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सबके साथ सबके विकास की चिंता करनी होगी
अस्सी के दशक के अंत के आस पास एक जमाना था जब भारत के नागरिक अक्सर अपने इस देश में पैदा होने को कोसते रहते थे। पर आज नजारा बदल गया है। वे दिन गए जब आईआईम, आईआईएक सरीखे रसूखदार संस्थानों से पढ़े होनहार स्नातक कैरियर के लिए देश के बाहर ताका करते थे। आज देश के भीतर ही रोजगार के ढेरों अवसर हैं जिनमें काम की गुणवत्ता और वेतन दोनों हैं। इसी तरह घरेलू व्यवसायी दूसरे देशों में चल रहे उद्योगों को अपने हाथ में लेने के लिए प्रयासरत हैं। आज भारत ऐसा देश है जिसको अपने में एक भरोसा है, चाहे निवेशक हो या आम नागरिक।
मई 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद से बाहर की दुनिया ने भारत को एक लंबी दूरी के एक काबिल धावक के तौर पर देखना शुरू कर दिया था। तब दुनिया का ध्यान भारत की ओर इसलिए खिंचा था क्योंकि एक, उस परीक्षण से जुड़े तमाम वैज्ञानिक भारतीय विश्वविद्यालयों से निकले थे जिन्होंने कभी किसी बाहर के विश्वविद्यालय का अनुभव नहीं लिया था। दूसरे, पूरा अभियान गुप्त तरीके से चला। तीसरे, तब विकसित देशों की लगाई पाबंदियों को भारत ने किसी खूबी के साथ संभाला था।
विश्वास से भरे भारतीय समाज को तत्कालीन वाजपेयी सरकार की नीति के बल से संबल मिलता था। इसके जो नतीजे आए, वे सबके सामने हैं। देश के हर हिस्से में आज चार लेन के राजमार्ग हैं। इनसे देश में तेजी से बढ़ने और सबको साथ लेकर तरक्की करने का एक अहसास जगता है। अब गांव का किसान भी स्थानीय से लेकर विदेशी बाजारों तक पहुंच रखता है ताकि उसके उत्पाद की सही कीमत उसे मिल जाए।
क्रय शक्ति की बात करें तो भारत, अमरीका और चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर उभरा है। अगले दो दशक में हमारे नंबर दो पर आने की काफी उम्मीद जगी है। तमाम आर्थिक सूचकांक लगातार सुधरती आर्थिक संपन्नता दर्शाते हैं। 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार महज 1.1 अरब अमरीकी डालर था जो ले-देकर बस एक हफते की आयात जरूरतों को ही पूरा करने लायक था। हमें तो दो देशों के पास अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ा था, ताकि कुछ भुगतान चुकाया जा सके। लेकिन आज हमारी स्थिति आरामदेह है, विदेशी मुद्रा भंडार 320 अरब डालर से ज्यादा है। आज, भारत दुनिया के मंच पर अपनी एक पहचान रखता है। दो दशक पहले, हमारे ऊपर 14000 चीजों के आयात पर पाबंदी लगाई गई थी। आज चाहे कोई विदेशी उत्पाद हो, आम जैसे फल से लेकर किसी भी उपभोक्ता वस्तु तक, हर चीज भारतीय बाजार से खरीदी जा सकती है। लेकिन इससे घरलू उद्योग पर कोई बुरा असर नहीं पड़ा है। चीनी माल के भारत के बाजारों में आना शुरू होते वक्त भी भारत के अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पाद निर्माताओं को भरोसा था कि अब भी उनकी चीजें चीनी उत्पाद के मुकाबले चार गुना कीमत में खरीदी जाएंगंी। इतना ही नहीं, भारत के कई उत्पाद विदेशी बाजारों में अच्छा मुकाबला कर रहे हैं। वैश्वीकरण लेन-देन का खेल है, इस प्रक्रिया में दोनों का फायदा होता है।
वह जमाना भी था जब विकसित देश भारत जैसे देशों को पूरी तरह अपने फायदे की शर्तों पर चलाया करते थे। वास्तव में तो जब 1955 में विश्व व्यापार संगठन अस्तित्व में आया था,तब शुरुआती शर्तें अमरीका और यूरोपीय संघ द्वारा लादी गई थीं। भारत जैसे देश अपने हित बचाने की स्थिति में नहीं थे। लेकिन 2001 के बाद से हालात में बदलाव हुआ, जब भारत ने चीन और ब्राजील सहित दूसरे विकासशील देशों के साथ मुहिम चलाकर विकासशील देशों के हितों को आगे रखना शुरू किया। हाल में संपन्न इस संगठन की मंत्री स्तरीय बैठक में भारत खाद्य सुरक्षा को लेकर विकासशील देशों के गरीबों के हितों को बचाने के मुद्दे पर डटकर खड़ा रहा। विकसित देशों को साफ कह दिया कि ट्रेड फेसिलिटेशन एग्रीमेंट पर तब तक दस्तखत नहीं करेंगे जब तक कि विकासशील देशों की खाद्य सुरक्षा संबंधी मांगें नहीं मानी जातीं। दो दशक पहले कोई इस तरह की दृढ़ता की कल्पना तक नहीं कर सकता था।
