श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष - श्रीमद्भगवद् गीता : एक सार्वभौमिक आलोक
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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष – श्रीमद्भगवद् गीता : एक सार्वभौमिक आलोक

by
Aug 16, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Aug 2014 15:51:28

श्रीमद् भगवद् गीता की चर्चा उस परिस्थिति की चर्चा से प्रारंभ करते हैं, जब गीता के वचनों को कहा गया। युद्घ के मैदान में जीवन और मृत्यु की महीन रेखा पर खड़े होकर मानव जीवन के मर्म को समझा और समझाया गया है। जो युद्घ होने को है, वह अनेक मामलों में अभूतपूर्व है और आज के उन युद्घों से भी अलग है, जहां दूर से आ रही मानव आकृति पर गोली चला दी जाती है या किसी सोते हुए शहर पर हजारों फुट ऊ पर से बम गिरा दिया जाता है। आप शत्रु की आंखों में आंखें डालकर उसे नहीं देखते। महाभारत का युद्घ उस समय का युद्घ है, जब विरोधी एक दूसरे की आखों में देखकर उसके भावों को भी पढ़ते हैं। महाभारत का युद्घ केवल इसलिए अद्भुत नहीं है कि यह आकार में बहुत बड़ा है, बल्कि इसलिए भी अद्भुत है कि दोनों ओर बन्धु-बांधव और रक्त संबंधी खड़े हैं, जो एक दूसरे को प्राणों से भी अधिक चाहते हैं। कर्तव्यों और प्रतिबद्घताओं की अपनी-अपनी व्याख्याओं के अनुसार परस्पर प्राण लेने को आतुर दो सेनाओं मंे बंट गए हैं। पितामह भीष्म और गुरु द्रोण, जिन्हें अर्जुन संसार में सर्वाधिक प्रिय है, अर्जुन को चुनौती देते हैं, दुयार्ेधन की सेना का नेतृत्व कर रहे हैं और अर्जुन जिन्हें संसार में सर्वाधिक सम्मान देते है, उन्हीं के विरुद्घ वह शस्त्र उठाने को विवश हैं। नकुल और सहदेव के मामा शल्य कौरवों की ओर से लड़ रहे हैं। श्रीकृष्ण शस्त्र नहीं उठाने का वचन दे चुके हैं और दुयार्ेधन ने उनकी सेना मांग ली है। और अब युद्घ के लिए शंखनाद हो चुका है।
भावनाओं के इस उफान में दोनों सेनाओं के बीच खड़े अर्जुन, जिनके सारथी श्रीकृष्ण हैं, का मन डोल जाता है। इस घटना से उत्पन्न हुआ संवाद 'गीता' है। प्रश्नकर्ता अर्जुन, अपने युग का महान योद्घा, निद्रा को जीतने वाला, जिसने जीवन के हर रण में अपना लोहा सिद्घ किया है, वीरता और पराक्रम जिसके रक्त के कण-कण में बहता है, जो आज सगे-संबंधियों को युद्घ के मैदान में देखकर कांप उठा है। दुख के कारण सुध-बुध खो बैठा है। उत्तर देने वाले उसके सखा योगेश्वर कृष्ण हैं।
कृष्ण ने अर्जुन को प्रेरित किया
कृष्ण ने अर्जुन को युद्घ में प्रेरित क्यों किया, ये जिज्ञासा गीता जितनी ही पुरानी है। अर्जुन युद्घ की हिंसा से विमुख होने की बातें कर रहा है, संन्यास लेने की बात कर रहा है और द्वारिकाधीश उसे शस्त्र उठा कर युद्घ करने को प्रेरित कर रहे हैं? श्रीकृष्ण ने ऐसा क्यों किया, इसके अनेक उत्तर समय-समय पर दिए गए हैं। परंतु सभी उत्तरों के संबंध में एक बात ध्यान रखनी होगी कि कृष्ण का व्यक्तित्व बहुआयामी है और उनके कर्म भी अनेक आयाम लिए हुए हैं। कृष्ण ने इस महाविनाश को टालने का पूरा प्रयास किया था। जब युद्घ टाला नहीं जा सका तो वे इसे निर्णायक स्थिति तक पहुंचाने के लिए रण भूमि में उपस्थित हैं। क्योंकि भीष्म, कर्ण, द्रोण, दुयार्ेधन, भीम और अर्जुन जैसे योद्घाओं के इस रण में जय और पराजय की रेखा अत्यंत धुंधली रहने वाली है। ये धर्म युद्घ है जिसके बाद शक्ति और सत्ता के केंद्रांे की नए सिरे से स्थापना होनी है। अर्जुन पर बहुत दांव लगा है। वह पांडव पक्ष की आशाओं का केंद्र बिंदु है। दूसरा पहलू अर्जुन का स्वयं का स्वभाव है। अर्जुन का कण-कण क्षत्रिय है। अर्जुन जो सदा से चुनौतियों को स्वीकार करता आया है, जिसका मन उसके गांडीव में बसता है, वह मोह के वशीभूत हो कर अपने सहज स्वभाव के विपरीत आचरण कर रहा है। क्षणिक आवेश में यदि अर्जुन युद्घ से भाग जाता है तो कल स्वयं पश्चाताप करने में वह हीन महसूस करता। इसलिए श्रीमद्भगवद् गीता के अठारहवें अध्याय के उनसठवें श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि 'भ्रमवश जो तू ये निश्चय कर रहा है, 'मैं युद्घ नही करूंगा' तो समझ ले कि तेरा निश्चय झूठा है, क्योंकि तेरा स्वभाव (बाल्यकाल से चला आ रहा स्वभाव) तुझे जबरदस्ती युद्घ में लगा देगा।'
