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धर्म की धुरी को पंथ समझना है भूल
जिस संस्कृति को अपनाकर भारत आध्यात्मिक गुरु कहलाया, धर्म उस संस्कृति का केंद्र है। धर्म प्राचीन भारत की देन, अतिव्यापक आचरण में सात्विकतायुक्त, शास्त्रार्थ का विषय और सर्वप्रथम वेदों से ज्ञात है-ह्यवेदो अखिलो धर्ममूलम्।ह्ण
धर्मवीर सिंह भास्कर
वर्ष 1972-73 में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ह्यभारत भारतीह्ण पढ़ी। जिसने स्वाध्याय और चिन्तन-मनन को प्रेरित किया। दो पंक्ति आज भी याद हैं-ह्यहम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी। आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।ह्ण भारतीय संस्कृति से जुड़े इतिहास, महापुरुषों के जीवन-चरित्र, श्रीराम मंदिर, रामसेतु आदि की तरह ही ह्यधर्मह्ण को भी विवादित किया गया है। कोई पंथनिरपेक्षता की बात करता है तो कोई धर्मनिरपेक्षता की। कोई असंख्य मत-मतान्तरों को धर्म की संज्ञा देता है तो कोई धर्म रहित राजनीति की बात करता है। कोई ह्यरिलीजनह्ण का अर्थ ह्यधर्मह्ण तो कोई ह्यसेकुलरिज्मह्ण का अर्थ ह्यधर्मनिरपेक्षताह्ण निकालता है।
कोई व्यक्ति मानता है कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है तो कोई मानता है कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अर्थात कोई व्यक्ति जो कुछ मानता है वह उसका मत है। यदि वह कहे-ह्यमैं कुछ भी नहीं मानता हूंह्ण-यही उसका मत है, अर्थात कोई भी व्यक्ति बिना मत का नहीं हो सकता। विभिन्न कारणों से एक ही विषय-वस्तु पर भिन्न-भिन्न लोगों के भिन्न-भिन्न मत हो सकते हैं। ये मत पूर्वाग्रह, दुराग्रह और अज्ञानता ग्रस्त भी हो सकते हैं। सम्पूर्ण संसार में असंख्य मत, पंथ, मजहब या ह्यरिलीजनह्ण प्रचलित हैं। कोई व्यक्ति अधर्मी हो सकता है-मतहीन नहीं, गैर-इस्लामिक हो सकता है पर गैर-मजहबी नहीं और ह्यनॉन क्रिश्चियनह्ण हो सकता है-ह्यनॉन रिलीजियसह्ण नहीं। ढूंढ़ने से ऐसे निवर्तमान व वर्तमान विद्वान मिल जाएंगे जो मानते हैं कि ह्यरिलीजनह्ण का अर्थ पंथ है, न कि धर्म अर्थात कोई भी व्यक्ति पंथनिरपेक्ष(नॉन रिलीजन) नहीं हो सकता है। स्पष्ट है कि मत, पंथ, मजहब और ह्यरिलीजनह्ण-ये शब्द लगभग समानार्थी शब्द हैं, न कि धर्म के पर्यायवाची। जिस प्रकार ह्यक्रिश्चियनिटीह्ण बाइबिल से और इस्लाम कुरान से जाना जाता है ठीक उसी प्रकार धर्म सर्वप्रथम वेदों से जाना जाता है। धर्मशास्त्रों में चारों वर्णाश्रमों, माता-पिता, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, शासक आदि के धर्म का वर्णन मिल जाता है, वर्तमान स्वरूप में धर्म सम्बंधी वर्गीकरण नहीं। वर्ष 1977 से पूर्व और आज भी वैदिक मत, पौराणिक मत, चार्वाक मत, जैनमत, बौद्धमत, सिखमत, ईसाई मत, इस्लाम मत, खालसा पंथ आदि शब्दावली पढ़ने-सुनने को मिल जाती है। एक ही विषय-वस्तु पर भेद-भेदान्तर रखने वाले या परस्पर विरोधी मत कभी भी एक समान नहीं हो सकते। स्पष्ट है कि सर्वधर्म समभाव की वर्तमान व्याख्या यथार्थ से परे है। जब कोई व्यक्ति पंथनिरपेक्ष ही नहीं हो सकता तो पंथनिरपेक्षता अव्यावहारिक हो जाती है अर्थात पंथनिरपेक्षता का विचार-प्रवाह ही निरर्थक है। प्राचीन भारत के गुरुकुलों, राजदरबारों एवं धर्मसंसदों में नित्यप्रति शास्त्रार्थ हुआ करते थे। शास्त्रार्थ से तात्पर्य-सत्य तथ्यों पर आधारित तर्कसंगत चर्चा।
