|
देवेन्द्र स्वरूप
दीपावली का पर्व आ रहा है। यह पर्व लक्ष्मी पूजन के द्वारा समृद्धि का सपना देता है। लक्ष्मी का स्वागत गंदे घर में नहीं हो सकता इसलिए दीपावली के पहले प्रत्येक घर में स्वच्छता अभियान चलता है। घर के कोने-कोने की साफ सफाई, रंग-रोगन किया जाता है। शायद यही चिर-पुरातन सपना है जो पिछले चार महीनों में परोसा जा रहा है। किंतु उसके प्रतीक नाम मेरे लिए बिल्कुल नये हैं-डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटीज (अभी तक इनके हिन्दी पर्याय मैं खोज नहीं पाया हूं), सांसद आदर्श ग्राम योजना, स्वच्छ भारत और श्रमेव जयते। इन सभी योजनाओं को किसी न किसी आधुनिक काल के महापुरुष से जोड़ा गया है। स्वच्छ भारत को गांधी जयंती से, श्रमेव जयते को पं.दीनदयाल उपाध्याय से, ये दोनों ही मेरी चेतना में वर्षों से समाये हुए हैं। गांधी जी को मैंने देखा भर था, पर दीनदयाल जी का निकट सम्पर्क व स्नेह पाने का सौभाग्य मुझे मिला है। गांधी जी ने अपना सपना हिंद स्वराज में संजोया था, दीनदयाल जी का सपना अन्त्योदय व एकात्म मानव दर्शन के माध्यम से जाना। सरल शब्दों में दीनदयाल जी ने कहा, 'हर हाथ को काम, हर खेत को पानी'। अर्थात हर मानव की तीन न्यूनतम आवश्यकताओं-रोटी, कपड़ा और मकान-की पूर्ति का यह अचूक मंत्र उन्होंने बताया। गांधी ने पश्चिम की मशीनी सभ्यता को पूरी तरह अस्वीकार किया। रेल, डाक्टर और वकील से युक्त समाज जीवन की कामना की, दारिद्रय का स्वेच्छा से वरण करने का आह्वान किया। दीनदयाल जी ने आर्थिक विषमता की मर्यादा तय की अधिकतम बीस न्यूनतम एक। अक्तूबर,1945 में स्वतंत्रता के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर गांधी जी ने कहा, स्वाधीन भारत शहरों में नहीं गांवों में रहेगा, महलों में नहीं झोपडि़यों में रहेगा। दीनदयाल जी ने गांधी जी के इस सपने को अपनाया, स्वयं वैसा जीवन जीकर दिखाया।
गांधी जी और दीनदयाल जी के स्वप्न
2014 में जो सरकार आयी है वह गांधी जी और दीनदयाल जी को पूज रही है, अर्थात उनकी विचारधारा के प्रति निष्ठावान है, उसे साकार करने के रास्ते खोज रही है। उसकी सब योजनायें और कार्यक्रम उसी दिशा में जाते हैं, उन सबकी परिणति 'एक भारत-श्रेष्ठ भारत' में होकर रहेगी। पर इन योजनाओं के लिए प्रयुक्त शब्दावली से मैं अब तक परिचित नहीं हुआ हूं इसलिए उन्हें पूरी तरह मैं समझ नहीं पा रहा हूं। इसका अर्थ यह नहीं कि उन योजनाओं में कोई कमी है, कमी तो मुझमें है। मुझे स्वयं को शिक्षित करना है। एक दिन मैंने एक शीर्षक पढ़ा-हिन्दुत्व की शक्ति। हिन्दुत्व का शब्दालाप तो मैं आधी शताब्दी से भी अधिक लम्बे समय से करता आ रहा हूं। इसलिए सरपट उस लेख को पढ़ गया। वहां लिखा था कि हिन्दुत्व की शक्ति 'एन्ड्रॉयड' और 'एप्पल' में है। अब ये दोनों शब्द मेरे लिए नए थे इसलिए मैंने अपने पुत्र से पूछा, 'एन्ड्रायड' क्या है, 'एप्पल' क्या है? उसने मुझे समझाने की पूरी कोशिश की, किंतु वास्तविक अर्थ तो प्रयोग से समझ में आते हैं, जिसका मैंने कभी प्रयोग नहीं किया और जिसका कभी भी प्रयोग करने का मेरा इरादा न हो उसे मैं कैसे जानूंगा, कैसे समझूंगा? तो क्या मैं हमेशा ही नासमझ रहूंगा? हिन्दुत्व की शक्ति का साक्षात्कार नहीं कर पाऊंगा?
