फिल्म 'दुख्तर' पाकिस्तानी समाज के मुंह पर करारा तमाचा
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फिल्म 'दुख्तर' पाकिस्तानी समाज के मुंह पर करारा तमाचा

by
Nov 29, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 29 Nov 2014 14:11:20

-मुजफ्फर हुसैन
पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब मलाला के लिए नोबल पुरस्कार की घोषणा हुई तो पाकिस्तान के मजहबी जुनूनी समाज में कोहराम मच गया। अभी इस घटना की चर्चा थमी भी नहीं थी कि पाकिस्तान की महिलाओं के संबंध में बनाई गई एक फिल्म ने फिर से पाकिस्तान में महिलाओं की बदतरस्थिति पर अनेक सवाल खड़े कर दिये? भारतीय उपखंड का देश होने के कारण पाकिस्तान की महिलाओं का स्वभाव हमेशा प्रगतिशील और क्रांतिकारी रहा है। इसलिए पाकिस्तान के निर्माण के समय यदि जिन्ना की बहन फातेमा ने और लियाकत खान की पत्नी राना ने समाज को प्रगतिशील बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो उसके पश्चात बेनजीर भुट्टो ने वहां के तानाशाहों के दांत खट्टे कर दिये। इसी परम्परा की वाहक बनी मलाला, जिसने छोटी आयु में ही वहां लड़कियों की शिक्षा के लिए अपना अदम्य उत्साह बतलाया। उसने जो कष्ट उठाए और आतंकवादियों की आंखों में आंखें डालकर अपने आन्दोलन को आगे बढ़ाया तो सारी दुनिया ने उसकी पीठ थपथपाई। जिसके परिणामस्वरूप इस वर्ष उसे भारत में बचपन बचाओ आंदोलन के प्रमुख कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। पाकिस्तान का बुर्जुआ समाज अभी तो इस समाचार से घायल था ही कि एक फिल्म ने पाकिस्तान को फिर से आईना दिखाकर कह दिया कि तुम्हारे यहां बेटी कितनी दु:खी है? अब ये दु:ख खतरे की सीमा के बाहर पहुंच गए हैं। पाकिस्तान की महिलाओं की दुर्दशा को व्यक्त करने वाली यह फिल्म इस बार अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर दस्तक बनकर पाकिस्तान के राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों को यह कह रही है कि स्थिति अब बद से बदतर हो गई है। पाकिस्तान खतरे में है यह नारा लगाने वाले पाकिस्तानी पहले अपने कामकाज की सुध लें जहां पाकिस्तान की बेटी खतरे में है। जिस देश की मां खतरे में होती है फिर उसे बचाने के लिए खुदा भी धरती पर आ जाए तब भी वह देश जीवित नहीं रह सकता है। मादरे वतन की शपथ लेने वाले राजनीतिज्ञों ने पाकिस्तानी समाज को कहां पहुंचा दिया है उसका मार्मिक विवरण प्रस्तुत करने वाली यह फिल्म पाकिस्तान के लिए चुनौती बन गई है। पाकिस्तान के टीवी और समाचार पत्रों में इस पर खूब चर्चा हो रही है। पिछले सितम्बर में प्रदर्शित हुई इस फिल्म ने पाकिस्तान के महिला जगत के संबंध में अनेक प्रश्न उठाए हैं। फिल्म का नाम दुख्तर दिया गया है। पाठक भली प्रकार जानते हैं कि फारसी भाषा में दुख्तर पुत्री को कहा जाता है। अब तक यह फिल्म जहां कहीं विदेश में गई है उसने अनेक पुरस्कार बटोरे हैं। महिला जगत में यह इतनी चर्चित हुई है कि ऑस्कर अवार्ड के अंतर्गत इस पर विचार होना ही था। पुरस्कार समिति ने इसे हरी झंडी देकर यह कहा है कि महिला जगत को झकझोर देने वाली इस फिल्म से बेहतर इस वर्ष कोई अन्य फिल्म नहीं हो सकती थी।
दुख्तर को कनाडा के टोरंटो फिल्म समारोह में जब पहली बार देखा गया तो सबने एक स्वर में कहा इससे बढ़कर इस वर्ष की कोई अच्छी और प्रभावशाली फिल्म हो ही नहीं सकती थी। लंदन के फिल्म समारोह में भी इसने अपनी लोकप्रियता के झंडे गाड़ दिये। अब यह ऑस्कर 2015 की सबसे अच्छी और कलात्मक फिल्म होने के साथ-साथ मानवीय संवेदना को व्यक्त करने वाली फिल्म की श्रेणी में आती है। इस फिल्म को जिस देश में प्रदर्शित किया गया वहां उसने पुरस्कार प्राप्त किया है। उक्त फिल्म का केन्द्रीय भाव जबरन बाल विवाह कर दिये जाने पर है।