मानव मन का विश्लेषण
श्रीमद्भगवद् गीता के प्रथम श्लोक से ही मानव मन का अद्भुत विश्लेषण प्रारंभ होता है। पहला वचन उन धृतराष्ट्र का है जिसके पुत्रमोह ने इस महाविनाश को आमंत्रित किया है। वह स्वयं भी जानता है कि उसने और उसके पुत्रों ने गलत किया है। इसलिए उसके मुख से निकले हुए प्रथम शब्द हैं 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे'। युद्घ भूमि को धर्म भूमि कहने के बाद भी अपने पुत्रों के भविष्य को लेकर उत्कंठित हैं। अगले श्लोक में दुयार्ेधन का वर्णन आता है। दुयार्ेधन के मन में अपने कर्मों को लेकर कोई संदेह नहीं है और किसी प्रकार की कोई कुंठा या भय भी नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि वह द्रोणाचार्य से पहले पांडवों की सेना की शक्ति का वर्णन करता है, फिर कौरव सेना की बात करता है।
संशय अर्जुन को होता है जो विचारशील और संवेदनशील व्यक्ति है। उसकी मन:स्थिति को देखकर सर्वप्रथम श्रीकृष्ण उसके पौरुष और पराक्रम को ललकारते हैं। वे उससे कहते है कि 'इस प्रकार युद्घ के क्षण में मोहित और व्यथित होना श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण के विरुद्घ है। हे महान प्रतापी अर्जुन! तू हृदय की इस कमजोरी को त्याग कर युद्घ कर और नपुंसकों जैसा व्यवहार मत कर।' अर्जुन कहता है कि ये धृतराष्ट्र के पुत्र भी हमारे आत्मीय हैं और पितामह भीष्म और गुरु द्रोण से युद्घ करने की अपेक्षा भिक्षा मांग कर जीवन जीना (जो क्षत्रियों के लिए निंदित माना जाता था) बेहतर है। तब श्रीकृष्ण बातचीत के दूसरे तल पर आते हैं और कहते हैं कि तू ज्ञानियों जैसी बातें कर रहा है लेकिन आचरण नासमझी भरा है। मृत्यु अटल है, आज नहीं तो कल सभी को इसकी गोद में जाना है। मृत्यु कब होती है यह महत्वपूर्ण नहीं है, मृत्यु कैसे होती है यह अधिक महत्वपूर्ण है। वे अर्जुन से कहते हैं कि मैं, तू, दुयार्ेधन, भीष्म, द्रोण, ये सभी चैतन्ययुक्त आत्मा हैं। शरीर जन्मता, बढ़ता और मरता है, आत्मा अजन्मा और अमर है। मैं, तू और ये सभी हमेशा से थे और हमेशा रहेंगे। गीता के सारे संवाद में जैसे-जैसे विषय आते हैं, उस-उस प्रकार से कृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हैं। वे कभी उसे कुंतीपुत्र होने का स्मरण दिलाते हैं तो कभी गांडीवधारी होने का। कभी पार्थ कहते हैं तो कभी धनंजय। कभी भरतश्रेष्ठ कहते हैं, तो कभी सिर्फ अर्जुन कह कर बुलाते हैंं।
उपासना पद्घतियों की स्वतंत्रता
उपासना पद्घतियों की स्वतंत्रता हिन्दू जीवन दर्शन का मूलभूत गुण है। यह दृष्टि गीता में कहे गए श्रीकृष्ण के वचनों द्वारा पुष्ट और समृद्घ होती है। चौथे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कृष्ण कहते हैं –
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्म्तानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।
हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं,मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूं क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि श्रद्घापूर्वक जो भी समर्पित किया जाता है। वह पवित्र होता है। अर्जुन जब साधना और ईश्वर प्राप्ति के विषय में जिज्ञासा करता है, तो वे उसे एक के बाद एक अनेक मार्ग बतलाते हैं। वे उसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, प्रेमयोग, भक्ति योग, राजयोग आदि के बारे में बतलाते हैं और अंत में अठारहवें अध्याय के तिरसठवंे श्लोक में कहते हैं-
