गीता का महाभारत
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गीता का महाभारत

by
Dec 13, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 13 Dec 2014 13:01:36

 

गीता राष्ट्रीय ग्रंथ हो या नहीं, अचानक छिड़ी इस बहस ने सेकुलर सोच की क्षुद्रता ही स्पष्ट की है। गीता के विरोध में लामबंद टोलियां इसके व्यापक अर्थ को पकड़ने में नाकाम नजर आती हैं।

प्रशांत बाजपेई

कृष्ण के मुख से रणक्षेत्र कुरुक्षेत्र में आज से 5151 वर्ष पूर्व उच्चरित गीता वह ग्रंथ है जो जीवन के सही अर्थ और लक्ष्य से परिचित कराता है। इसके उद्घोष का उत्सव मनाने को हुए कार्यक्रम में इसे राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग उठी। इस पर सनातन-विरोध पर सांस लेती आ रही सेकुलर बिरादरी का तलवारें खींच लेना उसकी सीमित सोच से परिचित कराता है। गीता किसी राजनीतिक विवाद का विषय हो ही नहीं सकती। भारत ही नहीं दुनियाभर में विचारकों ने इस ग्रंथ की वैज्ञानिकता और जीवन के हर क्षेत्र में उसकी सार्थकता का गान किया है। ऐसे में गीता को राजनीति से इतर मन के गवाक्ष खोलकर पढ़ना ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। राजनीति की दुकान चलाने वाले इसे बहस का विषय न बनाकर इसके मर्म को समझें तो उनका जीवन भी सार्थक हो जाएगा।
रणभूमि में किसी योद्घा की सभी ज्ञानंेद्रियां और कर्मेन्द्रियां पूरी त्वरा के साथ सक्रिय होती हैं। ये युद्घ की महिमा का बखान नहीं है, परन्तु युद्घ का आसन्न संकट मानव की क्षमताओं को जीवन और मरण की कसौटी पर कसता आया है। आज के जीवन के हजारों आविष्कार युद्घ की तैयारियों से जन्मे हैं। फिर युद्घ अगर महाभारत जैसा हो, अर्जुन जैसे योद्घा को विषाद हो और कृष्ण जैसा मार्गदर्शक हो, तो गीता का जन्म होता है।
गीता का जन्म मानव के इतिहास की एक अद्भुत घटना है जहां महाविनाश की कगार पर, एक दूसरे के खून के प्यासे दो विशाल योद्घा समूहों के बीच खड़े होकर आत्मा-परमात्मा, मन-बुद्घि, चित्त, अहंकार पर गहन चिंतन हुआ है। दो सखाओं के इस वार्तालाप में हर मानव के मन का द्वन्द्व उभरा है और उसका समाधान प्रकट हुआ है। कम या ज्यादा मात्रा में ऐसी परिस्थितियों से हर किसी को गुजरना पड़ता है। उन कठिन क्षणों में लिए गए निर्णय हमारे जीवन की दिशा तय करते हैं, और हमारी चेतना के सोपान तय होते हैं। गीता में मानव हृदय की पीड़ा, शांति की अथक खोज और आत्म तत्व की गहन शांति, सब कुछ समाया हुआ है। इसलिए गीता सबकी है, गीता सबके लिए है।
जिन्होंने भी गीता को थोड़ा बहुत पढ़ा है, उन्होंने अनुभव किया होगा कि गीता आपको कोई सांत्वना नहीं देती, कोई मन बहलाव उपलब्ध नहीं करवाती। गीता आपसे बहुत क्रियाशील जीवन की मांग करती है। यह जीवन का व्यावहारिक ज्ञान है, जहां हर श्लोक में आप सच की ध्वनि सुनते हैं। कभी कल-कल जैसी, कभी मेघ गर्जन जैसी तो कभी विस्फोट जैसी। कृष्ण आपसे कहते हैं, जहां खड़े हो वहीं से छलांग लगाओ। आप जैसे हैं, वे उसी तरह आपको स्वीकार करते हैं।
आप यदि भाव प्रधान व्यक्ति हैं, तो वे आपका हाथ थाम कर भाव समुद्र में उतर जाते हैं। यदि आप बुद्घि प्रधान व्यक्ति हैं, तो वे आपका हाथ पकड़कर ज्ञान मार्ग पर बढ़ जाते हैं। कर्मशील व्यक्ति को कर्म का मर्म समझाते हैं और जिज्ञासु को राजयोग की शिक्षा देते हैं, कि आओ स्वयं करके देखो और सत्य का पता लगाओ। अर्जुन पूछता जाता है, और कृष्ण अनंत धैर्य से बताते जाते हैं। गीता का यह पहलू इसे इक्कीसवीं सदी के लिए एकदम सटीक बनाता है। सारी धरती पर आज सबसे बड़ी मांग स्वतंत्रता ही है। स्वतंत्रता प्रश्न पूछने की, स्वतंत्रता अपना रास्ता चुनने की, स्वतंत्रता स्वयं को अभिव्यक्त करने की। मानव की नयी पीढ़ी सवाल कर रही है, और वह बिना आनाकानी के उत्तर चाहती है। गीता का समय आ गया है। संभवत: यह काव्य भविष्य को सर्वाधिक अपील करने जा रहा है, जितना इतिहास में कभी नहीं किया होगा।
