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डॉ. रामांजनेयुलू जी.वी.
पारिस्थितिकी और पर्यावरण संरक्षण के साथ ही आर्थिक लाभ की दृष्टि से भी ख्रेती के लिए कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोण (टिकाऊ खेती/जैविक खेती/कुदरती खेती/गैर-कीटनाशक प्रबन्धन/जड़ों को मजबूत बनाने वाली श्री पद्घति आदि) को अब व्यापक समर्थन मिलने लगा है। टिकाऊ खेती पद्घति की बाहरी निवेश (बीज,रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि) पर निर्भरता बहुत कम है इसके साथ ही इसमें ऊर्जा की आवश्यकता कम होने से प्रदूषण भी कम होता है। अत: यह पद्घति जहां जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करती है वहीं अनुकूलन में भी सहायक है।
जब व्यापक स्तर पर टिकाऊ खेती के विस्तार की बात करते हैं तो प्राय: इसकी सम्भावनाओं और व्यावहारिकता को लेकर प्रश्न किये जाते हैं। परन्तु पिछले पांच वषार्ें में आंध्र प्रदेश में समुदाय प्रबंधित टिकाऊ खेती और त्रिपुरा, ओडिशा व तमिलनाडु में जड़ों को मजबूत बनाने वाली श्री पद्घति को लेकर बड़े पैमाने पर जो प्रयोग हुए हैं, उनसे टिकाऊ खेती के बारे में अब तक जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं वे सब निर्मूल साबित हुई हैं और इन प्रयोगों ने इस क्षेत्र में नये आयाम स्थापित किये हैं।
इन सफल प्रयोगों में तीन बातें समान हैं-
– इनमें ऐसी तकनीक का उपयोग किया गया जो स्थानीय रूप से अनुकूल है, जिससे संसाधनों का संरक्षण होता है।
-विभिन्न समुदायों ने स्थानीय स्तर पर आपसी तालमेल से कार्य किया।
– इन प्रयोगों के लिए सहयोग करने वाली सरकारी और/या गैर सरकारी बाहरी संस्थाओं ने किसानों के साथ मिलकर काम किया। प्राय: प्रत्येक प्रयोग में सफलता उन नीतिगत अवरोधों के बावजूद मिली जो खेती के विकास के लिए 'आधुनिक और प्रचलित' तरीकों को ही बहुत अधिक प्रोत्साहित करती हैं।
अब इन प्रयोगों को अखिल भारतीय स्तर पर अमल में लाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि परिस्थितियों में बहुत विविधता है। इस कार्य के लिए एक नई कार्यपद्घति और वित्तीय सहायता के लिए नई व्यवस्था की जरूरत है, कृषि कार्यक्रमों के लिए नये दिशा निर्देशों की जरूरत है या फिर ऐसे नये कार्यक्रम बनाने की जरूरत है जो टिकाऊ खेती के अनुरूप हों और छोटे व सीमान्त किसानों की पहुंच में हों। इस मिशन के तहत ऐसे कार्यक्रम बनाये जा सकते हैं जो टिकाऊ खेती को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से निम्नलिखित लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें
– बाहरी निवेश व संसाधनों पर निर्भरता घटे और खेती की लागत कम हो-
-ऐसी कृषि पद्घति और फसल प्रक्रिया अपनाई जाये जिससे अनिश्चित मौसम और विकृत व सीमित प्राकृतिक संसाधनों के प्रभाव के जोखिम को कम किया जा सके।
– खेती को पशुपालन, कृषि वानिकी और फलोत्पादन से ऐसे जोड़ा जाये जिससे किसान को उपयुक्त आमदनी हो सके। इसके साथ ही कृषि और गैर-कृषि उपायों द्वारा रोजगार प्राप्ति की नयी सम्भावनाओं को तलाशा जाये।
-पानी और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व कुशलतापूर्वक उपयोग और बायोमॉस संवर्द्धन को प्रोत्साहित किया जाये।
-किसानों को इस प्रकार संस्थागत रूप से संगठित किया जाये जिससे उन्हें खेती के लिए बेहतर योजना बनाने, उत्पादन पर अधिक नियंत्रण, संसाधनों व सहयोग तक पहुंच में सहायता मिले, खाद्य सुरक्षा में सुधार हो और बाजार व्यवस्था से जुड़ें।