हिन्दुत्व का यदि एक लक्षण शुचिता है, भौतिक धरातल पर स्वच्छता है तो क्या स्वच्छ भारत अभियान उसी दिशा में एक कदम है? गांधी जयंती पर प्रारंभ होने के कारण क्या यह हमें सहज ही गांधी जी के हिन्द स्वराज और रचनात्मक कार्यक्रम से जोड़ देता है? क्या कुछ जाने-माने चेहरों के हाथों में झाड़ू देखने से पूरे समाज में स्वच्छता का संकल्प पैदा होगा? प्रधानमंत्री ने नौ नवरत्न चुने, प्रत्येक नवरत्न ने अपने अपने नौ रत्न चुने, इस प्रकार पूरे समाज में संकल्प की लहरें पैदा करने की यह प्रक्रिया बन सकती है। पर स्वच्छता तो मन का भाव है, स्वभाव है। मैं पचास-साठ साल पहले की याद करता हूं तो देखता हूं, मेरी मां सूरज उगने के पहले ही उठ जाती है, पूरे घर को झाड़ू से साफ करती है। रसोई घर और चूल्हे को गोबर से लीपती है। लकड़ी और उपले से मेहनतपूर्वक आग जलाती है। दूध को उबलने के लिए रख देती है, हम लोगों को जगा देती है पर रसोई में पैर नहीं रखने देती, वहां अशुद्ध होने के डर से।
स्वच्छता का पैमाना
गांधी जी ने अपने आश्रम में स्वयं मैला उठाने का उदाहरण प्रस्तुत किया। आज भी एक ओर मैला उठाने की प्रथा को समाप्त करने की बात की जा रही है, दूसरी ओर प्रत्येक घर में, प्रत्येक विद्यालय में शौचालय निर्माण को अनिवार्य कहा जा रहा है। शौचालय विहीन घर में विवाह का निषेध किया जा रहा है। पर छत्तीसगढ़ सरकार परेशान है कि उसके यहां दास लाख खुले शौचालय प्रयोग लायक नहीं हैं अत: लगता है कि स्वच्छता की समस्या केवल झाड़ू लगाने या शौचालय बनाने तक सीमित नहीं है, उसके लिए और भी बहुत कुछ करना होगा। क्या करना चाहिए? इसे समझने के लिए एक हिन्दी दैनिक में 'सफाई की सही राह' शीर्षक वाले लेख पर दृष्टि चली गयी। लेखक हैं डा. भरत झुनझुनवाला। मेरे व्यक्तिगत मित्र हैं। ठेठ संस्कृतिवादी हैं राजस्थान के एक संस्कारी परिवार में जन्मे हैं। इसलिए उत्साह में आकर पूरा लेख पढ़ डाला। पर वह पूरा लेख अंग्रेजी व विदेशी शब्दों से भरा हुआ था। विश्वास नहीं हुआ। भरत झुनझुनवाला श्रेष्ठ शोधकर्त्ता हैं, अंग्रेजी और हिन्दी, दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार है। तब उन्हें विदेशी शब्दावली में अपनी बात कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी? स्वच्छता के जो दो आदर्श प्रयोग उन्होंने प्रस्तुत किये, वे दोनों भारत में ही मौजूद हैं। एक, आंध्र प्रदेश की बाब्बिली नगर पालिका का, और दूसरा भी आंध्र प्रदेश की ही सूर्यापेट नगर पालिका का। पर इन दो प्रयोगों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 'किचन','कम्पोस्ट', 'रिसाईिकल', 'लैंडफिल','नेशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल', 'चाकलेट रेपर','लेमिनेट', 'फर्नेस' आदि-आदि अंग्रेजी शब्द क्या इसलिए प्रयोग किए हैं कि आजकल हम इन शब्दों का प्रयोग करने के आदी हो गये हैं और उनके माध्यम से विषय को समझ सकते हैं, बिल्कुल उसी प्रकार जैसे छोटे बच्चे 'संडे', 'मंडे', 'सेवन', 'एट' तो जानते हैं रविवार, सोमवार, सात या आठ नहीं? इसे हम विद्यालयी और पारिवारिक वातावरण का दोष कह सकते हैं या यह कि सफाई का जो तंत्र और प्रक्रिया आज हम इस्तेमाल कर रहे हैं वह बाहर से आमंत्रित होने के कारण विदेशी शब्दों के साथ हमारे जीवन में आयी है? पर मुख्य बात तो यह है कि भारत जैसे विशाल देश में, जहां कच्ची सड़कें, कच्चे मकान सब तरफ बिखरे हैं वहां पश्चिम की साफ-सुथरी बस्तियों