गांवों की 'आदर्श' कसौटी
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विनोबा चाहते थे कि घर-परिवार की तरह गांव भी एक परिवार जैसा हो। जयप्रकाश नारायण ने सहभागी लोकतंत्र की परिकल्पना रखी थी। लोहिया ने केन्द्र, राज्य, स्थानीय निकाय और ग्राम सभा को चार खंभे मानकर चौखंभा विकास की अवधारणा सामने रखी थी।
अगर संसद के करीब आठ सौ सांसद 2019 तक तीन गांवों को आदर्श बनाने में सफल होते हैं, तो देश के मानचित्र पर ऐसे 2400 गांव उभरेंगेे जिन पर हमें गर्व होगा। कमजोर गांव की नींव पर मजबूत भारत खड़ा नहीं हो सकता।
— प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोद
देश की 70 फीसद आबादी गांवों में रहती है जबकि सकल घरेलू उत्पाद में खेती का योगदान सिर्फ 19 प्रतिशत है
देश में कुल 7 लाख गांव और 265000 ग्राम पंचायतें हैं।
योजना के तहत गांवों का चयन सांसद खुद करेंगे
दिल्ली के गोपालपुर, पुराना चंद्रावल और वजीराबाद जैसे दर्जनों गांवों में योजना पर काम शुरू हो चुका है
अरुण तिवारी
ल ही में भारत की सत्ता की कमान संभालने वाली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने भारत की तीन विभूतियों के नामों पर तीन महत्वपूर्ण योजनाओं का श्रीगणेश किया है। ये तीन महापुरुष हैं पंडित दीनदयाल उपाध्याय, महात्मा गांधी और जे.पी. यानी जयप्रकाश नारायण; तथा योजनाएं हैं क्रमश: 25 सितम्बर को 'मेक इन इंडिया', दो अक्तूबर को 'स्वच्छ भारत' और 11 अक्तूबर को 'सांसद आदर्श ग्राम' योजना। इन योजनाओं को सिक्के के दो पहलुओं की तरह दो आयामों पर आंका जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे अच्छी राजनीति की शुरुआत कहा, पर विरोधी इसे प्रतीक पुरुषों का राजनैतिक इस्तेमाल और दिखावटी बोल कह रहे हैं। वे इसे देश के समक्ष चुनौती बनकर खड़े महंगाई, भ्रष्टाचार, काला धन वापसी, पर्यावरण, सम्प्रदायवाद, आतंकवाद, सीमा और बुनियादी ढांचे के विकास के जैसे बड़े बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाने की राजनैतिक कोशिश भी कह सकते हैं। लेकिन ये निवेश की लालसा से उपजा शगूफा नहीं है। इसके पीछे कई तर्क दिए जा सकते हैं जिसके लिए भारत की मौजूदा परिस्थितियों पर नजर डालना जरूरी है। आज भारत आर्थिक साम्राज्यवाद के जिस बाजार की गिरफ्त में है, वहां आदर्शों का मोलभाव सट्टेबाजों की बोलियों की तरह होता है। ऐसे में पहले आर्थिक साम्राज्यवाद से बाहर निकलकर, आदर्श राष्ट्रवाद को जमीन पर उतारे जाने की जरूरत है। आदर्श ग्राम की बात करने से पहले ये बेहद जरूरी कदम है। महज विचारों को आगे बढ़ाने से योजना और उससे ग्रामवासियों का कुछ भला नहीं होगा। योजना के सकारात्मक परिणाम पाने के लिए सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर करना ही होगा।
इसमें संदेह नहीं है कि आज तक सांसद निधि का कुछ ही अंश इस्तेमाल करके बाकी को यूं ही धरा रखकर या इतर मदों पर खर्च करने की एक परिपाटी चल निकली थी; लेकिन आदर्श ग्राम योजना सांसदों को कुछ भिन्न करने और दिखने का एक मौका प्रदान करेगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। जनप्रतिनिधि आगे बढ़ंे तो जनता भी इस योजना में कदम से कदम मिलाकर चलेगी। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां जनता ने अपने जनप्रतिनिधि के जनहित कार्यक्रमों में अपना पूरा सहयोग दिया है।
