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शताब्दियों के संघर्ष के बाद गुलामी से छुटकारा पाकर भारत ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की और एक संप्रभु लोकतंत्र के रूप में खड़ा हुआ। 26 जनवरी, 1950 को हमारा संविधान लागू हुआ। आज देश के लगभग सभी राज्यों में उच्च न्यायालय स्थापित हो गए हैं। लेकिन इसके बावजूद भी संविधान में निहित न्यायिक संगठन और कार्य पद्धति के स्तर पर कहीं भी एकरूपता नहीं दिखाई देती। हमारे संविधान का पहला और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सारी वैधानिक शक्तियां और उच्च न्यायालयों का गठन संसद के जिम्मे है। 1935 के भारत सरकार के अधिनियम के अनुसार संविधान और कानून के लिए किसी भी नियम या बदलाव की ताकत वैधानिक संस्थाओं में निहित है। संविधान में इस संवैधानिक शक्ति को प्रविष्टि-78 के अन्तर्गत संघ सूची में जोड़कर विशेष तौर से अंतरित कर दिया गया। यह परिवर्तन इस उद्देश्य से किया गया कि संवैधानिक रूप से उच्च न्यायालयों में एकरूपता लायी जाए। प्रत्येक राज्य में न्याय के लिए प्रतिवेदन हेतु उच्च न्यायालय को अपील करने एवं पुनर्विचार याचिका के लिए सबसे बड़ी शक्ति माना जाता है। इस परिवर्तन के विषय में संविधान सभा में अलादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था- 'हमने पहले ही यह कदम उठा लिया है कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होगी, दूसरा- जहां तक गठन और विधायी शक्ति का प्रश्न है उसमें यह होना चाहिए कि देश के सभी हिस्सों में उच्च न्यायालयों में एकरूपता हो। इस एकरूपता को सुनिश्चित करने की शक्ति केन्द्र सरकार को प्रदान की गयी है। ऐसा भी है कि एक ओर वर्षों से उच्च न्यायालय चल रहे हैं दूसरी ओर कुछ नये खुल रहे हैं, ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकार या संसद के हाथों यह दायित्व देना सही रहेगा।' इसलिए यह स्पष्ट है कि देश के सभी न्यायालयों में एक समान न्याय व्यवस्था, तंत्र और गठन संसद के द्वारा ही सुनिश्चित किया जा सकता है।
इसके साथ ही संविधान के अनुच्छेद 4 के तहत जब राज्य के लिए नया कानून बनाना हो या 'न्याय के शासन' की बात हो तो संविधान के 42वें संशोधन, अधिनियम 1976 के तहत इन शक्तियों को समवर्ती सूची में परिवर्तित किया जा सकता है। आज देखने में यह आता है कि कई उच्च न्यायालय आज भी अंग्रेजों की पद्धति पर चल रहे हैं और कई नये अलग तरह से। संविधान के अनुसार देश के लिए सबसे बड़ा न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के रूप में स्थापित किया गया। इसी प्रकार प्रत्येक राज्य में अनुच्छेद 214 के तहत उच्च न्यायालय स्थापित किये गये। कुछ उच्च न्यायालयों में दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा निर्णय दिये जाते हैं। कुछ उच्च न्यायालयों में याचिकाएं डिजीजन वेंच द्वारा देखने के बाद एकल न्यायाधीश को अग्रसर कर दिया जाता है। कुछ उच्च न्यायालयों में एकल न्यायाधीश द्वारा याचिका को डिवीजन बेंच के लिए अग्रसारित कर दी जाती हैं। कुछ उच्च न्यायालयों में उनकी डिवीजन बेंच उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील को स्वीकार करती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि लगभग सभी उच्च न्यायालयों में निर्णय के विरुद्ध अपील और आंतरिक प्रक्रियाओं में परस्पर अलग-अलग कार्यप्रणालियां और तौर-तरीके हैं। एकल न्यायाधीश का निर्णय, दो न्यायाधीशों की बेंच के निर्णयों पर भी सब की अलग-अलग सोच है। सर्वोच्च न्यायालय ने शंकर रामचन्द्र अभ्यंकर विरुद्ध कृष्णजी दत्तात्रेय बापट (एआईआर-1970 एस सी, पृष्ठ 1) प्रकरण में अपील का आशय बताते हुए कहा है- 'अपील के अधिकार से आशय है कि अपनी बात को बड़े न्यायालय में पहुंचाना और निचली अदालत के निर्णय से कुछ ज्यादा के लिए प्रयास करना। अपीलीय प्राधिकरण के लिए भी आवश्यक है कि वह उच्च और निम्न अदालतों के निर्णयों का उचित मूल्यांकन कर, पहले की समीक्षा कर सुनिश्चित निर्णय दे'।