इक्कीसवीं सदी में हमने महामारियों को नियंत्रित कर लिया है। ज्ञात इतिहास में यह सर्वाधिक सुविधायुक्त समय है, लेकिन नयी महामारियां हैं। ये मानसिक महामारियां हैं। इनमें से एक है – महत्वाकांक्षा। क्या हमने कभी सोचा है कि हम शिक्षा के नाम पर बच्चों को सहयोग के स्थान पर प्रतिस्पर्द्धा सिखाते हैं? कोई अपने काम, अपने स्थान से संतुष्ट नहीं है। कृष्ण कहते हैं, स्वयं को बदलो, मैदान मत बदलो। जहां हो वहीं पूर्णता से काम करो, अपने परिवेश को सुंदर बनाओ। इंसान की नयी पौध इस संदेश को अपनाने जा रही है, क्योंकि उकताहट के लक्षण हर ओर दिख रहे हैं। तनाव, कुंठा और आत्महत्याएं बीमारी नहीं हैं- बीमारी के चिह्न हैं। साफ है कि थाल में जो परोसा जा रहा है, उससे बेहतर की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। अज्ञान को ज्ञान से ही दूर किया जा सकता है इसीलिए एल्डस हक्सले जैसा दार्शनिक, जिसकी जीवनभर यही चिंता रही कि मानव समुदाय सामूहिक सम्मोहन की अवस्था में जी रहा है, और स्वार्थी तत्व इसका बदतर इस्तेमाल करने को तैयार बैठे हैं, गीता के बारे में कहता है – ''गीता सनातन दर्शन का सर्वाधिक स्पष्ट और व्यापक सारांश है, जो न केवल भारत बल्कि सारी मानवता का आधार है।'' हक्सले का यह कथन तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब अबू बकर अल बगदादी खूनखराबे और दरिंदगी के लिए निमंत्रण देता है, और दुनिया के हजारों युवा उसे अपना मजहबी कर्त्तव्य समझकर निदार्ेषों के गले रेतने चल पड़ते हैं। और उनकी प्रेरणा क्या है? 'जो हमारे मत को नहीं मानते उनका खून उलीचो और इनाम के रूप में उनकी स्त्रियों-बच्चियों का यौन शोषण करो। इतना ही नहीं, मृत्यु के बाद किसी काल्पनिक जगत में अनंत इंद्रिय सुख प्राप्त करो।'
मानव के पतन की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है? इन बंद दिमागों में पल रही गंदगी को तर्क और संदेह की झाडू़ की आवश्यकता है। काश कि वे सवाल करना सीखें। गीता कहती है, कि मानने से न होगा, सत्य को जानना होगा। उसके लिए अपने दोषों का परिष्कार करना होगा। साधना की आग में स्वयं को तपाना होगा। तब सत्य का दर्शन होगा। गीता निरंतर नये तलों पर गति करती है। गीता आगे कहती है, कि साधना का तुम्हारा मार्ग तुम्हारे लिए ही अच्छा है। उसे दूसरे पर मत थोपो। साधना स्वभाव पर निर्भर करती है। ये दो-तीन वाक्य ही समझे गए होते, तो रक्त से नहायी सदियां किसी दूसरे तरह की हो सकती थीं। यही कारण है, कि जीवनभर मानव के अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाला हेनरी डेविड थोरो कहता है – 'रोज सुबह मैं भगवद्गीता के विस्मयकारी दर्शन में स्नान करता हूं जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक संसार और उसका साहित्य अत्यंत छोटा और तुच्छ जान पड़ता है।' आज विज्ञान ने सदियों पुराने विश्वासों को हिला दिया है। तर्कशिक्षित मनों को चमत्कार कथाएं प्रभावित नहीं करतीं। अमरीकी भौतिक विज्ञानी जे़ रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने संस्कृत सीखी और गीता पढ़ी। गीता को उन्हांेने अपने ऊपर सर्वाधिक प्रभाव डालने वाली और जीवन दर्शन को आकार देने वाला काव्य कहा। इसीलिए जब ओपेनहाइमर के नेतृत्व में 1945 में मानव इतिहास का पहला परमाणु परीक्षण हुआ, तो उस विराट शक्ति की संभावनाओं को व्यक्त करने के लिए उन्हे गीता में वर्णित परमात्मा का विराट रूप याद आया।
मानव आज वहां पहुंच चुका है, जहां कोई भी समस्या किसी अकेले की नहीं रह गई है। नेपाल में पानी अधिक गिरे तो बिहार में बाढ़ आ जाती है। इराक में तेल कुएं जलें तो दुनिया के दूसरे भागों में अम्लीय वर्षा होती है। अफ्रीका में इबोला फैलता है, तो सारे देशों को अपनी सीमाओं की चिकित्सकीय निगरानी करनी पड़ती है। आज दुनिया को सबसे अधिक आवश्यकता है, समन्वय की। ऐसे में भगवद् गीता किसी भी काल की तुलना में कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो जाती है। जिसका जीवन ढल चुका है, उसे तो इसे पढ़ना ही चाहिए, लेकिन जो किशोर आगामी जीवन के लिए ऊर्जा जुटा रहा है, उसे भी गीता का लाभ मिल सके ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए। गीता सबकी है। गीता मानवमात्र का ग्रंथ है। इसे सांप्रदायिकता बनाम 'सेकुलरवाद' का प्रश्न बनाने वाले उत्तर देें कि गीता में संप्रदाय विशेष को संबोधित करके कहा गया श्लोक कौन सा है? गीता में तो मानवमात्र को ही संबोधित किया गया है। इसमें विवाद की जड़ ढूंढने वाले समाज और राष्ट्र के हितैषी नहीं कहे जा सकते। आने वाला समय ऐसे विवादों को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने को तैयार है। धर्म की स्थापना के लिए, दुष्चक्रों के विनाश के लिए विराट पुरुष आकार ले रहा है। शांत होकर सुनिए। कृष्ण के पाञ्चजन्य का शंखनाद सुनाई पड़ेगा। यह भारत का मूल स्वर है, भारत जाग रहा है।

