समाज - 67 वर्षों में क्या खोया, क्या पाया?
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समाज – 67 वर्षों में क्या खोया, क्या पाया?

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Aug 11, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Aug 2014 12:32:34

आजादी के 67 वर्ष बाद भी भारत प्रगतिशील देशों की श्रेणी में खड़ा है, जबकि भारत से बाद में आजाद हुए या द्वितीय विश्व युद्ध में 'मरघट' बन गए देश भारत से काफी आगे बढ़ चुके हैं। उन देशों में लोग स्व-अनुशासन पर चलते हुए देश पर मर मिटने को तैयार रहते हैं, जबकि हमारे यहां इस भाव की थोड़ी कमी दिखती है।

 

स्वाधीन भारत के 67 वर्ष बीत चुके हैं। हम जाने कितने सामाजिक एवं राजनीतिक उतार-चढ़ावों के बीच से गुजरकर उस पड़ाव पर खड़े हैं, जहां से एक बार अपनी उपलब्धियों के पुनरावलोकन की आवश्यकता है। यह सच है कि एक हजार वषार्ें की दासता ने हम पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। आततायी कुसंस्कृतियों के झंझावातों ने हमारे मूल से हमें उखाड़ने की अनेक कोशिशें कीं। गुलामी के काल से पूर्व हम विश्व गुरु थे। धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मोचार्ें पर हम विश्व की मिसाल थे। लेकिन एक हजार वषार्ें तक लगातार हुए आक्रमणों ने हमें तोड़कर रख दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे पुरखे अपनी विकट जीवटता के साथ लगातार उन ताकतोें से लोहा लेते रहे जो इस देश को धूल-धूसरित कर देना चाहती थीं। उनसे केवल पराक्रमी शासक ही नहीं लड़े बल्कि भारतवासियों के हर वर्ग ने अपने-अपने स्तर पर राष्ट्र को दासता से मुक्त करने के लिए संघर्ष किया। पहले मुगलों और फिर अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बना लेने का प्रयत्न किया। विकट बलिदानों के बाद दासता के घने अंधियारे से स्वाधीनता का सूयार्ेदय हुआ। 15 अगस्त, 1947 वह दिन था जब हमने अपने सपनों के भारत निर्माण की दिशा में पहला कदम बढ़ाया था। लेकिन आजादी के इतने वषार्ें बाद क्या हम सही मायनों में उस दिशा की ओर बढ़ सके हैं, जिसकी कल्पना करते हुए स्वाधीनता संग्राम के योद्घाओं ने उस संघर्ष यज्ञ में स्वयं को आहूत किया था?
इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए बहुत गहराई से देश की स्थिति का अध्ययन करने पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आजादी मिलने के बाद वषार्ें तक हमारा तंत्र अपनी प्राथमिकताएं ही तय नहीं कर सका। बेशक इन वषार्ें में हमने बहुत प्रगति की है। आज हमारा विज्ञान शेष विश्व से कदम मिलाकर चल रहा है। परमात्मा ने इस देश की भूमि को उस प्राकृतिक संसाधनों के भण्डार से परिपूत किया है जो किसी भी राष्ट्र की सच्ची शक्ति होता है। हमारे पास पर्याप्त मात्रा में जमीन है, जल है, जंगल हैं, खनिज भण्डार हैं और वह अपार जनशक्ति है जिसके बल पर उन्नति के शिखरों को छुआ जा सकता है। फिर क्यांे हम कहीं न कहीं पिछड़ रहे हैं? क्या कारण हैं जो हम दुनिया के विकसित देशों की तुलना में अभी भी पचास वर्ष पीछे चल रहे हैं? इसका उत्तर जानने के लिए हमें शेष विकसित विश्व से अपनी तुलना करनी पड़ेगी।
मैं अपने धार्मिक प्रवासों के अंतर्गत दुनिया के एक बड़े भाग में भ्रमण कर चुकी हूं। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि दुनिया के अनेक ऐसे भू-भाग जो मौसम और अनेक प्रकार की भौगोलिक विषमताओं के बावजूद अपनी राष्ट्रभक्ति के दम पर लगातार आगे बढ़ रहे हैं। मैंने देखा कि वहां कर्म के मामले में कोई भी किसी पर निर्भर नहीं है। सब अपने-अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। स्व-अनुशासन से प्रेरित होकर वे उन नियमों का पालन करते हैं, जो व्यवस्थाओं के संचालन के लिए निर्धारित किए गए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वहां का प्रशासनिक तंत्र भी उन नियमों का वैसे ही पालन करता है जैसे कि आम जनता। लोग अपने लिए निर्धारित हर कार्य को राष्ट्रकार्य मानते हैं।
एक अरब की विराट जनसंख्या को अपने भीतर समेटे हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि ज्यादातर लोग अपने कायार्ें को राष्ट्रोत्थान से जोड़कर नहीं देखते। प्राचीन भारत के ऋषि-मुनियों ने समाज की प्रत्येक व्यवस्था को धर्म से जोड़ा था ताकि लोग उसका पालन अनिवार्य रूप से कर सकें। उन्होंने इस बात पर विशेष जोर दिया था कि मानव को जितना संभव हो सके प्रकृति के निकट रहना चाहिए। अर्थात् प्रगति तो हो लेकिन प्रकृति को नष्ट करके नहीं। आज जाने कितनी सुख-सुविधाओं के बीच हम रह रहे हैं लेकिन धर्म का मर्म हमारे अन्दर से लुप्त है। हम आधुनिक जगत् की चकाचौंध में प्राचीन ग्रंथों में लिखी बातों को नकार रहे हैं और यही हमारे दु:खों का मुख्य कारण है। आप यदि पौराणिक कहानियों को कपोल-कल्पित भी मान लें तो भी हरेक कहानी में कुछ न कुछ सन्देश छुपा है।
समाज के नैतिक पतन का एक बहुत बड़ा कारण है हमारी कथनी और करनी में अन्तर। हम कहते कुछ और हैं, करते कुछ और हैं। हमारे उपदेश केवल दूसरों के लिए हैं, उन्हें हम स्वयं पर लागू करने की कोशिश भी नहीं करते। हम औरांे से तो अपेक्षा करते हैं कि वे हमारा काम समय पर कर दें लेकिन हम अपने कर्तव्यों के प्रति समयबद्घ नहीं हैं। जो अपेक्षाएं हम दूसरों से करते हैं, उनकी पूर्ति दूसरों के लिए हम कितनी कर पाते हैं, क्या हमने इसका आकलन कभी किया है?