इस फिल्म के मुख्य पात्र एक मां और उसकी 13 साल की बेटी है। भारतीय उपखंड के कबीलों में छोटी आयु की लड़की का विवाह किसी भी बूढ़े खूंसट से कर देने की परम्परा रही है। उसका परिवार इसे पसंद करे या न करे लेकिन उसका कबीला, जाति अथवा तो समाज के प्रभावशाली लोग इस प्रकार के आयोजन में आगे-आगे रहते हैं। चार पैसे से सुखी किसी भी बूढ़े की पत्नी के मरते ही उसके लिए दूसरी पत्नी की तलाश शुरू हो जाती है। यहां भी फिल्म की कथा कुछ इसी प्रकार की है। एक 60 साल का बूढ़ा जब विधुर हो जाता है तो उसकी शादी के चक्र गतिमान हो जाते हैं। आसपास के कबीले में कोई भी छोटी या बड़ी लड़की हो उसपर नजर पड़ती है और बस फिर उसके माता-पिता तक पैगाम पहुंचाकर इस काम को पूरा कर दिया
जाता है।
समाज के छोटे और गरीब लोग न तो पैसे वाले वृद्ध के सामने और न ही अपने समाज अथवा तो बिरादरी के सामने मुंह खोल सकते हैं। समाज के ठेकेदार एकत्रित हो जाते हैं और बूढ़े का ब्याह रच दिया जाता है। 13 साल की वह लड़की और उसकी विधवा मां इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन उन बेचारे गरीबों का क्या साहस कि समाज के इन ठेकेदारों का सामना कर सकें। मां और बेटी गांव वाले पंचों के सामने बेबस हैं। किसी समय उस मां की शादी भी इसी प्रकार के खूसट से कर दी गई थी। तब वह लड़की को झूला झुलाते हुए कहा करती थी कि परदेस से कोई युवा दूल्हा आए, ऐसी मैं अपने परवरदिगार से दुआएं करूंगी और कहूंगी कि ऐ मजबूर औरत की रचना करने वाले तुझसे मेरी प्रार्थना है कि मेरी इस बेटी के लिए तू सोने चांदी से लाद देने वाले दूल्हे को मत भेजना, बस इस दुखियारी मां की तो यही दुआ है कि इसे तू हमउम्र यानी उसकी ही आयु का कोई स्वस्थ दूल्हा देना। लेकिन आज फिर वही दृश्य तो देख रही है।
गांव के ठेकेदार और मोहल्ले के चौधरी फिर उसकी नन्हीं बेटी के लिए 60 वर्ष का बूढ़ा खूंसट  लेकर आ गए…? क्या करूं मेरे परवरदिगार बस तू ही हिम्मत दे और कोई रास्ता बतला। मां में न जाने कहां से हिम्मत आ गई उसने दृढ़ निश्चय किया कि इस बूढ़े के हाथों में अपनी लाडली का मेंहदी लगा हाथ नहीं दूंगी- नहीं दूंगी, कदापि नहीं दूंगी। मां का दुपट्टा आंसुओं से भीग गया और अपनी बेटी को छाती से लगा लिया… उसने क्षण भर में निर्णय कर लिया, अभी तो रात का अंधेरा है, वह उठी और अपनी लाडली को लेकर घर से भाग निकली। उस बस्ती को छोड़ दिया जहां उसकी बेटी की जवानी का सौदा होने वाला था।
सवेरे का सूर्य उदय हुआ तो बूढ़ा दूल्हा और समाज के ठेकेदार हाथ मलते रह गए। फिल्म अनेक टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों से गुजरती है। हर क्षण दर्शक की आंखें भीग जाती है। समझ में नहीं आता है कि पाकिस्तानी सिनेमा का दर्शक रो रहा था या फिर आजीवन पाश्चात्य शैली का जीवन व्यतीत करने वाले पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना रो रहे थे।
पाकिस्तान मजहब के नाम पर बन तो गया लेकिन पाकिस्तानी बुर्जुआ समाज का देश बन गया। इस प्रकार की घटनाओं को सजीव बनाकर पर्दे पर उतारने वाली यह पहली फिल्म नहीं है। 2012 में 'सेविंग फेस' नामक फिल्म एसिड अटैक पीडि़ताओं पर बनी थी। 'जिंदा भाग' फिल्म भी महिलाओं के दुखों को स्पष्ट करने वाली एक हृदयविदारक फिल्म थी। पाकिस्तानी समाज की कथा और व्यथा को फिल्में व्यक्त कर रही हैं लेकिन उसके नेता और पाकिस्तान के भाग्यविधाता अपनी बेटियों के लिए कितने कठोर हैं और बुर्जुआ समाज के आगे कितने लाचार? क्या पाकिस्तान इन कष्टों से मुक्त होगा? पाकिस्तान को बनाया भले ही किसी पुरुष ने होगा लेकिन अब हालात यह कह रहे हैं कि उसके तम्बू में अंतिम कील ठोंकने वाली कोई हव्वा की ही बेटी होगी। ल्ल

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