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अपनी बात : खुनक तो है बयार में…

by
Nov 1, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Nov 2014 11:29:14

कुछ तो हुआ है देश में, जो पहले नहीं था। कुछ ऐसा जिससे मानो जीवंतता आ गई हो समाज जीवन में। हर नागरिक में जैसे एक उत्साह जगा हो आगे बढ़कर कुछ अच्छा करने का, बढ़ते भारत में अपना, भले गिलहरी की मानिंद, कुछ योगदान देने का। कहीं से तो उभरी है एक चमकती रेखा जिसने एक नया उजास, एक नई स्फूर्ति जगा दी है समाज के हर क्षेत्र में। हर एक को दिल के किसी कोने में यह अहसास जगा मालूम देता है कि हां, मैं इस देश का नागरिक हूं, मेरे कुछ अधिकार हैं तो कुछ कर्तव्य भी हैं; मुझे तरक्की चाहिए तो वह देश की तरक्की से ही मिल सकती है; मेरे देश की भलाई का जिम्मा मेरे कंधों पर भी है; मेरे देश की अस्मिता की रक्षा मेरा भी धर्म है।
भारत में इस नए पैदा हुए उत्साह की तुलना जरा 16 मई, 2014 से पहलेके वक्त से कर देखिए। फर्क पाएंगे। एक बड़ा फर्क। तब लगता था, या कहें लगाया जाता था कि, दिल्ली ही सब कुछ है। और दिल्ली भी क्यों, रायसीना पहाड़ी पर बैठा उस वक्त का सत्ता-अधिष्ठान ही 'हुजूरेआला' है। लेकिन ठसक उतने पर ही नहीं रुकती थी, और जैसा कई मौकों पर और कई वादों-मुकदमों में से छनकर आया, असली सत्ता 10, जनपथ में थी। आलाकमान। सरकारी फाइलों पर हरी या लाल झंडी चस्पाने का एकमात्र ठौर। देश के नागरिक की बिसात ही क्या थी तब। कोई सुनने वाला न था, सुनी जाती थी तो बस रसूखदारों की। सरकार के नाम पर एक बड़ा शून्य था, एक खालीपन, जिसमें हर एक शिकायत, हर एक दरख्वास्त, हर एक आह जाकर गुम हो जाती थी। काम के नाम पर कोरे कागजी घोड़े दौड़ते थे और मीडिया के एक वर्ग को 'संतुष्ट'करके वाहवाही कराने की नाकाम कोशिशें की जाती थीं। 'मनरेगा' हो या कुछ और। सत्ता के शीर्ष पर बैठे ज्यादातर नेताओं ने जब भ्रष्टाचार की वेदी पर खुद की आबरू की चिंता नहीं की, तो देश और देशवासियों के स्वाभिमान की परवाह भला क्यूं करते। बेरोजगारी से कराहते नौजवान, भूख से कुलबुलाते बच्चे,दो जून रोटी को तरसते गरीब-गुरबे, खेती के लिए दाना डालने के बाद सिंचाई के वक्त आसमान की ओर टुकुर-टुकुर निहारते हमारे अन्नदाता किसान; सब ही तो त्रस्त थे! करेले तब और नीम चढ़ा हो जाता था जब पता चलता था कि सुनने वाला कोई नहीं। दिल्ली में बैठी सरकार अपने पचड़ों में ही उलझी थी, फुर्सत कहां थी तब किसी मंतरी से संतरी तक को। आलाकमान को कोर्निश करते-करते रीढ़ ही कहां बची थी।
लेकिन लोकतंत्र को छलना आसान नहीं होता! वक्त बदला। लोकतंत्र ने अपना करिश्मा दिखाया। जनता को सब याद था। बदलाव को कसमसाते भारत के जन-मन ने भर-भर जनादेश दिया कि बदलो अब उन भ्रष्टाचारी, अकर्मण्य, स्वाभिमान-शून्य जनप्रतिनिधियों को और आने दो अभारत को भारत बनाने की गंभीर कोशिश करने वालों को, जो सही मायनों में देश के लिए काम करें, जो दर्द को सिर्फ समझें ही नहीं, उसे दूर करने के लिए जूझें भी। और लोकतंत्र में वोट की ताकत सबसे बड़ी होती है। पिछली सरकार यानी संप्रग सरकार के 10 साल के शासन में उसके नेताओं में गुरूर इस कदर हावी था कि वे वोट के जरिए मतदाता की यानी भारत के आम नागरिक की ताकत को भूल गए। भूल का सबक मिला। नई सरकार आई। और आते ही एक-एक करके अपने तमाम वायदों को अमलीजामा पहनाने में रात-दिन एक कर दिया।
इसीलिए अब, हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में जैसा जनादेश आया और जिस तरह उन राज्यों के नागरिकों ने भाजपा को एक बार फिर भर-भर वोट दि

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