का दृश्य खड़ा करने के लिए पूरे समाज को अपने स्वभाव को बदलना होगा और स्वभाव परिवर्तन एक महीने या एक साल में तो नहीं हो सकता, उसके लिए कई पीढि़यों के संस्कार लगते हैं। आज भी भारत में नर्मदा नदी के उत्तर और दक्षिण के राज्यों में स्वच्छता की धारणा का अंतर देखा जा सकता है। तमिलनाडु के किसी भी मकान के द्वार पर भोर में ही एक रंगोली देखकर हम समझ जाते हैं कि इस घर की गृहिणी ने सफाई कर्म पूरा करके रंगोली बनायी है जो अतिथि को स्वागत का निमंत्रण देती है।
क्या इसी कड़ी में सांसद आदर्श ग्राम योजना को रखा जा सकता है? प्रधानमंत्री की अपेक्षा है कि प्रत्येक सांसद अपने क्षेत्र में कम से कम पांच गांवों को 2019 तक आदर्श ग्राम की स्थिति में पहुंचाये। पर यहां प्रश्न खड़ा होता है कि आदर्श ग्राम की कल्पना क्या है? क्या गांधी जी वाली, जिसमें लोग अपने श्रम से खेती करेंगे, दस्तकारी करेंगे, शहरी विलासिताओं से दूर रहेंगे? या नेहरू जी की कल्पना का गांव, जहां मशीन चालित उद्योग होंगे, सभी आधुनिक सुविधाएं होंगी? गांधी जी की दृष्टि में यह ग्रामों का शहरीकरण होगा, जबकि वे चाहते थे शहरों का ग्रामीणीकरण। गांधी जी चाहते थे कि शहर के लोग गांव में जाकर प्रकृति की गोद में खेलें, आत्मिक आनंद अनुभव करें। पर आज तो गांव की नयी पीढ़ी गांव में रहना ही नहीं चाहती। आधुनिक सुविधाओं के लालच में शहर की ओर दौड़ रही है, हल चलाने के बजाय कारखाने में मशीन चलाना या दफ्तर में क्लर्की करना पसंद करती है। सांसद के सामने समस्या यह है कि उसके संंसदीय क्षेत्र में हजारों गांव हैं, उनमें से किन पांच को चुने? क्या इससे बाकी गांवों में नाराजगी नहीं होगी? जनसत्ता में उमाशंकर नाम के किसी सांसद से यह सब प्रश्न उठाये गए हैं।
'डिजिटल इण्डिया' की राह
इस झंझट से मुक्ति पाने के लिए क्यों न ऐसी योजना का विचार करें जो पूरे भारत के लिए लागू होती है। क्या 'डिजिटल इंडिया' इस आवश्यकता को पूरा करती है? मैं 'डिजिटल इंडिया' पढ़ता आ रहा हूं। कई मित्रों से पूछा, यह क्या चीज है, क्या इसका कोई भारतीय नाम नहीं है? अभी तक तो मुझे किसी ने नहीं बताया इसलिए मैं भी उसी अंग्रेजी नाम से काम चलाऊंगा। यह 'डिजिटल इंडिया' क्या है? इसका स्वरूप क्या है? तंत्र क्या है? लाभ क्या है? तभी मुझे आगे 'नामजद' में अनिरुद्ध जोशी का लेख 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का प्रवेश द्वार डिजिटल इंडिया' दिखायी दे गया। दो बार पढ़ जाने पर उसमें दी गयी जानकारी मैं समझ पाया। यदि मैं ठीक से समझा हूं तो 'डिजिटल इंडिया' पूरी तरह इंटरनेट या मोबाइल पर केन्द्रित है। यह योजना भारत के प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक मकान और प्रत्येक बस्ती के बीच सम्पर्क सूत्र स्थापित कर देगी। इस योजना के अन्तर्गत आगामी पांच वर्ष में ढाई लाख ग्रामों को ढाई लाख विद्यालयों में वाई-फाई के साथ ब्रॉडबैंड लगाकर परस्पर जोड़ दिया जाएगा। आप क्षमा करेंगे कि मैं वाई-फाई से परिचित नहीं हूं। इस योजना से दस करोड़ से अधिक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नौकरियां पैदा होंगी। एक करोड़ सत्तर लाख युवकों को आईटी, बीपीओ, टेलीकॉम और इलेक्ट्रॉनिक्स का प्रशिक्षण दिया जाएगा। देश भर में चार लाख सार्वजनिक इंटरनेट केन्द्र स्थापित होंगे और दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले सब शहरों में 'वाई-फाई हॉट-स्पॉट्स' बनाए