हम देश के प्रशासनिक तंत्र से जाने कितनी अपेक्षाएं करते हैं लेकिन उनके पूरा होने में अपनी भूमिका कभी तय नहीं कर पाते। समाज के सुचारू संचालन के लिए तमाम कानूनों का नीति-निर्धारण हमारी सरकारें करती हैं लेकिन निष्ठापूर्वक उनका पालन करने में हम कितने जिम्मेदार हैं, क्या इसका विचार कभी हमने किया? आज बड़ी संख्या में नारी के विरुद्घ संगठित अपराध के मामले निरन्तर सामने आ रहे हैं। किसी 'निर्भया' के जीवन से हार जाने पर सारा देश मोमबत्तियां जलाकर विरोध प्रकट करता है लेकिन उसी भीड़ में जाने कितने लोग ऐसे होते हैं जो अपने ही घर की बहू-बेटियों को प्रकारांतर से प्रताडि़त कर रहे हैं।
अच्छा होता यदि हमने विरोध की मोमबत्तियां जलाने की अपेक्षा अपने अन्दर सद्बुद्धि का एक दीप प्रज्वलित किया होता, इस संकल्प के साथ कि हम समाज सुधार की बात अपने ही घर से शुरू करेंगे। लेकिन हमारे समाज का अधिकांश हिस्सा चरित्र का दोहरापन लिए हुए है, हम कथनी और करनी के अंतर के ज्वलंत उदाहरण हैं। ये बातें भले ही कड़वी लगें लेकिन भारतीय समाज की सचाई हैं। भारत की राजनीतिक नवप्रभात में हमें हर व्यक्ति को यह संकल्प लेना होगा कि मैं एक ऐसे भारत के नवनिर्माण के लिए जिसके नागरिक जाति-पांति, मजहब और सम्प्रदायों की संकुचित सोच से ऊपर उठकर केवल और केवल राष्ट्र के लिए समर्पित हूं।   -साध्वी ऋतम्भरा

समाज के नैतिक पतन का एक बहुत बड़ा कारण है हमारी कथनी और करनी में अन्तर। हम कहते कुछ और हैं, करते कुछ और हैं। हमारे उपदेश केवल दूसरों के लिए हैं, उन्हें हम स्वयं पर लागू करने की कोशिश भी नहीं करते। हम औरांे से तो अपेक्षा करते हैं कि वे हमारा काम समय पर कर दें लेकिन हम अपने कर्तव्यों के प्रति समयबद्घ नहीं हैं।

ताकत
हमारा समाज बहुआयामी और बहुत बड़ा है। हम सब मिलकर बहुत जल्दी अपने देश को दुनिया की एक ताकत बना सकते हैं। हर शुभ काम में बाधाएं आती हैं, उनकी परवाह करने की कोई जरूरत नहीं है।
कमजोरी
हमारे समाज की तीन कमजोरियां हैं-अंधविश्वास, भेड़चाल और अल्पसंख्यकवाद। हैरानी होती है कि लोग बिना कुछ समझे किसी भी चीज पर आंख मूंदकर भरोसा कर लेते हैं और उसके पीछे चल पड़ते हैं। अल्पसंख्यकवाद से समाज टूट रहा है, जबकि समाज को जोड़ने की जरूरत है।
अवसर
समाज जीवन के हर क्षेत्र में सुविधाएं बढ़ी हैं। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति से हम एक क्षण में पूरी दुनिया की खबर ले लेते हैं। मोबाइल फोन की पहुंच गांव-गांव तक हो गई है। बैकिंग सेवा में गजब का परिवर्तन हुआ है। पढ़ाई-लिखाई के साधन, यातायात के साधन में भारी बढ़ोतरी हुई है। नई पीढ़ी को इन सब का लाभ उठाना चाहिए।
चुनौती
सबसे बड़ी चुनौती है बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या। इसके कारण संसाधन कम पड़ रहे हैं। मजहबी उन्माद और जातिवाद का जहर भी कम बड़ी चुनौती नहीं है। दकियानूसी सोच से लोगों को बाहर करना भी एक चुनौती है। गांवों से लोगों का शहरों की ओर पलायन एक बहुत बड़ी चुनौती है। रोजगार के लिए लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। अन्नदाता महानगरों में मजदूरी कर रहे हैं, रिक्शा चला रहे हैं।

-प्रो. अशुम गुप्ता, प्राध्यापक, मनोविज्ञान, दिल्ली विश्वविद्यालय

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