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रावण द्वारा निकाले जाने पर विभीषण भगवान राम की शरण में आते हैं। श्रीराम उन्हें लंका का राजा घोषित कर देते हैं। सुग्रीव यह देखते हैं और बाद में राम से कहते हैं कि प्रभु लगता है आपने विभीषण को लंका का राजा घोषित करने में जल्दबाजी कर दी। अभी तो रावण वहां का राजा है और युद्ध भी शुरू नहीं हुआ है। मान लीजिए कि रावण आपकी शरण में आ जाए तो…! शरणागत को अपनाना आपकी रीति है और विभीषण को दिया वचन भी भंग नहीं कर सकते, तब रावण को क्या देंगे?
'भागवत् रहस्य' ग्रंथ में नवें स्कन्ध में रामचंद्र केशव डोगरे जी ने इसका सुंदर उल्लेख किया है। तब प्रभु राम ने कहा कि ऐसा नहीं कि मैंने सोच-विचार किए बिना ऐसा किया। अगर अब भी रावण मेरी शरण में आता है तो मैं उसे अयोध्या का राज्य दे दूंगा और हम चारों भाई वनवास करेंगे।
लीलाप्रेमियों का दुख
वर्षांे से भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दे रही इस रामलीला के कई स्थलों की दुर्दशा और बढ़ते अतिक्रमण से रामलीला प्रेमी दुखी हैं। कई लीला स्थलों के आसपास के पेड़ों को काटकर कॉलोनियां बनाई जा रही हैं। दूसरी ओर रामलीला को मिलने वाला सरकारी अनुदान भी बहुत कम है। संस्कृति एवं पर्यटन विभाग भी इसके प्रति अपनी वो जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है, जिसकी दरकार थी।
दीये की रोशनी में लीला का मंचन
जाने-माने इतिहासार एस.के. गांगुली रामनगर की रामलीला के बारे में बताते हैं कि इसका कोई लिखित इतिहास नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने काशी में राम की लीलाओं का मंचन शुरू किया था। साल 1855 के आसपास महराज महीपनारायण सिंह ने रामनगर में रामलीला की शुरुआत की थी। बाद में महराज उदित नारायण ने लीला को बड़ा आकार दिया। उस समय दीया जलाकर उसकी रोशनी में रामलीला का मंचन किया जाता था।
संस्कार से होता है, रावण का अंतिम संस्कार
रामनगर की रामलीला में लीला के साथ ही संस्कारों को भी सहेजा जाता है। यही इस रामलीला की आत्मा है। हिन्दू संस्कार है कि किसी के मरने पर उसके परिवार का ही कोई आग देता है। रावण के परिवार में अकेला विभीषण ही बचा था, लिहाजा वही अंतिम संस्कार करता है। रामनगर की रामलीला में यही पारिवारिक संस्कार आज भी निभाया जाता है।
रामनगर की रामलीला में विभीषण बनने वाले पात्र राममूरत पाठक कहते हैं, आज तो हर जगह रावण दहन पर जमकर आतिशबाजी होती है, लेकिन इस बहाने पारिवारिक और पारम्परिक मान्यताओं का विलोपन भी हो रहा है। लंका से बाहर निकाले जाने के बाद भी विभीषण अपने पारिवारिक धर्म को निभाता है, लेकिन आज के दौर में ऐसी सूरत में लोग एक-दूसरे का दु:ख तक बांटना पसंद नहीं करते हंै।
इनकी मानें तो रामलीला पर भी आधुनिकता हावी हो रही है। कहीं राम के तीर से रावण धधक उठता है तो कहीं रिमोट से रावण का पुतला जलाया जा रहा है। कोई तीन दशक तक रावण के पुतले की अन्त्येष्टि करते रहे और विभीषण की भूमिका निभाते रहे राममूरत डाक तार विभाग में कार्यरत हैं। उनकी पहचान अब विभीषण महाराज के रूप में स्थापित हो गई है। उन्हें उनके मूल नाम से कम, विभीषण के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है। श्री पाठक को विभीषण के चरित्र में गहरी आस्था है। कहते हैं कि विभीषण से बड़ा रामभक्त कोई था ही नहीं। वे जहां निवास करते थे वहां की दीवारों पर राम राम लिखा था तो निवास के बाहर तुलसी का पौधा रहता है। गोस्वामी तुलसीदास का हवाला देते हुए कहते हंै कि जिस दिन विभीषण ने लंका छोड़ी, उसी दिन निशाचरों (राक्षसों) की आधी जान खत्म हो जाती है। उन्हें इस बात का जरा भी रंज नहीं है कि जो नाम कोई अपने घर में किसी का नहीं रखना चाहता, उस नाम से उनकी पहचान है। कहते हैं विभीषण के चरित्र को समझने की जरूरत है। खुद उनके पुत्र रामजी पाठक स्वप्रेरणा से उनकी अनुपस्थिति में विभीषण की भूमिका करते हैं। बताते हैं कि यहां रावण के पुतले का दहन रामलीला का अंश होता है। श्री राम का निर्देश मिलने पर वे जाते हैं। अग्नि हाथ में लेकर रावण के पुतले की पांच बार परिक्रमा करते हैं।
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