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुहाद्रुहतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभांति विचारकर जैसे चाहता है वैसे ही कर।
इसके मूल में हिन्दू जीवन दर्शन का यह मूलभूत तत्व है कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में अनोखा है। सबकी अलग-अलग रुचियां और स्वभाव हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि और स्वभाव के अनुसार साधना मार्ग अथवा उपासना पद्घति चुनने का अधिकार है। क्या प्रत्येक व्यक्ति चित्रकार बन सकता है? क्या प्रत्येक व्यक्ति गायक अथवा वैज्ञानिक बन सकता है? क्या सभी छात्रों को एक ही विषय पढ़ना चाहिए? इसीलिए गीता उपासना पद्घति को व्यक्तिगत चुनाव का विषय बताते हुए सबके प्रति समभाव रखने का संदेश देती है।
मानवमात्र का ग्रंथ गीता
श्रीमद्भगवद् गीता में अर्जुन के माध्यम से श्रीकृष्ण ने समस्त मनुष्य जाति को संबोधित किया है। मानव मन की चंचलता की व्याख्या होती है। संशय रहित स्थिर बुद्घि कैसे प्राप्त होती है, इसका विश्लेषण होता है। चित्त, अहंकार, इंद्रिय वासनाएं आदि का विचार होता है। ईश्वरीय तत्व की चर्चा होती है, ईश्वर के विभिन्न नामों की नहीं। ग्रंथों के स्थान पर ज्ञान की चर्चा होती है और उपासना पद्घतियों के स्थान पर उपासना के सार के बारे में कहा जाता है। गीता घोषणा करती है कि संसार के सभी मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। पांचवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में कृष्ण कहते हैं –
' जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं एवं ज्ञान के द्वारा जिनके सारे संशय समाप्त हो गए हैं, जिनका मन शांत हो गया है, जो सभी प्रणियों के हित में लगे हुए हैं ऐसे ब्रह्म को जानने वाले पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।' मानव की श्रेष्ठता की कसौटी स्थापित करते हुए कृष्ण कहते हैं कि जो मित्र, हितैषी, शत्रु, उदासीन, अपने से द्वेष करने वाले बंधुओं, धर्मात्मा और पापी सबके प्रति समान भाव (प्रेम व करुणा) रखता है। वह मनुष्य श्रेष्ठ है।
कर्मशील आध्यात्मिकता
गीता परिस्थितियों और जीवन से भागने के पक्ष में नहीं है बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण को पूरी जीवंतता के साथ जीने को कहती है। मोहवश अर्जुन युद्घक्षेत्र से पलायन करना चाहता है, परंतु कृष्ण उसे रोकते हैं और समझा-बुझाकर उसका चित्त शांत करते हैं। जब वे कहते हैं, कि कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फल पर नहीं, तो उसका आशय संपूर्णता के साथ कर्म करना ही होता है। यहां अधिकार शब्द इसी बात को इंगित करता है। पांचवे अध्याय के प्रारंभ में कृष्ण बताते हैं कि सारे कर्मोंं का त्याग कर साधना करना (कर्मसंन्यास) भी साधना का एक मार्ग है, परंतु सारे कमांर्े को पूरा करते हुए साधना करना (कर्मयोग) बेहतर होता है, क्योंकि कर्म करने से ही मनुष्य अपनी कमजोरियों से उबर पाता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि पानी में उतरे बिना तैरना नहीं सीखा जा सकता। इसी अध्याय के चौथे श्लोक में वे कहते हैं कि मूर्ख लोग ही संन्यास और कर्म योग को अलग-अलग फल देने वाला कहते हैं। कर्मयोगी और संन्यासी दोनो परमज्ञान को उपलब्ध होते हैं।
तीसरे अध्याय में बाइसवंे श्लोक में कृष्ण कहते हैं, कि मैं किसी कर्तव्य से बंधा हुआ नहीं हूं, न ही कुछ प्राप्त करने योग्य मेरी पहुंच से बाहर है। मेरी कोई इच्छा भी नहीं है। तो भी मैं निरंतर कर्म करता हंू। योगी और ज्ञानी को वेश, आकृति, आचार-विचार के आधार पर व्याख्या न करते हुए कृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य काम, क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही योगी है।
