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करीब चार वर्र्ष पूर्व 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक ने 'अफ्रो-दलित' विषय को पहली बार उजागर किया था। बाद में भी इस संदर्भ में कई चीजें घटीं। देश के विकास के मोर्चे पर जिस तरह पूरी शक्ति के साथ मेहनत की जा रही है उसी तरह इस मोर्चे पर भी भरपूर प्रयास होने चाहिएं। इस सप्ताह इस स्तम्भ में इस पर चर्चा करने का कारण यह है कि इस वक्त 'अफ्रो दलित' संगठन के कुछ कार्यकर्ता भारत आए हुए हैं। दक्षिणी राज्यों, खासकर कर्नाटक, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र के हिस्सों में उनका दौरा चल रहा है। उसी तरह अफ्रीका में भी अनेक स्थानों पर इनके संयुक्त चर्चा सत्र जारी हैं। वास्तव में 'अफ्रो दलित' संगठन अथवा 'अफ्रो दलित' योजना से इस विषय की गंभीरता का आकलन करना असंभव है। आमतौर पर ऐसा मानना स्वाभाविक है कि भारत में वंचित समुदाय एवं अफ्रीका के अश्वेत लोग, जो अनेक सदियों से न्यूनतम मानवीय सुविधाओं से वंचित हैं, उन्हें एक साथ जोड़कर उनकी सहायता की योजनाएं बनें और उन योजनाओं को गति दी जाए। लेकिन दरिद्रता, शिक्षा एवं विकास के अवसरों का अभाव आदि मुद्दे उछालकर उन्हें संगठित करने एवं बाद में उन्हें देश के विरुद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित करने के छुपे प्रयास भी जारी हैं। इसके लिए उनमें से कुछ को कुछेक सुविधाएं भी दी जाती हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस योजना की परिणति उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरित करने के अलावा कुछ और नहीं दिखाई दी है। जो लोग इस तरह के विद्रोह करवाने की तैयारी कर रहे हैं उन्हीं लोगों ने इस तरह के संगठनों से अनेक नरसंहार करवाए हैं। लाखों लोगों के नरसंहार से चर्च संगठनों ने अपने विस्तार के लिए अनेक देशों का इतिहास एवं भूगोल हमेशा के लिए बदला है। ऐसीही कुछ वजहों के चलते इन विदेशी लोगों ने तमिल-सिंहली संघर्ष भड़काया।
इस बारे में भारतीय विचारक एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रा़े यशपाल ने चेतावनी दी थी कि कई पश्चिमी विश्वविद्यालयों के द्वारा इस तरह के सामाजिक प्रकल्प आगे आते हैं लेकिन उनके परिणाम जहरीले साबित होते हैं। विश्व के अनेक देशों का यही अनुभव है। वास्तव में हर उस देश में जिस समाज पर कुछ अन्याय हुआ हो, वहां विरोध की आवाज उठाने का कोई मार्ग वे तलाश लेते हैं। लेकिन अगर उसमें से कोई गहरी साजिश भरा कोई कार्यक्रम चलाता हो, तो उस बारे में देश में चेतना तो आनी ही चाहिए। साथ ही संबंधित समाजों के जानकार लोगों का ध्यान भी इस ओर आकर्षित करना चाहिए। इस बारे में जो चीजें फैलाई जा रही हैं वे चौंकाने वाली हंै। जैसे, भारतीय वंचित मूलत: अफ्रीकी वंश के हैं तथा उन अश्वेतों का उद्गम भी यूरोप में बाइबिल की एक कथा से हुआ है। अर्थात् यह मुद्दा केवल वंचित एवं अफ्रीका के अश्वेतों तक सीमित नहीं है बल्कि अमरीका में कोलंबस से पहले के निवासी एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ लोगों को भी इससे जोड़ने की यह चाल है। विश्व के इन 'दबे-कुचले लोगों को स्वतंत्र रूप से संगठित' करने एवं उनके देशों में उन पर अन्याय करने वालों की सत्ता पलटने के लिए विद्रोह करवाने की उन्हें सलाह दी जाती है, वैसा प्रयास भी होता है। भारतीय इतिहास में अफ्रीकी पैबंद लगाने के काम में शामिल लोगों में हैं-वी. टी. राजशेखर, इवा न वान सटिंमा एवं रुनोको रशीदी। उन्होंने पहले तमिल शब्द से सारी कहानी जोड़ी थी और अब इसे वंचित शब्द से जोड़ रहे हैं, बाद में उसे समाज के हर घटक से जोड़ने में वे माहिर हैं ही।
