पाकिस्तानी जनता की करुण कहानी
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वर्ष: 9 अंक: 25 , 02 जनवरी,1956
पाञ्चजन्य के पन्नों से
एक सुशिक्षित पाकिस्तानी की जुबानी
दिनांक 14 दिसम्बर को पाकिस्तान में स्थित भारतीय हाई कमिश्नर श्री देसाई ने बम्बई में भाषण करते हुए कहा कि 'यदि हम अपनी सीमाएं खुली छोड़ दें तो पाकिस्तान के पचास प्रतिशत निवासी यहां आने का प्रयास करेंगे। इस एक बात से आप वहां के बारे में जो अनुमान लगा सकें लगाएं। एक तरफ सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों के दांव-पेचों का परिचय प्राप्त करने और दूसरी ओर सर्वसाधारण पाकिस्तानी जनता को वर्तमान दयनीय स्थिति की एक झलक श्री देसाई के उपर्युक्त उद्गारों द्वारा प्रात्त होने के बाद भी वहां की वास्तविक स्थिति की यथार्थ कल्पना भारत में बैठे-बैठे कर लेना अत्यन्त कठिन है। वास्तविकता कितनी भीषण है इसका करुणाजनक चित्र एक उच्चविद्याभूषित पाकिस्तानी परिचित के पत्र में देखा जा सकता है। पत्र का कुछ भाग यहां विशेष रूप से उद्धृत किया जा रहा है:-
भारत माता के यह कृतघ्न पुत्र!
सर्वसाधारण पाकिस्तानी नागरिक को इस समय सर्वत्र गहन अंधकार प्रतीत हो रहा है,और उसकी यह भावना गलत नहीं है। काश विभाजन के पूर्व ही यदि उसने इस बात का विचार किया होता। बेकारी,अज्ञान और असीम दारिद्रय की भीषण समस्याओं से हम इस समय बुरी तरह घिरे हुए हैं,परन्तु हमारे शासक न जाने कौन सा प्रश्न हल करने में व्यस्त हैं?
हमारी आंखों के सामने अर्थात् गरीब,अज्ञानी व असह्य पाकिस्तानी जनता की आंखों के सामने,पाकिस्तान की भूमि अमरीका और रूस के बीच होनेवाले संघर्ष की युद्धभमि बनती जा रही है,और इस युद्धाग्नि की आहुति होगी,पाकिस्तानी सत्ताधारियों द्वारा फैलाई गई,पैरों तले कुचली गई और भाग्य के भरोसे छोड़ी हुई आम पाकिस्तानी जनता। भारतमाता के ये कृतघ्न पुत्र जानबूझकर आत्मनाश के लिए प्रवृत्त हुए हैं। इसके लिए उसके पास उपाय भी क्या है?
भारतवासियों को पाकिस्तान की दशा पर कोई सहानभूति नहीं है,इसके विपरीत सब पाकिस्तानियों को अपने ही हाथों नष्ट होता हुआ देखकर भारतवासियों को समाधान प्राप्त होना अत्यन्त स्वाभाविक है। परन्तु विभाजन और विभाजन के पश्चात से पाकिस्तानी मुसलमानों में कितना जमीन-आसमान का अन्तर आ गया है यह अन्तर प्रत्यक्ष आखों से नहीं दीख सकता और कानों से भी नहीं सुना जा सकता। सीधे-साधे पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में भी यह अन्तर स्पष्ट नहीं होगा और सरकारी दबाव में भींगी बिल्ली बने हुए वृत्त-पत्रों की सृष्टि में भी यह अन्तर स्पष्ट रूप से नहीं दिख सकता। परन्तु यह अन्तर आंखों में दिख सकता है। भारत से आए हुए किसी हिन्दू की ओर अतृप्त नेत्रों से देखती हुई पाकिस्तानी नजरों में दीख सकती है। उन नजरों में ऐसा लगेगा कि मानों वो कह रही हों कि हम भी कुछ वर्ष पूर्व तुम्हारी तरह ही मानव थे,आज यदि हम तुम्हारे साथ होते तो हमें भी यह रूप मिला होता। सारे जग की ओर से होने वाले तुम्हारे- मान सम्मान में हम भी साझीदार हो सकते। हमने भी तुम्हारी तरह सरेआम शाही का जुंआ उठाकर फेंक दिया होता और न्यायालय में या वृत्तातों में सरकार से किसी प्रश्न का जवाब पूछ सकने का साहस किया होता।
