लक्ष्मी के विविध रूप
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लक्ष्मी के विविध रूप

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Oct 18, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 18 Oct 2014 14:48:54

अथर्ववेद में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के साथ 101 लक्ष्मियां भी पैदा होती हैं, जिनमें से कुछ कल्याणकारी होती हैं और कुछ अकल्याणकारी। अकल्याणकारी लक्ष्मियों की विस्तृत चर्चा भारतीय साहित्य में स्वभावत: कम देखने को मिलती है, किन्तु कल्याणकारी लक्ष्मी के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा हमारे साहित्य में पर्याप्त मात्रा में है। कल्याणकारी रूप में मूलत: एक होते हुए भी, अलग-अलग अवसरों पर लक्ष्मी के विभिन्न स्वरूपों की उपासना की गयी है।
लक्ष्मी का आदिकालीन स्वरूप 'भूदेवी' का था। सभ्यता के विकास के प्रथम चरण में, मनुष्य के लिए भूमि ही सब कुछ थी। वहीं से वह अन्न प्राप्त करता और वहीं से अपने पशुओं के लिए चारा। वर्षा के जल का भी उसके लिए महत्व था, लेकिन वह जल भी धरती पर गिरकर उसका ही प्रभाव बढ़ाता था। इसलिए प्रारंभिक युग में ही उसने 'भूदेवी' की उपासना की और आगे चलकर वही भूदेवी, लक्ष्मी के रूप में परिवर्तित हो गयी। भूदेवी वाले इस स्वरूप के कारण ही, ऋग्वेद के 'श्री-सूक्त' में, लक्ष्मी को जल से स्निग्ध होता हुआ बतलाया गया और उनके लिए 'आद्रा' तथा 'करीषिणी'(गोबर खाद से युक्त) जैसे विशेषणों का भी प्रयोग किया गया।
भूमि पर मनुष्य केवल जन्म ही नहीं लेता, अपितु वह अपनी अन्तिम श्वास भी भूमि पर ही लेता है। जिस वस्तु का निर्माण भूमि करती है, उसका विनाश भी भूमि पर ही होता है। अतएव भूमि के दो स्वरूप होते हैं- निर्माणकारी और विनाशकारी। इसी प्रकार लक्ष्मी के भी दो रूप हैं, प्रथम लक्ष्मी और दूसरा अलक्ष्मी। 'लक्ष्मी' का सहज अर्थ है सुलक्षण वाली। इसके विपरीत बुरे लक्षण वाली 'अलक्ष्मी' हो गई। लक्ष्मी और अलक्ष्मी को ही दूसरे शब्दों में 'पुण्य लक्ष्मी' और 'पाल्यलक्ष्मी' भी कहा गया है। इस प्रकार सहज ही, भक्तों ने जहां लक्ष्मी को प्राप्त करने की कामना प्रकट की, वहीं अलक्ष्मी के विनाश की भावना भी उनमें रही। 'श्री-सूक्त' की इस ऋचा में इसी प्रकार की भावना व्यक्त की गई है-
क्षुत्पिपासाभलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वानिर्णुद मे गृहात्।।
अर्थात क्षुधा और तृषा से जो निष्प्रभ हुई है, उस ज्येष्ठा अलक्ष्मी को मैं नष्ट करता हूं। हे लक्ष्मी, मेरे घर से सब प्रकार की म्लानता और दरिद्रता दूर कर देन!
लक्ष्मी की सर्वप्रथम विस्तृत वन्दना हमें ऋग्वेद के श्रीसूक्त में पढ़ने को मिलती है। यहां पर श्री और लक्ष्मी दो देवियों की चर्चा है। कहीं पर इन दो देवियों की चर्चा कहीं अलग-अलग रूप में की गई है और कहीं पर एक ही देवी के रूप में इनकी वन्दना की गई है। शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर लक्ष्म्यै स्वाहा तथा श्रीयै स्वाहा कहकर इन दोनों के अलग अस्तित्व को स्वीकारने का प्रयत्न किया गया। रामायण में भी एक स्थान पर सीता के सौन्दर्य की चर्चा करते हुए यह जिज्ञासा व्यक्त की गई है कि वह श्री है, अथवा लक्ष्मी है अथवा कोई अप्सरा? महाभारत में जब इन्द्र की सभा में देवियों के नाम बतलाये गए तो वहां भी श्री और लक्ष्मी दोनों के नाम अलग-अलग कहे गए हैं। सामान्यत: इन दोनों देवियों की अलग-अलग चर्चा करते समय लक्ष्मी का संबंध स्वर्ण से तथा श्री का संबंध उर्वरता से जोड़ा गया। इस अलगाव के बावजूद जब हम श्रीसूक्त तथा अन्य साहित्य का गहराई से अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि मूल रूप में श्री और लक्ष्मी एक ही हैं। महाभारत में स्वयं श्री एक स्थान पर कहती हैं- मैं वही हूं, जो लक्ष्मी देवी हैं। आगे चलकर तो श्री और लक्ष्मी धीरे-धीरे, पूरी तरह से एक ही देवी के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं। इसके साथ ही भूलक्ष्मी के रूप में पृथ्वी से भी इनका निकट का संबंध बना रहा-