वक्त बदल गया है इसलिए अपेक्षा की जा रही है कि नई सरकार के अधीन संसद, जो खुद आज तक आदर्श सांसदों का गांव नहीं बन पाई थी, उसके सांसद आदर्श ग्राम योजना में प्रस्तावित मूल्यों की स्थापना की पहल करेंगे। वे सांसद जिनके बारे में एक आम धारणा थी कि वे खुद सामाजिक न्याय, स्वानुशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही के मानकों पर कभी खरे नहीं उतरते, वे अब आगे आकर इस योजना के प्रति उत्साह दिखा रहे हैं।
यह योजना सिर्फ पैसे की सफाई साबित न हो, इसलिए इस योजना को सिर्फ ढांचागत विकास तक सीमित नहीं रखा गया है। अपने पूरे शरीर की साफ-सफाई से लेकर आस पास के सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता, व्यायाम, योग, खेल जैसी छोटी-छोटी गतिविधियांे को भी इसमें शामिल किया गया है। ये गतिविधियां बेशक स्वावलंबन लायेंगी। 'सांसद आदर्श ग्राम योजना' में शामिल लैंगिक समानता, महिला सुरक्षा, सामाजिक न्याय, उत्थान, शांति, सौहार्द, साफ-सफाई और पर्यावरण की बेहतरी के अपेक्षित मानकों की जरूरत को नकारा नहीं जा सकता। सार्वजनिक जीवन में सहयोग, आत्मनिर्भरता, स्वानुशासन, पारदर्शिता तथा जवाबदेही जैसे मूल्यों को सुनिश्चित करने जैसी शतेंर् इस योजना की सफलता की मानक होंगी। इन मूल्यों और इन्हें लागू करने की जिम्मेदारी सांसदों पर डालने का विचार ही इस योजना को अंबेदकर ग्राम, लोहिया ग्राम और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 23 जुलाई, 2010 को शुरू की गई प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना जैसी कागजी योजनाओं से भिन्न बनाता है। सांसद आदर्श ग्राम योजना जात-पात तथा अमीरी-गरीबी के आधार पर विभेद नहीं करती और यह योजना भी पूरी तरह सांसदों की ईमानदारी पर निर्भर करेगी। इस दृष्टि से सांसद आदर्श ग्राम योजना को सांसदों के आदर्श की परीक्षा की पहल भी कह सकते हैं।
भारत के गांव की मूल अवधारणा, भिन्न जाति-पंथ-वर्ण-वर्ग के होते हुए भी यह सब न होकर एकीकृत समुदाय के भाव पर टिकी थी। समुदाय की भारतीय परिकल्पना दो सांस्कृतिक बुनियादों पर टिकी है: 'सहजीवन' और 'सहअस्तित्व'। यह बुनियाद जीवन विकास संबंधी डार्विन के उस वैज्ञानिक सिद्घांत को पुष्ट करती है, जो परिस्थिति के प्रतिकूल रहने पर मिट जाने और अनुकूल तथा सक्रिय रहने पर विकसित होने की बात कहता है। एक तरह से समुदाय हो जाना ही विविधता में एकता है। समुदाय होकर ही भारत का गांव समाज सदियों तक विषम परिस्थितियों में भी टिका रहा। संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार: ये किसी भी समुदाय के संचालन के पांच सूत्र होते हैं। इन पांच सूत्रों को सुचारु बनाकर ही गांवों की खोई मूल शक्ति लौटाई जा सकती है। गांव की मूल शक्ति है शुद्घता, स्वावलंबन, सामाजिक जीवंतता और कम से कम बाहरी दखल। इसके दूसरी ओर, गांवों के सामने मूल चुनौतियां हैं चुनाव जीतने के एकमेव लक्ष्य वाली वर्तमान राजनीति, बाजार और कानून की बढ़ती दखल। इसका समाधान हो सकता है, बाजार की जगह अपना पानी, अपना खेत, अपनी मेड़, अपनी रोटी, अपनी बोली, अपना वेष; कानून के दखल की जगह सही मायने में अपनी ग्रामसभा, अपनी पंचायत और चुनाव की जगह सर्वसम्मति। इस बिंंदु पर आदर्श ग्राम का गांधी विचार, प्रत्येक गांव को एक पूर्ण गणराज्य के रूप में देखता था। नेहरू लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण चाहते थे। राजीव गांधी ने संविधान के 73वें संशोधन के जरिए सत्ता सीधे गांव के हाथ में सौंपने का सपना दिखाया था। विनोबा गांव को गोकुल बनाना चाहते थे। विनोबा चाहते थे कि घर-परिवार की तरह गांव भी एक परिवार जैसा हो। जयप्रकाश नारायण ने सहभागी लोकतंत्र की परिकल्पना की थी। लोहिया ने केन्द्र, राज्य, स्थानीय निकाय और ग्राम सभा को चार खंभे मानकर चौखंभा विकास की अवधारणा सामने रखी थी।