सामान्यत: देखने में यह आता है कि किसी एकल न्यायपीठ का निर्णय उसी उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा नकार दिया जाता है। यदि अपील का कोई अर्थ हो,जैसे उच्च न्यायालय ने घोषित किया है तो, फिर एक ही न्यायालय के अन्दर अंत:न्यायालीयन अपीलों को रोका जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। लगभग छह दशक बीत गए सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 136 में संशोधन करते हुए उच्च न्यायालयों की पुनर्संरचना की आवश्यकता है और उसे इन बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में लागू किया जा सकता है। यह सुनिश्चित करना होगा कि सामान्य सिविल और आपराधिक मामलों के लिए राज्य अपनी ओर से नागरिकों के लिए कोष और प्रभावी अंतिम अपील उपलब्ध करवाएगी। प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को पुनर्गठित करते हुए दो भागों में बांटना चाहिए और प्रत्येक राज्य में अपील के लिए विशेष व्यवस्था होनी चाहिए। प्रत्येक राज्य में अपीलीय प्राधिकरण बनाया जाना चाहिए।
अनुच्छेद 136 में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि सर्वोच्च न्यायालय में लंबित कई अपीलों का दबाव कम हो और कुछ विषय राज्य स्तर पर ही निपटा दिये जाएं। सर्वोच्च न्यायालय में संविधान की व्याख्या संबंधी प्रकरणों का निपटारा हो अथवा राष्ट्रीय महत्व का कोई मामला जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की सलाह की आवश्यकता पड़ती है। अथवा जब उच्च न्यायालयों के बीच में किसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर मतभेद उत्पन्न हो तब सर्वोच्च न्यायालय में ये मुद्दे जाने चाहिए।
ऐसा करने से बहुमूल्य समय और ऊर्जा की बचत होगी तथा उच्च अदालतों में काम-काज बढ़ेगा। सप्ताह में दो दिन विशेष की छुट्टी को निरस्त करते हुए काम पर जोर रखा जाए। इससे सर्वोच्च न्यायालय को राष्ट्रीय महत्व के बड़े मामलों को सुलझाने में सुविधा प्राप्त होगी। कुल मिलाकर आजादी के 67 साल बाद देश में न्याय प्रणाली का जो स्वरूप हमें दिखायी देता है उससे यह स्पष्ट होता है कि अनुच्छेद 136 में संशोधन कर उच्च न्यायालय के न्याय क्षेत्र की पुनर्संरचना करने की आवश्यकता है। यह आज हमारी राष्ट्रीय जरूरत है और एक राष्ट्रीय न्यायायिक आयोग का भी गठन होना चाहिए जो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की उचित नियुक्ति करे।
लेखक पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, झारखण्ड और बिहार के पूर्व राज्यपाल तथा वर्तमान में राज्यसभा
सांसद हैं।
न्यायपालिका की कमजोरी
न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के अंतर्गत एक 'कॉलिजियम' करता है। हाल ही में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने आरोप लगाया था कि मद्रास उच्च न्यायालय में एक अतिरिक्त न्यायाधीश थे जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। उन्हें तमिलनाडु में सीधे जिला दण्डाधिकारी बना दिया गया था और जिला दण्डाधिकारी के तौर पर मद्रास उच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों ने उनके खिलाफ आठ टिप्पणियां दर्ज की थीं। लेकिन मद्रास उच्च न्यायालय के एक कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश ने एक बार में उन सब टिप्पणियों को काट दिया जिसके बाद वह न्यायाधीश उच्च न्यायालय में अतिरिक्त