये कि बाहरी सांपों से ज्यादा खतरनाक आस्तीन में छिपे सांप होते हैं। इनके फन को जल्द से जल्द कुचल कर ही हम वास्तविक मानवाधिकार की रक्षा करने में सफल होंगे। अन्यथा वामपंथ समर्पित मानवाधिकार हमारे अच्छे दिन के सपनों को इसी तरह तोड़ता रहेगा । – पंकज कुमार झा

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