पिछले छह दशक के आर्थिक विकास के नतीजे दूसरे क्षेत्रों में भी स्पष्ट दिखते हैं। उदाहरण के लिए, 1980 में 46 प्रतिशत रही गरीबी रेखा आज 20 प्रतिशत पर आ चुकी है। पिछले छह दशक में गरीबी का प्रतिशत बेहद नीचे आया है। ये उपभोग के तरीकों, खान पान और रहन सहन के स्तर से भी झलकता है। ग्रामीण इलाकों में उपभोग के तरीकों में बहुत ज्यादा बदलाव देखने में आया है। 1980 में कुल आबादी के सिर्फ 8 प्रतिशत या 6.50 करोड़ लोग ही मध्यम वर्ग के तहत दर्ज थे। आज मध्यम वर्ग का आकार 32 प्रतिशत या 37 करोड़ तक बढ़ गया है। आश्चर्य नहीं कि एक मूक क्रांति के जरिए हाल के चुनाव में, दो दशक से ज्यादा वक्त के बाद एक ही पार्टी की सरकार बनने का रास्ता साफ हुआ।
बाजार की बात करें तो भारत में आर्थिक विकास घरेलू बाजार की अगुआई में ही हुआ यानी भारत के नागरिकों की अगुआई में हुआ। इसमें 64 प्रतिशत विकास उपभोग में दिखे नए स्वरूप की वजह से हुआ है। चीन हो, अमरीका या दक्षिण कोरिया, दूसरे ज्यादातर देश काफी कुछ निर्यात पर निर्भर करते हैं। इसीलिए भारत दुनिया के आर्थर्िक उठापटक से बेअसर रहता है। 2008-09 में अमरीकी बाजार के उखड़ जाने से उपजे आर्थर्िक संकट के दौरान भी आईटी, हीरा और कपड़ा जैसे निर्यात-संवेदी क्षेत्रों को छोड़कर भारत उससे बेअसर रहा था।
तब भी, क्या हम विकास के लाभों को शांतिपूर्ण तरीके से उठा सकते हैं? आज भी भले हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, तब भी ऐसे कई संकेत हैं जो हमें बेचैन करते हैं। मानव विकास के आंकड़ों की नजर में 175 देशों में भारत का नंबर 135 है। गरीबी की परंपरागत परिभाषा की नजर से देखें तो अब भी 1/5 आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी जीवनावश्यक बुनियादी सुविधाओं से दूर है। यह एक बड़ी वजह है जिसके चलते गांवों में लड़कियां शोषण की शिकार हो रही हैं। ज्यादातर गांवों में आज भी पेयजल, स्वास्थ्य और अच्छी प्राथमिक शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।
इस मौके पर संसाधनों की प्राथमिकता फिर से तय करना आसान विकल्प नहीं है। क्या विकास के कदमों का लाभ ले रहा मध्यम वर्ग तब तक सरकारी सब्सिडी छोड़ने को तैयार है जब तक कि गरीब तबका एक सम्मानजनक स्तर तक न उठ जाए? गैस सब्सिडी घटाने पर जनता की जैसी प्रतिक्रिया दिखी उससे तो शक होता है कि जनता ऐसे किसी त्याग के लिए राजी होगी। ऐसे में बढ़ती सामाजिक उथलपुथल को झेलने के लिए तैयार रहने के अलावा कोई खास चारा भी नहीं है। मीडिया के बढ़ते असर और सामाजिक आंदोलनों के चलते गरीब तबके ने अपने हकों के लिए आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी है। वक्त आ गया है कि हम विकास के फायदे गरीबों तक भी पहुंचाने के सरकार के प्रयासों में अपनी तरफ से मदद करें। तभी हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के लाभ गर्व के साथ उठा सकते हैं।
– डा. जगदीश शेट्टीगर, (लेखक बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टैक्नोलॉजी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। और पूर्व राजग सरकार में प्रधानमंत्री की अर्थ सलाहकार परिषद के सदस्य रहे हैं।)
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