सांसद आदर्श गांव की इस परिकल्पना में कुछ जोड़ने-घटाने से पहले देखना होगा कि आज हमें खेल के मैदान से ज्यादा जरूरत चारागाह की है। आज गांव के हर व्यक्ति पर एक मवेशी की जरूरत है, लेकिन असल में है सात व्यक्तियों पर एक मवेशी का अनुपात। मवेशियों की पर्याप्त संख्या अकाल में आत्महत्या रोक सकती है। चारा होगा तो खेतों को खाद मिलेगी। उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ेगी और गांव की सेहत भी। अत: आदर्श गांव की परिकल्पना में अच्छे मवेशी, अच्छा पानी, अच्छी खेती और अच्छे बीज को भी शामिल करना होगा।
भारत में प्राथमिक विद्यालयांे में एक चौथाई अध्यापक अनुपस्थित रहते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बिना डॉक्टर, नसोंर् के चलते हैं। आदर्श ग्राम वह माना जायेगा, जहां अध्यापक/डॉक्टर/ ग्राम सेवक पूरा समय आयें भी और अपनी जिम्मेदारी निभायें भी। योजना का लक्ष्य होना चाहिए- गांव के सभी बच्चे पढ़ें, कोई बेरोजगार न हो, सभी को कुछ न कुछ हुनर आता हो। गांव मंे कोई मुकदमा न हो, कोई नशा न करता हो, कोई साहूकार का कर्जदार न हो। ग्रामसभा व पंचायत अपने अधिकार और कर्तव्य की पूरी पालना करते हों। केन्द्र व राज्य की योजनाओं का पूरा लाभ प्रत्येक लाभार्थी को मिलता हो। जिस गांव का निवासी अपने काम के लिए न खुद घूस देता हो और न ही प्रधान, पंच, कोटेदार और ग्रामसेवक को घूस खाने देता हो।
गांधी ने तत्कालीन सात लाख गांवों की अर्थ-रचना को सामने रखते हुए स्पष्ट चेतावनी दी थी -यदि ग्रामोद्योगों का लोप हो गया, तो भारत के सात लाख गांवों का सर्वनाश हो गया समझिए। वह तोे ढांचागत निर्माण हेतु गांव के पांच किलोमीटर के भीतर उपलब्ध सामग्री का ही उपयोग करने की बात करते थे। इसमें संदेह नहीं कि गांवों में पहुंची दूसरी बुराइयों की बड़ी वजह खेती कटाई-बिजाई का समय छोङ़ काम का न होना है। 'मनरेगा' एक वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर बनाई योजना थी अत: उससे वे परिणाम नहीं निकले जिनके नगाड़े पीटे गए थे। ग्रामोद्योग ही इस कमी की पूर्ति कर सकते हैं। अत: हर गांव में ग्रामोद्योग की रक्षा और विकास को आदर्श ग्राम का मानक बनना ही चाहिए।
गौर करें कि अभी 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का देश होने के बावजूद खेती का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान मात्र 19 प्रतिशत है। निर्माण उद्योग का योगदान 55 प्रतिशत है। मोदी इसे और बढ़ाने की बात कह रहे हैं। यदि यह योगदान सिर्फ विदेशी निवेश और शहरी उद्योगांे के जरिए बढ़ाने की कोशिश की गई, तो गांवों का गांव बने रहना ही मुश्किल होगा। आदर्श ग्राम योजना के जरिए भारत के गांवों को उस नए फलक की ओर ले जाने का संकल्प लिया गया है जिसका सपना गांधी जी देखा करते थे और कहा भी करते थे-भारत की आत्मा गांवों में बसती है।
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