जाएंगे। इस टेलीकॉम क्रांति का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि सन् 2020 तक इलेक्ट्रॉनिक्स में हमारा आयात शून्य हो जाएगा, जबकि इस समय हम 100 अरब डालर का आयात करते हैं और आज की उत्पादन स्थिति स्थिर रही तो यह आयात सन् 2020 में बढ़कर 400 अरब डालर पहुंच जाने के आसार हैं। प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में 'मोबाइल हैंडसेट' पहुंच जाने पर प्रधानमंत्री का प्रत्येक रविवार को 11 बजे होने वाला रेडियो उद्बोधन प्रत्येक भारतीय तक पहुंच जाएगा। लेखक को विश्वास है कि 'डिजिटल इंडिया' कार्यक्रम सब बाधाओं को पार करके 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का प्रवेश द्वार सिद्ध होगा।
मन को प्रसन्न करने वाला कितना आशादायी चित्र है कि जिसमें श्रेष्ठ भारत के निर्माण के लिए कठोर चारित्रिक साधना की नहीं, प्रत्येक हाथ में एक 'मोबाइल हैंडसेट' की आवश्यकता है। क्या सचमुच मोबाइल और कम्प्यूटर ने मानव को चरित्रवान बनाया है? इंटरनेट पर सम्पर्क ने लोगों के ह्दय विशाल किये हैं, उन्हें अधिक संवेदनशील बनाया है? यदि ऐसा है तो मानव सभ्यता बहुत आगे बढ़ चुकी है, क्योंकि अखबारों में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, इस समय 'मोबाइल हैंडसेट्स' की संख्या विश्व की जनसंख्या से कहीं अधिक है। तब यह 'साइबर क्राइम' की बात क्यों होती है? पुलिस 'साइबर क्राइम' के विरुद्ध स्वयं को अक्षम क्यों पा रही है? आयेदिन मैं पढ़ता हूं कि मोबाइल और कम्प्यूटर के अधिक उपयोग के कारण नई पीढ़ी में मनोरोगों, स्व-केन्द्रित संकीर्णता, असामाजिक प्रवृत्तियां फैलने लगी हैं। कम्प्यूटर और मोबाइल जानकारी तो दे सकता है, पर मानवीयता नहीं।
वैसे तो 'डिजिटल इंडिया' का लक्ष्य स्वयं में पर्याप्त है, पर क्यों न 100 'स्मार्ट' शहरों की कल्पना को भी समझ लें। आर्गेनाइजर में भरत झुनझुनवाला का लेख चिंता प्रगट करता है कि 'स्मार्ट' शहर में आपकी प्रत्येक गतिविधि, प्रत्येक बातचीत को कैमरा और कम्प्यूटर रिकार्ड कर लेगा, आपके पास निजी कहने को कुछ नहीं रह जाएगा। सब कुछ राज्य की जानकारी और नियंत्रण में होगा। भरत कहते हैं कि जिस आधार पर भाजपा ने आधार कार्ड योजना का विरोध किया था, वे सब तर्क यहां भी लागू हो सकते हैं।
यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं इन सब विषयों के तकनीकी पक्ष के बारे में पूरी तरह अशिक्षित और अनभिज्ञ हूं। हां, मेरे लिए गौरव की बात है कि इन सब योजनाओं को बनाने और क्रियान्वित करने का श्रेय जिन नरेन्द्र मोदी को दिया जा रहा है वे और मैं, दोनों एक ही विचार-प्रवाह के अंग हैं। राष्ट्र और संस्कृति के प्रति उनकी निष्ठा और कर्म-साधना मुझसे कई कदम आगे है, पीछे होने की तो बात ही नहीं उठती। अंतर इतना है कि वे कर्मयोगी हंै और मैं मात्र कलमघिस्सू। सभ्यता की तेज गति के साथ मैं अपने कदम नहीं मिला पा रहा इसलिए मैं अभी तक सभ्यता के अंधेरे में ही भटक रहा हूं। उस विचार प्रवाह ने मुझे एक सपना दिया है और वह है भारत में श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों पर अधिष्ठित दैवीय जीवन का निर्माण करके विश्व में मानवता का उजाला फैलाने का। पर अभी तो मैं स्वयं ही सभ्यता के अंधेरे में भटक रहा हूं और मानवता का उजाला खोज रहा हूं। तमसो मा ज्योतिर्गमय-मुझे अंधेरे से उजाले में ले चलो। यही मेरी दीपावली से याचना है। (16.10.2014)
टिप्पणियाँ