सार ग्रहण करने की शिक्षा
ग्यारहवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि मुझे न वेदों से जाना जा सकता है, न तप से , न दान से, न यज्ञ से। परंतु जो आसक्ति रहित रहकर कर्म करता है और किसी भी प्राणी से बैर नहीं रखता वह मुझे प्राप्त करता है। चौथे अध्याय में वे कहते हैं इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है। जिसने इंद्रियों को जीत लिया है, श्रद्घावान है और साधना में लगा हुआ है उसे ज्ञान प्राप्त होता है। बारहवें अध्याय में वे कहते हैं कि जो मन के उद्वेगों से मुक्त है, भीतर-बाहर से शुद्घ है, पक्षपात नहीं करता, द्वेष रहित हो कर बिना स्वार्थ के सबसे प्रेम करता है, दयालु है, अहंकार रहित और संतुष्ट है, किसी को अकारण भयभीत नहीं करता, वह मुझ को प्रिय है। जो शत्रु-मित्र में, मान-अपमान में, सर्दी-गर्मी में, सुख-दुख में समान रहता है वह मुझे प्रिय है।
सारी सृष्टि के साथ एकात्मता का भाव
हिन्दू जीवन दर्शन में उपासना व्यक्तिगत विषय है परंतु प्रेरणा सारी सृष्टि के साथ एकात्म होने की है। सातवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं 'पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश, मन, बुद्घि और अहंकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। मैं संपूर्ण जगत का मूल कारण हूं।' यह व्याख्या सारे मनुष्यों को एक दूसरे के साथ एवं संपूर्ण सृष्टि के साथ एकाकार कर देती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस जगत में कुछ भी मुझ से अलग नहीं है। यह सारा संसार माला के मोतियों की तरह मुझमें गंुथा हुआ है। नौवें अध्याय में कहा गया है 'मै यज्ञ हूं, स्वधा हूं, औषधि हूं, मंत्र हूं, घृत हूं और हवन रूपी क्रिया भी मै ही हूं।' दसवें अध्याय में वे कहते हैं 'जलाशयों में मैं समुद्र हंंंू, वृक्षों में पीपल, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत, गायों में कामधेनु हूं। नागों में मैं शेषनाग, दैत्यों में मैं प्रहलाद, पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूं। मछलियों में मैं मगर, और नदियों में गंगा हूं। हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं। इन्ही प्रेरणाओं के कारण सनातन काल से हिंदू संस्कृति पर्यावरण का पोषण करती आई है।
धर्म की व्याख्या
गीता अपने आप में धर्म की भी व्याख्या है। गीता के प्रथम शब्द में ही धर्म है। महाभारत के युद्घ में एक ही परिवार के, एक ही कुल देवता एवं कुल देवी की पूजा करने वाले एक सी परंपराओं का पालन करने वाले संबंधी युद्घरत हैं। और इस युद्घ को धर्मयुद्घ कहा गया है। यह अपने आप में सिद्घ करता है कि धर्म का पूजा पद्घति से कोई लेना देना नहीं है, जो धारण करता है वह धर्म है। सृष्टि के जिन नियमों के आधीन हो कर धरती पर जीवन है, समाज और परिवार जिन कर्तव्यों के आधार पर चलायमान है, ये सब धर्म का अंग हैं।
समाज और राष्ट्र की सनातन धाराओं का पोषण करने वालों को धर्मज्ञ कहा गया। इस धारा को करने का प्रयास करने वालों को अधर्मी कहा गया। इसी संदर्भ में कृष्ण ने कहा है कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्घि होती है तब-तब मैं प्रकट होता हूं। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए तथा धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में अवतार लेता हूं। गीता में कृष्ण ने अर्जुन को अपने धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन करने को कहा है। -प्रशांत बाजपेई

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