दुनिया भर में मानवता की सेवा का दावा करते हुए पूरे विश्व में फैले ये लोग इस तरह के प्रयोग क्यों करते हैं, इसे समझना होगा। वे जानते हैं, पंथ एवं जनसेवा का नाम लिए बगैर उन्हें कोई भारत में अंदर तक आने की इजाजत नहीं देगा। 'मानवता की सेवा' जैसे शब्दों से इस दृष्टि से फायदा उठाना ही इनका मकसद होता है। आज तक उनके मतांतरण कार्यों से पश्चिमी महासत्ताओं ने किस तरह पूरे विश्व में सत्ता कायम की है, यह कोई अनजानी बात नहीं है। बीते जमाने में उन्होंने विश्व को लूटा, यह तो जाना पहचाना इतिहास है। लेकिन पिछले 300 से 500 वर्षों के दौरान पूरे विश्व को छलने और लूटने का वह इतिहास समाप्त हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। 16वीं सदी में यूरोपीय सत्ता के पूरे विश्व में फैलने में जिस तरह पूरी एक सदी का समय लगा, उसी तरह अगली कुछ सदियों तक पुन: आक्रमण के लिए एक एक कदम करके यह तैयारी जारी है। भारत एवं अफ्रीका में शुरू हुआ 'अफ्रो दलित प्रोजेक्ट' उसी तैयारी का हिस्सा है। इससे पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में पिछले 25 वर्षों से सतत् नरसंहार की वजह बना सिंहली-तमिल वाद उसी का एक हिस्सा था। उसी के कारण वहां एक लाख से अधिक लोग मारे गए। रवांडा में दस लाख लोगों का बड़ा नरसंहार रचा गया। आज भी विश्व में कहीं न कहीं दो देशों के बीच इस तरह का एक न एक विवाद इन लोगों ने जारी रखा है।
इन साजिशी दिमागों की दूसरी एक विशेषता यह है कि ये लोग विश्व का इतिहास अपनी आवश्यकता के अनुसार ढाल लेते हैं। अर्थात् चीजों को बाइबिल में लिखी तारीखों का आधार दिया जाता है। बाइबिल की सेमेटिक-हेमेटिक कथा के अनुसार, उन्होंने उन देशों के इतिहास की रचना हेमेटिक लोगों के अफ्रीका के तट पर उतरने से जोड़ते हुए की। यह दिखाने के लिए कि भारत के अश्वेत दिखने वाले लोग अफ्रीका से आए हैं, उन्होंने उसी के अनुसार दक्षिण एशियाई देशों के इतिहास गढ़े। उस कहानी में दी गई तारीखों के अनुसार, अगर तमिल एवं उत्तर भारतीयों का संघर्ष होना अपेक्षित है तो वैसा ही संघर्ष यहां दिखाओ। द्रविड़ और सिंहली लोगों का संघर्ष पिछले-वर्षों के दुर्भाग्यपूर्ण संघषार्ें में से एक है, वही उनका मुख्य लक्ष्य है। तमिलों और तमिलनाडु के उत्तर की ओर रहने वाले लोगों के संघर्ष के अनुसार उन्होंने कुछ तारीखें भी तय की होंगी। उस संभावना को ध्यान में रखतेे हुए अभी से जनजागरण की मुहिम चलाना आवश्यक है।
वर्षों पूर्व रवांडा में घटा नरसंहार का प्रकरण केवल एक दुर्भाग्यपूर्ण गंभीर घटना के रूप में नहीं आंका जा सकता। यह ध्यान रखना होगा कि आगे रवांडा कहीं भी दोहराया न जाए। आज वहां की स्थिति ऐसी है कि तुत्सी एवं हूतू समुदाय के स्थानीय विवाद को उन्होंने एक वंश का दूसरे वंश पर आक्रमण का स्वरूप दे दिया है। मात्र सौ दिन में दस लाख लोगों के संहार का वह मामला चर्च को उससे बिल्कुल अलग रखकर किया गया। इस मामले से सही सबक नहीं लिया गया तो वह सबसे बड़ी भूल होगी। यह पूरा विषय 'क्रिश्चियेनिटी एण्ड जीनोसाइड ऑफ रवांडा' पुस्तक के लेखक टिमोथी लॉगमन ने बडे़ प्रभावशाली तरीके से रखा है। वास्तव में युवा पीढ़ी के अध्ययनकर्ताओं को ब्रिटिशों ने भारत में जो भी किया , उसका और गहराई से अध्ययन करना चाहिए। ब्रिटिशों के भारत में एक प्रशासक काल्डवेल ने अपने हाथ में प्राप्त सत्ता के बल पर तमिल इतिहास में आर्य-अनार्य विवाद का बीज रोपा था। आज स्थिति यह है कि वहां के पाठ्यक्रम, सरकारी इतिहास और वहां की संस्था के निर्माण में भी आक्रामकों को 'यूरोप से आए आर्यवंश'के रूप में दर्शाया गया है।