-आजीविका की ऐसी सुरक्षित व्यवस्था बनाई जाये जो सूखा, बाढ़ और दूसरी प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर सके।
टिकाऊ खेती को प्रोत्साहन : यह ऐसी समन्वित कृषि व्यवस्था है जो स्थानीय संसाधनों, स्थानीय रूप से अनुकूलित फसल पद्घति, और स्थानीय ज्ञान, सूझ-बूझ और नवीन उपायों पर आधारित है। इन सब तत्वोंं से मिलकर ही टिकाऊ खेती का आधार तैयार होता है, अर्थात पर्याप्त खाद्य उत्पादन, संसाधनों को क्षति न पहुंचाना, आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य और जीवन की गुणवत्ता में संवर्द्धन।
टिकाऊ खेती के लिए युक्तियां-
क- स्थानीय मौसम व संसाधनों के अनुरूप फसल पद्घति में बदलाव व इसमें दलहनी फसलों को शामिल करते हुए विविधतापूर्ण मिलवा खेती को अपनाना।
ख- फसलों की ऐसी किस्मों को अपनाना जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप ढल गई हैं। विशेषतौर पर खारे पानी और बाढ़ व सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्मों का चयन करना।
ग- खेती, फलोत्पादन और पशुपालन का समन्वय करते हुए उपयुक्त फसल पद्घति को विकसित करना। प्राकृतिक संसाधनों के निर्माण के लिए प्रयास।
जल संरक्षण आदि उपायों के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों के पुनर्निर्माण की बहुत आवश्यकता है, जिससे खेती व पशुपालन के साथ-साथ मानव उपयोग के लिए भी पानी मिल सके।
कृषक संस्थाएं : फसलों के मूल्य संवर्द्धन, विपणन, संसाधनों व आजीविका आदि के नियोजन और प्रबंधन की दृष्टि से संगठित सामुदायिक व्यवस्था अधिक प्रभावी सिद्घ हुई हैं। अत: प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त संस्थागत व्यवस्थाओं को खड़ा करने की जरूरत है। किसानों के समान हितों को ध्यान में रखते हुए उन्हें समूहों में संगठित किया जाना चाहिये ओर फिर इन समूहों का उत्पादक परिसंघ बनाया जाये। प्रारम्भ में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों से इन कार्यक्रमों की शुरुआत की जा सकती है।
खाद्य और आजीविका की सुरक्षा
टिकाऊ खेती की बात करते समय प्राय: यह माना जाता है कि इससे खाद्य सुरक्षा की अनदेखी की जा रही है। इसका कारण यह है कि केवल गेहूं, चावल, कुछ दालों, तिलहनों और कुछ सब्जियों को ही खाद्य मान लिया गया है, जबकि वास्तविकता यह है कि ज्वार, बाजरा व मोटे अनाज, बारानी खेतों के फल और प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली हरी सब्जियों को अगर शामिल किया जाये तो इससे भोजन की विविधता व पौष्टिकता बढ़ेगी और इससे पोषण सुरक्षा भी प्राप्त होगी। खाद्य सुरक्षा के पूरे परिदृश्य को सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मध्याह्न भोजन से बाहर निकलकर देखने की जरूरत है।
वित्तीय सहायता
फिलहाल ख्रेती के लिए वित्तीय सहायता देने की जितनी भी व्यवस्थाएं हैं वे सब बाहरी आदानों के लिए सहायता करती हैं। इसके बदले ऐसी उपयुक्त व्यवस्था की जरूरत है जिससे खेत के अपने आदानों, सामुदायिक ढांचागत विकास, सूझ-बूझ आदि को भी शामिल किया जा सके।
सहभागिता
राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न सरकारी अनुसंधान संस्थानों, विस्तार एजेंसियों, ग्रामीण आजीविका से जुड़े विभागों और ऐसे गैर-सरकारी संगठनों के बीच एक गठजोड़ बने जो टिकाऊ खेती के क्षेत्र में कार्यरत हैं।
परम्परागत खेती के लिए सरकारी छूट के रूप में विभिन्न प्रकार से सहायता प्रदान की जाती है जबकि प्राकृतिक खेती करने पर किसी प्रकार की सहायता की कोई व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार के मॉडल के आधार पर खेती करने के लिए सहायता देने की व्यवस्था बननी चाहिये।