हृदय दहलानेवाले कुछ बोलते आंकड़े
नई दिल्ली। भारतवर्ष में आज ईसाई मिशनरियों का संकट दिन प्रतिदिन कितना उग्र स्वरूप धारण करता जा रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। जिस प्रकार से एक समय हिन्दू समाज के लिए मुसलमानों की ओर से अत्यधिक संकट उत्पन्न हो गया था और हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के योजनाबद्ध तथा व्यापक कुचक्र किए जाते थे। ठीक उसी प्रकार से गत कुछ दशकों से हिन्दुओं को ईसाई बनाने के शीघ्रगामी तथा योजनाबद्ध प्रयत्न चल रहे हैं। यह अनुमान नहीं वास्तविकता है जिसका हिन्दू समाज तथा हिन्दू राष्ट्र को सावधानी तथा साहस के साथ सामना करना होगा। नीचे हम ईसाइयों के इस देश व्यापी कुचक्र के बोलते हुए आंकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं:-
बिहार : यहां सन् 1921 में ईसाइयों की संख्या 2 लाख थी। सन् 31में 3 लाख 32 हजार हो गई। सन् 41 में यह संख्या 3 लाख 78 हजार हो गईं और सन् 1951 में 4 लाख 22 हजार।
उत्कल : यहां सन् 1931 में ईसाइयों की संख्या 69 हजार थी किन्तु 1951 में वह बढ़ते -बढ़ते 1 लाख 41 हजार तक पहुंच गई।
असम: यहां सन् 1941 में ईसाइयों की संख्या 3 लाख 56 हजार थी किन्तु 1951 में वह बढ़कर 5 लाख 86 हजार हो गई।
डोंगरी : इस विभाग में सन् 1941 में ईसाई 2 लाख 40 हजार थे और सन् 1951 में वे 4 लाख 38 हजार हो गए।
मनीपुर: 1941 में यहां ईसाइयों की संख्या केवल 2500 थी,सन 1951 में वह 69 हजार हो गई।
त्रावणकोर: यहां ईसाई संख्या का प्रतिशत अब 23 से बढ़कर 32 हो गया है।
मध्यप्रदेश : सन् 1901 में यहां 27000 ईसाई थे और 1951 में वे 73000 हो गये।
हैदराबाद: यहां 1901 से 1951 तक ईसाइयों की संख्या 100 पर 11.5 के हिसाब से बढ़ी।
मद्रास: यहां 1851 में 74000 ईसाई थे 1900 में वे 5 लाख 6 हजार हो गए।
उत्तरप्रदेश: यहां 1861 में ईसाइयों की संख्या केवल 1700 थी किन्तु 1900 तक वह एक लाख आठ हजार तक हो चुकी थी। अब इधर कई लाख हो गई है।
ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जानेवाले व्यापक तथा योजनाबद्ध धर्मपरिवर्तन के कुचक्र को समझने में ऊपर के आकड़े हमारी कुछ सहायता करते हैं। वैसे इस समय यह संकट इतना बड़ा है कि इन आकड़ों से भी बिल्कुल ही वास्तविकता का पता नहीं लग सकता क्योंकि ये आंकड़े बिल्कुल अद्यतन नहीं है।…
दिशाबोध
कंधे से कंधा मिलाकर चलें: श्री गुरुजी
हमारे कार्य की रचना अति उत्तम तथा श्रेष्ठ है। यहां छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं है। स्वयंसेवक के रूप में राष्ट्र की सेवा करने के लिए सबको कंधे से कंधा तथा कदम से कदम मिलाकर ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना है। यह मेरा राष्ट्र है-इस प्रकार की निष्ठा लेकर,उसकी रचना एवं सूचना के अनुसार कार्य करने के लिए आगे बढ़ें। इससे ही राष्ट्र में स्थायी और दृढ़ सामर्थ्य का निर्माण होगा। (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 2 ,पृष्ठ 148)
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