गीता सनातन दर्शन का सर्वाधिक स्पष्ट और व्यापक सारांश है, जो न केवल भारत बल्कि सारी मानवता का आधार है। गीता कहती है, कि मानने से न होगा, सत्य को जानना होगा। उसके लिए अपने दोषों का परिष्कार करना होगा।

श्रीमद्भगवद्गीता हमारे धर्मग्रंथों का एक अत्यंत तेजस्वी और निर्मल हीरा है। भक्ति और ज्ञान का संयोग करा देने वाला और मनुष्य को शांति देकर उसे निष्काम कर्तव्य के आचरण में लगाने वाला गीता के समान बालबोध ग्रंथ समस्त संसार के साहित्य में भी नहीं मिल सकता। —बाल गंगाधर तिलक

हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा और कृष्ण के प्रमाण की गलत व्याख्या किए बिना भगवद्गीता की व्याख्या करना महान अपराध है। इस अपराध से बचने के लिए कृष्ण को भगवान रूप में समझना होगा जिस तरह से कृष्ण के प्रथम शिष्य अर्जुन ने उन्हें समझा था।
—ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद, कृष्ण भावनामृत आंदोलन के प्रवर्तक

श्रीभगवद्गीता के स्पष्ट ज्ञान से मानव अस्तित्व से जुड़े सभी लक्ष्य पूर्ण होते हैं। गीता वैदिक ऋचाओं की शिक्षा का गंुथा हुआ घोषणापत्र है।
— आदि शंकराचार्य

लोकमान्य तिलक द्वारा रचित गीता रहस्य का विषय जो श्रीमद्भगवद्गीता है वह भारतीय आध्यात्मिकता का परिपक्व समुधुर फल है। मानवी श्रम, जीवन और कर्म की महिमा का उपदेश अपनी अधिकारवाणी से देकर सच्चे अध्यात्म का सनातन संदेश गीता दे रही है जो कि आधुनिक काल के ध्येयवाद के लिए आवश्यक है। —श्री अरविन्द घोष

आज के जीवन के हजारों आविष्कार युद्घ की तैयारियों से जन्मे हैं। फिर युद्घ अगर महाभारत जैसा हो, अर्जुन जैसे योद्घा को विषाद हो और कृष्ण जैसा मार्गदर्शक हो, तो गीता का जन्म होता है।

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