खेती को पहले प्रायोगिक आधार पर देश के कुछ चुनिंदा गांवों से शुरू किया जा सकता है। इसके लिए 100 जिलों में 5-10 गांवों के समूहों का चयन करना होगा। इसके लिए किसानों का चयन करते समय बारानी और विपदाग्रस्त इलाकों के साथ ही जैव विविधता वाले और पारिस्थितिकी की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों के छोटे और सीमान्त किसानों पर ध्यान केन्द्रित होना चाहिये। खेती में उत्पादन सम्बन्धी बदलावों पर खास जोर रहने के साथ ही खेती के अभिनव प्रयोगों, सामूहिक आधार पर आदानों के उपयोग, विपणन, प्रसंस्करण, मूल्य संवर्धन और सामुदायिक बीज बैंक के संचालन आदि पर भी ध्यान देना चाहिये।
– टिकाऊ खेती को प्रोत्साहित करने के लिए कुशल लोगों का कैडर बनाना होगा। योजना के समन्वय का काम करने वाले लोगों की एक टीम बनानी होगी। इसके लिए जिनका चयन किया जायेगा उन्हें वर्ष में चार बार प्रशिक्षण दिया जायेगा। ऐसी सक्षम संस्थाओं का चयन करना बहुत महत्वपूर्ण है जो शिक्षण, संवाद और सूचना के लिए उपयुक्त सामग्री को तैयार करेंगी और इसके साथ ही किसानों को प्रशिक्षण देने वाले ऐसे कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करेगी, जो निरन्तर किसानों के सम्पर्क में रहें।
-किसान खेत पाठशाला का आयोजन साप्ताहिक आधार पर किया जाये।
-जिला और राज्य स्तर पर कृषि, उद्यान, पशुपालन और ग्रामीण विकास विभागों के सहयोग से किसान संस्थाओं के प्रतिनिधियों को साथ लेकर, विशेष परियोजना प्रबंधन यूनिट का गठन किया जाना चाहिये।
जैसा कि आन्ध्र प्रदेश में समुदाय प्रबधित टिकाऊ खेती कार्यक्रम की शुरुआत खेती में सिंथेटिक कीटनाशकों के विकल्प के तौर पर बड़े पैमाने पर गैर-कीटनाशक प्रबन्धन द्वारा करने से हुई थी। बाद में इसका विस्तार स्थानीय स्तर पर बीज उत्पादन कार्यक्रम और जीरो-बजट फार्मिंग आदि के रूप में हुआ। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन आदि के माध्यम से इसके प्रोत्साहन हेतु धन की व्यवस्था की जा सकती है।
समुदाय प्रबधित टिकाऊ खेती कार्यक्रम का अनुभव है कि 2005 में जब 25000 एकड़ में योजना की शुरुआत की गई तब 800 रुपये प्रति एकड़ का निवेश हुआ। अनुमान है कि 25 राज्यों में, प्रत्येक राज्य में एक हजार गांवों में टिकाऊ खेती की पायलट प्रोजेक्ट शुरु करने के लिए प्रति वर्ष 800 करोड़ रुपया खर्च होगा। प्रत्येक गांव में 400 एकड़ में पायलट फेज में 800 रुपए प्रति एकड खर्च होगा। अनुमान है कि, देश के खेती योग्य 14 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में से, प्रति वर्ष 1़4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में निवेश करना होगा। इस प्रकार 500 रुपए प्रति हेक्टेयर के निवेश के हिसाब से इस चरण में 700 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष का निवेश होगा।
जैविक खेती के उत्पादों के भंडारण और बाजार व्यवस्था आदि की दृष्टि से कुछ अतिरिक्त धन की जरूरत होगी। समुदाय प्रबंधित टिकाऊ खेती कार्यक्रम में बीज बैंक, सामुदायिक भंडारण और प्रसंस्करण सुविधा खड़ी करने के लिए एक से डेढ़ लाख रुपये प्रति गांव के हिसाब से खर्च हुआ है। इस प्रकार देश में 45 हजार गांवों में इस प्रकार की सुविधाओं के निर्माण में लगभग 675 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की जरूरत होगी।
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