गंधद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्।।
अर्थात् जो दुराधर्षा तथा नित्यपुष्टा हैं, धनधान्य और पशुओं से युक्त गंधगुणवती पृथ्वी, जिनकी सखी है, ऐसी सब प्राणियों की स्वामिनी श्रीदेवी का मैं अपने घर में आह्वान करता हूं। मेरे यहां पधारकर मुझे पुत्र पौत्रादि, धन-धान्य, सुख सम्पत्ति से समृद्ध करें।
तैत्तरीय उपनिषद् में भी श्री लक्ष्मी का संबंध पशु, अन्न और वस्त्र से जोड़कर, भूमि से उनकी निकटता को प्रकट किया गया है। भूमि का बादलों से घनिष्ट संबंध होता है, इसलिए प्राचीन ग्रंथों में लक्ष्मी को हाथियों की गर्जना से आनन्दित होता हुआ बतलाया गया है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी को हस्तनाद प्रबोधिनी अथवा हरितनाद प्रमोदिनी का संबोधन भी दिया गया। गजलक्ष्मी का भी यही रहस्य है। लक्ष्मी की प्रतिमा के दोनों ओर हाथियों द्वारा पानी डाले जाने की बात, लक्ष्मी के भूदेवी वाले स्वरूप को ही प्रकट करती है। मेघ के प्रतीक के रूप में, हाथियों द्वारा लक्ष्मी रूपी भूदेवी पर पानी डाला जाना सहज स्वाभाविक बात है।
लक्ष्मी को प्राय: महालक्ष्मी भी कहा गया है। कारण यह है कि वे आदिदेव भगवान विष्णु की पत्नी हैं। इस रूप में वे भगवान विष्णु की शक्ति भी हैं। उन्हीं की सहायता से भगवान विष्णु इस सृष्टि का पालन-पोषण करते हैं। महालक्ष्मी के रूप में उनकी सवारी भी गरुड़ है, उल्लू नहीं। गरुड़, शक्ति और गति का प्रतीक है। वह लक्ष्मी के उजले और सात्विक स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। दीपावली पर लक्ष्मी के इस महालक्ष्मी वाले स्वरूप का ही पूजन किया जाता है। दूसरी तरफ उल्लू स्वार्थ और अन्धकार का प्रतीक है, जो लक्ष्मी के तामसिक स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। यह धन के अतिवादी और उसके विकृत स्वरूप का परिचायक है जिसे आदर्श नहीं कहा जा सकता। उल्लू को लक्ष्मी का वाहन बनाकर प्रतीक रूप में यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि धन से उत्पन्न बुराइयों पर महालक्ष्मी के सद्गुणों का नियंत्रण होना आवश्यक है। लक्ष्मी का एक रूप कमला का भी है। सृष्टि की उत्पत्ति कथा में, पृथ्वी का कमल से गहन संबंध है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना कमल पर ही बैठकर की थी। अन्य देवताओं को भी कमल प्रिय है। कहीं-कहीं, अलग-अलग देवताओं के कमल के रंग में अन्तर अवश्य देखने को मिलता है- ब्रह्मा का रक्त कमल, विष्णु का श्वेत कमल और शंकर का नील कमल। लक्ष्मी को भी कमल प्रिय हैं। इसीलिए उनका नाम कमला है। उनके कमल का रंग प्राय: लाल ही होता है। कमल प्रिय होने के कारण ही श्री-सूक्त में उन्हें पद्मवर्णा (ऋचा 14), पद्ममालिनी (ऋचा 11 व 14) तथा पद्मोस्थिता (ऋचा 4) जैसे अनेक संबोधन दिये गये हैं। लक्ष्मी के चित्रों में उनके जो चार हाथ अंकित किये जाते हैं, उनमें से एक में शंख, दूसरा धन की वर्षा करते हुए तथा तीसरे और चौथे में कमल के फूल दिखलाये जाते हैं। कहीं-कहीं केवल एक हाथ में कमल का फूल और दूसरे में कोई फल दिखला दिया जाता है। कहीं-कहीं तो लक्ष्मी का जन्म ही कमल से माना गया है। श्री सूक्त के निम्नांकित उदाहरण में लक्ष्मी की कमल से समानता इतनी अधिक बतलाई गई है कि उनके स्वयं कमलमयी होने का भ्रम उत्पन्न हो जाता है-
पद्मानने पद्म-उरू पद्माक्षी पद्म संभवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षी, येन सौख्यं लभाम्यहम्।।
पद्मानने पद्मिनी पद्मपये, पद्मदलायताक्षी।
विश्वप्रिये विश्वमनोनुकूले त्वत्पाद पद्मं मयि सन्निधत्सव।।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगंधमाल्य शोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवन भूतिकरी प्रसीदमह्यम।।