पं लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दयानन्द, आदिशंकराचार्य, गार्गी, राजा जनक इत्यादि शास्त्रार्थ के लिए जग-प्रसिद्ध हैं। जिस देव-संस्कृति को अपनाकर अपना प्राचीन भारत विश्व में आध्यात्मिक गुरु कहलाया, धर्म उस संस्कृति के केंद्र में है। धर्म प्राचीन भारत की देन,अतिव्यापक,अद्वितीय,आचरण में सात्विक तायुक्त, शास्त्रार्थ का विषय और सर्वप्रथम वेदों से जाना जाता है-ह्यवेदो अखिलो धर्ममूलम्।ह्ण धर्म वेदोक्त, सनातन, पौराणिक, शाश्वत, सार्वभौमिक,सार्वदेशिक,सार्वकालिक, सर्वजनीन, निरन्तर, अपरिवर्तनशील,अद्वितीय है। इन शब्दावलियों से धर्म में कोई भेद-विभेद प्रकट नहीं होता है। ऐसा सुना है कि ऑक्सफोर्ड के अंग्रेजी शब्दकोश के नवीनतम संस्करण में ह्यधर्म लॉ ऑफ यूनिवर्सह्ण के रूप में शामिल किया गया है। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं जैसा कि धर्म मनुष्य मात्र के दायित्व को भी परिभाषित करता है। मां का धर्म है-अपनी सन्तानों का पालन-पोषण करते हुए उनके जीवन पथ को सुसंस्कारों से सुसज्जित करना, भले ही मां भारत, रोम, सऊदी अरब या अन्य लोक से हो और या किसी भी काल में हर मां का यही धर्म होगा।
इधर-उधर बिखरी पड़ी धर्म की अनेकों परिभाषाएं निम्नवत हैं-सत्यमत ही धर्म है या सृष्टिक्रम के अनुरूप मत धर्म है, सत्कर्म ही धर्म है या सदाचार ही धर्म है या सत्पुरुषों का आचरण धर्म है, सत्यता पर आधारित आचारसंहिता धर्म है, पर-हित ही धर्म है, ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप मत धर्म है, जिसके धारण करने से आत्मा की उन्नति होती हो धर्म है, मनुष्यों को करने के लिए वेदों में जो कर्म विहित किये गए हैं वह धर्म है, जिसके धारण करने से सब प्रकार की उन्नति और उत्तम सुख की प्राप्ति होती है वह धर्म है।
प्रजा से धर्म (नियम) का पालन कराने और प्रजा के धर्म (सत्कर्मों) की रक्षा के लिए ही शासक और शासन-तंत्र(विधायिका-न्यायपालिका- कार्यपालिका )की सृष्टि आदिकाल से है। व्यक्ति नियमों(धर्म) का पालन करे अर्थात धर्माचरण करे। संसार में धर्म व अधर्म दोनों रहेंगे, परन्तु शान्ति के लिए धर्म की मात्रा अधिक होनी चाहिए। धर्मरहित व्यक्ति पशु समान है और चोर, डकैत, तस्कर, राक्षस, पिशाच, मिलावट करने वाले, राष्ट्रद्रोही आदि अधर्मी की श्रेणी में आते हैं। आज धर्मनिरपेक्षता के वातावरण में भी धर्मार्थ चिकित्सालय, धर्मशाला, धर्मकांटा, धर्मगुरु, नेता का धर्म, मीडिया का धर्म, पानी का धर्म आदि देखने, सुनने, व पढ़ने को मिल जाता है।
जिन लोगों ने ह्यरिलीजनह्ण और मजहब का संस्कृत या हिंदी में अर्थ धर्म दिया है उन्होंने आज तक ह्यक्रिश्चियनिटीह्ण और इस्लाम का संस्कृत या हिंदी में कोई अर्थ नहीं दिया है। जिस प्रकार ह्यक्रिश्चियनिटीह्ण और इस्लाम स्वयं में अद्वितीय(संज्ञाविशेष) हैं उसी प्रकार धर्म भी स्वयं में अद्वितीय(संज्ञाविशेष) है अर्थात प्रत्येक भाषा में धर्म ही उच्चारित होगा । धर्म मनुष्यमात्र के दायित्व को परिभाषित करता है इसे किसी एक मान्य महापुरुष से नहीं बांधा जा सकता है।
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