इस बारे में भारत की तरह ही अफ्रीका में भी कुछ साहित्य छापा गया है। यह साहित्य चर्च द्वारा पुरस्कृत संस्थाओं का है। 'अफ्रीकन कैरिबियन कल्चरल सर्विसेस' संस्था की सन् 2002 में 'अफ्रीका का इतिहास' विषय को केंद्र में रखते हुए बनाई गई एक डायरी है। उसमें उन्होंने भारत का इतिहास मिस्र तक खींचा है। उनका कहना है, कि अफ्रीका से जो परंपराएं तमिलों में पहुंचीं उन्हीं से अनेक भारतीय शास्त्रों का सृजन हुआ है। योगशास्त्र मिस्र से नीचे अफ्रीका में आया तथा अफ्रीका से तमिल संस्कृति के द्वारा भारत पहुंचा। मिस्र में इस विषय के लिए आवश्यक योग संबंधित जानकारी, तमिल में योगाभ्यास तथा वहां की कुछ संस्थाओं की तारीखें उसमें जोड़ी गई हैं। उसी डायरी में बुद्घ विचार, भारतीय अध्यात्म में कुंडलिनी आदि सभी चीजें बाइबिल से मिस्र एवं मिस्र से दक्षिण अफ्रीकी अश्वेत लोगों में, वहां से तमिल में जाने का उल्लेख किया है। बुद्घ ने मूर्र्तिपूजा नकारी, इसका मूल भी उस संस्कृति के मौलिक रूप में है। उन्हीं लोगों ने कावेरी, तुंगभद्रा से सिंधु नदी तक की पूरी सभ्यता बनाई। बाद में आर्यों ने उन्हें नीचे धकेला। अफ्रीकी विश्वविद्यालयों में कई शोध पत्रों में यही विषय विस्तार से रखा गया है। 'इंस्टीट्यूट फ्रान्साईज डि अफ्रीके नोईरे' नामक फ्रेंच भाषी विश्वविद्यालय में इस पर व्यापक शोधकार्य हुआ है। उन्होंने दिखाया है कि अफ्रीकी भाषाएं एवं तमिल यूरोपीय भाषाओं के मेल से बनी हैं। इन लोगों के काम की पद्घति भी गौर करने योग्य है। जिन लोगों ने भारतीय विश्वविद्यालयों में 'आर्य बाहर से आए', इस कल्पना को बल दिया उन्होंने ही उन तारीखों के निकट प्रतीत होने वाली तारीखें तमिल इतिहास में रखीं। बहुतों ने तो उसका संबंध हड़प्पा से जोड़ा। वैश्विक साहित्य में वेदों का स्थान, ऋषियों द्वारा रचे किए गए उपनिषद, योग-आयुर्वेद जैसे विज्ञान, रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ, ब्राह्मण-आरण्यक ग्रंथों का विवेचन आदि किसी का भी जिक्र किए बिना ये लोग बताते हैं कि भारत में सभ्यता के नाम पर जो कुछ दिखता है उसमें से आधा ऊपर से आयोंर् द्वारा तथा बाकी अफ्रीका के द्वारा तमिल मार्ग से होते हुए आया।
भारतीय विचारकों, प्राध्यापकों एवं युवाओं को भी इस विषय को महत्व देना चाहिए। यह केवल इतिहास बदलने का षड्यंत्र नहीं है। वे एक संदेश देना चाहते हैं कि भारत का इतिहास यूरोप में शुरू होता है और उसी के आधार पर हम पिछली कुछ सदियों से भारत एवं विश्व के अन्य हिस्सों पर सिर्फ राज ही नहीं करते आ रहे हैं बल्कि बीते 500 वर्षों की तरह ही आगे भी लूट जारी रखने वाले हैं। जिन्हें यह इतिहास मंजूर नहीं है उन्हें रवांडा की घटनाओं का स्मरण करना चाहिए। इन सारी चीजों का आरंभ अमरीका के प्रिंस्टन विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं ने किया है। भारत ने ब्रिटिशों से स्वतंत्रता की लड़ाई बड़ी ही जीवटता से लड़ी थी। उसी तरह हमें यहां के इतिहास में गहराई तक रोपे गए झूठे तथ्यों को सही करने का प्रयास भी करना चाहिए । -मोरेश्वर जोशी
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