अर्थात् जिसका मुख कमल जैसा है, आंखें कमल जैसी मुलायम हैं, ऐसी कमलनयन कमलजा मुझे ऐसा कुछ दे, जिससे मुझे सुख मिले। हे कमलमुखी कमला, कमलपत्रारूढ़, कमलप्रिय, कमलदल नयन विश्वप्रिये, विश्व की रुचिकर देवी, तुम्हारे चरणकमल मेरे पास रख देना। हे, कमलवासिनी, कमलधारिणी, शुभ्र और महीन वस्त्रों से तुम शोभायमान हो, हे भगवती हरिप्रिया समस्त त्रिभुवन को वैभव सम्पन्न करने वाली तुम मुझ पर प्रसन्न रहो।
दीपावली को प्राचीन युग में 'यक्ष-रात्रि' के रूप में जाना जाता था। मूलत: यह यक्ष जाति का ही त्योहार था और इस संदर्भ में लक्ष्मी के साथ यक्षाधिपति कुबेर के पूजन की व्यवस्था हमारे यहां है। कालान्तर में कुबेर का स्थान गणेश ने ग्रहण कर लिया। कुबेर की शक्ति लक्ष्मी है और इस रूप में कुबेर के अधीन रहने वाली नवनिधियां, लक्ष्मी की भी हैं। इन नवनिधियों में महापद्म का प्रमुख स्थान है। इस आधार पर भी लक्ष्मी कमला के रूप में उचित ही प्रतिष्ठित हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता की जो विभिन्न वस्तुएं हमें प्राप्त हुई हैं, उनमें नारी आकृति की कुछ ऐसी मूर्तियां भी हैं, जिनके गले में हार है और उस हार की कलियां कमल की कलियों के समान हैं। इन मूर्तियों के एक हाथ में ऐसा पात्र है, जो धनपात्र का सूचक है। कुछ पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ये मूर्तियां, लक्ष्मी की ही हैं। ऋग्वेद के प्रारंभ में लक्ष्मी, धनधान्य और सम्पदा की प्रतीक न होकर केवल तेज, कांति और सुषमा की ही प्रतीक थीं। आगे चलकर श्री सूक्त में उनके इस रूप में परिवर्तन हुआ और उन्हें सुख सौभाग्य, यश एवं स्वर्ण रजत का प्रतीक माना जाने लगा।
लक्ष्मी का एक स्वरूप शौर्य और शक्ति के प्रतीक के रूप में भी है। मृच्छकटिकम् में नाटककार शूद्रक ने साहसे श्री: प्रतिवसति कहकर लक्ष्मी का साहस से सीधा संबंध जोड़ दिया। श्री दुर्गा सप्तशती में लक्ष्मी की वन्दना इन शब्दों में की गई- मैं कमल के आसन पर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का वन्दन करता हूं, जो अपने हाथों में फरसा, गदा, वज्र, धनुष, पद्म, ढाल, शंख, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं। वास्तव में यहां आते-आते लक्ष्मी को दुर्गा, महाकाली तथा अन्य देवियों के समकक्ष ही मान लिया गया। कहीं-कहीं यह भी स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि इस विश्व में एक ही आदिशक्ति हैं और विभिन्न देवियां उसी की प्रतिरूप हैं।
राज्य, धन, सम्पत्ति तथा यश आदि के साथ जुड़कर लक्ष्मी के नामों में भी अन्तर होता रहा है। यथा राज्य-लक्ष्मी, धन-लक्ष्मी तथा यश-लक्ष्मी। घर की देखरेख और उसके स्तर को बनाये रखने का उत्तरदायित्व चूंकि गृहस्वामिनी का होता है, इसलिए उसे गृहलक्ष्मी के रूप में संबोधित करने की परंपरा हमारे यहां अब भी बनी हुई है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी के लगभग पांच दर्जन नामों की चर्चा है, जिनमें विशेष उल्लेखनीय हैं अश्वपूर्वा, अश्वदा, चन्द्रा, अच्युतवल्लभा, सूर्या, हेमामालिनी तथा हिरण्यमयी। आर्यों के घुमक्कड़ स्वभाव के कारण लक्ष्मी का प्रभाव केवल भारत में ही नहीं, अपितु भारत के बाहर भी काफी फैला है। इटली में की गई खुदाई से वहां हाथीदांत की बनी एक मूर्ति मिली है, जिसे डा. मोतीचन्द्र ने लक्ष्मी की ही प्रतिमा माना है।
बेबीलोन की खुदाई में भी एक ऐसी देवी की मूर्ति मिली है, जिसके दोनों तरफ उल्लू खड़े हुए हैं। ईसा से 1800 वर्ष पूर्व की एक अन्य मूर्ति में एक देवी को दो सिंहों पर सवार बतलाया गया है और उसके भी दोनों ओर उल्लू खड़े हुए हैं। स्पष्ट ही ये मूर्तियां लक्ष्मी से पर्याप्त साम्य रखती हैं। – प्रो.योगेश चन्द्र शर्मा

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