न्यायाधीश बनाये गये। इस प्रकरण के बाद न्यायपालिका पर बाहरी दबाव, राजनीतिक हस्तक्षेप की चर्चाएं गरम हो गईं। इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ए. के. गांगुली पर इंटर्नशिप करने वाली छात्रा से छेड़छाड़ का आरोप, पूर्व न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार पर एक महिला के यौन शोषण का आरोप, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश निर्मल यादव पर एक मामले में 15 लाख रुपये लेने का आरोप और कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश सौमित्र सेन पर 24 लाख रुपये का गबन करने के आरोप लग चुका है
न्यायपालिका की चुनौती
देश में समय-समय पर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे पूरी व्यवस्था पर असर पड़ता है। यदि कार्यपालिका कि सी विषय पर न्यायपालिका के आदेश की अनदेखी करती है या फिर उसके लिए पुनर्विचार याचिका दायर करती है तो इससे टकराव और भी बढ़ जाता है। 10 जुलाई, 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा था कि यदि किसी सांसद या विधायक को किसी मामले में दो साल या उससे अधिक की सजा होती है तो उसकी संसद या विधानसभा से सदस्यता स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व की धारा 8(4) को निरस्त कर दिया था। इसके तहत ऐसे जनप्रतिनिधि को न तो चुनाव लड़ने का अधिकार होगा और न ही वे जेल से मतदान कर सकेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के तुरंत बाद राजनीतिक गलियारों में हलचल शुरू हो गई थी और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने इस फैसले को पुनर्विचार याचिका के माध्यम से चुनौती दी थी जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था। इसके बाद सरकार ने इस पर अध्यादेश जारी करने का निर्णय लिया था, लेकिन बाद में 2 अक्तूबर, 2013 को सरकार ने उसे भी वापस ले लिया था।
अवसर
भारत में न्यायपालिका को समय-समय पर अपनी शक्ति के प्रयोग और गलत कानून बनने पर उसे रोकने के अवसर प्राप्त हुए हैं। न्यायपालिका के समक्ष इस समय निचले न्यायालयों में लंबित मामलों का अतिशीघ्र निपटारा और व्याप्त भ्रष्टाचार पर रोकथाम लगाना प्रमुख है। न्यायपालिका में अच्छे लोगों के आने की आवश्यकता है और न्यायाधीशों को राजनीतिक प्रभाव से ऊपर उठकर दृढ़ता से निष्पक्ष रहने की आवश्यकता है।
न्यायपालिका की शक्ति
भारत में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान से पर्याप्त शक्तियां प्राप्त हुई हैं। भारत में संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को स्वीकारा गया है। देश में संविधान को मौलिक विधि माना गया है। यह केन्द्र तथा राज्य सरकारों की राजनीतिक सत्ता का स्रोत और नागरिकों के अधिकारों एवं कर्तव्यों का निर्धारक है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक है। यह सरकार द्वारा किसी अन्य शक्ति के जरिए संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन को रोकता है। कई बार विधायिका द्वारा बनाये और कार्यपालिका द्वारा लागू किए कानून को संविधान के विरुद्ध पाये जाने पर न्यायपालिका उसे अमान्य करार दे सकती है। इससे स्पष्ट है कि भारत में विधायिका और कार्यपालिका केवल उन्हीं विषयों पर कानून बना सकती हैं, जो कि संविधान द्वारा उन्हें सौंपे गये हैं। इसके विपरीत जाने पर न्यायालय को पूर्ण रूप से उल्लंघन को रोकने का अधिकार प्राप्त है। न्यायपालिका कई बार केन्द्र व राज्य सरकार के बीच उत्पन्न विवादों को रोकने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से उसके अधिकारों की रक्षा करती है।
-न्यायमूर्ति डॉ. एम.रामा. जॉयस
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