भाषा :क्या गलत हाथों में एक 'सही आंदोलन !
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संघ लोकसेवा आयोग में भारतीय भाषाओं के साथ दोहरे बर्ताव के विरोध में एवं परीक्षा-प्रणाली से सी-सैट हटाये जाने की मांग को लेकर पिछले लगभग एक-डेढ़ महीने से छात्र दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं। छात्रों का कहना है कि वर्तमान परीक्षा-प्रणाली में जो प्रावधान हैं उसमें किसी भी गैर-अंग्रेजीदां परीक्षार्थी का उच्च सेवा में जाना संभव नही है। परीक्षार्थियों की ये मांग बेजां नहीं है बल्कि यह एक वाजिब मांग है। एक सांस्कृतिक राष्ट्र के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य भला क्या हो सकता है कि वहाँ के युवा अपनी भाषा में परीक्षा देकर उच्च सेवाओं में नौकरी लेने के लिए आंदोलन कर रहे हों। हालांकि आंदोलन की शुरुआत से लेकर अबतक इन डेढ़ महीनों में कई स्तरों पर सरकार एवं परीक्षार्थियों के बीच संवाद होता रहा है। इस बावत आंदोलन की शुरुआत में ही, जब यह आंदोलन बहुत व्यापक नहीं हुआ था,तब भारत सरकार में केबिनेट मंत्री वेंकैया नायडू प्रदर्शन कर रहे कुछ छात्रों से मिलकर ये कह चुके हैं कि सरकार जल्द ही वर्तमान नियामकों में बदलाव लाते हुए ऐसे कदम उठाएगी जिससे कि भाषा के आधार पर किसी के साथ दोहरा बर्ताव न हो। इसके बाद भी कई बार ऐसा हुआ है जब भाजपा के तमाम सांसद एवं नेता आंदोलनरत परीक्षार्थियों से मिलते रहे हैं एवं सकारात्मक परिणाम आने के वादे देते रहे हैं। परीक्षार्थियों के आंदोलन और नेताओं के वायदों के बीच पहला बड़ा ऐलान केन्द्र सरकार की तरफ से ये किया गया कि जब तक इस समस्या का कोई ठोस समाधान नहीं निकल जाता तबतक संघ लोकसेवा आयोग आगामी 24 अगस्त की परीक्षा को निरस्त कर दे। साथ ही सरकार द्वारा तीन सदस्यीय समिति का गठन कर इस मामले की रिपोर्ट मांगी गयी। सरकार के इस ऐलान के बाद आंदोलन कुछ थम सा जरूर गया और आमरण अनशन पर बैठे छात्रों ने अनशन तोड़ दिया। लेकिन लगभग दस दिनों बाद जब संघ लोकसेवा आयोग ने अपनी वेबसाईट से आगामी 24 अगस्त की परीक्षा के लिए प्रवेश-पत्र जारी किया तो छात्रों का आंदोलन पहले से ज्यादा उग्र रूप में मुखर हो गया। पहले के लगभग बीस दिनों के आंदोलन की अपेक्षा इस बार का आंदोलन हिंसक था, उग्र था एवं बेकाबू था। पुलिस ने लाठी चलाई तो वहीँ आंदोलनकारियों ने आगजनी तक कर डाली। अब जो आंदोलन दिख रहा है उसकी मांग और उद्देश्य तो वही हैं लेकिन कुछ बातें अवश्य बदल गयी हैं। अब इस आंदोलन में कई छात्र संगठन दिखने लगे हैं। राष्ट्रीय अधिकार मंच के बैनर तले शुरू हुआ आंदोलन खुद दो बैनर के बीच बंट चुका है एवं अलग-अलग नेतृत्व बन चुका है। मंच पर बोलने को लेकर आपसी असहमति,कहा-सुनी तक देखी गयी है। यहां बड़ा सवाल ये है कि आखिर पहले के बीस दिनों तक चले शांतिप्रिय आंदोलन एवं हिंसक शुरुआत के साथ दुबारा उठे आंदोलन के बीच का ये बुनियादी फर्क क्यों है? साथ ही सवाल ये भी है कि जब सरकार के मंत्री सदन के पटल से यह कह चुके हैं कि इस मामले पर गठित की गयी समिति को एक सप्ताह में रिपोर्ट देने को बोल दिया गया है, फिर क्या वजह है कि छात्र अपना धैर्य खो रहे हैं? इन तमाम घटनाओं एवं आंदोलन के बदलते स्वरूप को देखकर तमाम स्तर पर ये बातें भी उठने लगी हैं कि आंदोलन के बड़े स्वरूप को देखकर कुछ लोग इसे हाईजैक करने की कोशिश में भी लगे हैं। आंदोलन से जुड़े कुछ परीक्षार्थी बताते हैं कि नीलोत्पल एवं पवन पाण्डेय के अनशन तोड़ने के बाद आंदोलनकारी दो खेमों में बंट गए। एक खेमा अनशन तोड़ने को जायज बता रहा था तो दूसरा इसके खिलाफ खड़ा था। इसी विरोधाभास की परिणति थी कि राष्ट्रीय अधिकार मंच के बैनर तले खड़ा यह आंदोलन दो मंचों, यानी छात्र अधिकार मंच एवं राष्ट्रीय अधिकार मंच, में बंट गया। राष्ट्रीय अधिकार मंच का नेतृत्व नीलोत्पल एवं पवन कुमार पाण्डेय के हाथों में है जबकि दूसरे का नेतृत्व भाषा आंदोलनकारी श्याम रुद्र पाठक के हाथों में है। आंदोलन से जुड़े कुछ लोग ये स्वीकार करते हैं कि आंदोलन में छात्र संगठनों का सहयोग लिए जाने को लेकर भी आम सहमति नही थी लेकिन फिलहाल अभाविप, एनएसयूआई, सीवाईएसएस (आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई) जैसे छात्र संगठन आंदोलन से अपने स्तर पर जुड़े हुए हैं। चूंकि अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े हुए इन छात्र संगठनों का इस आंदोलन में शामिल होना इस आंदोलन के भटकाव की संभावनाओं को बल देता है। छात्रों की निजी एवं बुनियादी समस्याओं के आधार पर खड़ा एक आंदोलन इन विविध विचारधाराओं के छात्र संगठनों के सहयोग में अपनी राह नहीं भटकेगा, इसकी गुंजाइश न के बराबर है।
इस पूरे प्रकरण के एक दूसरे पक्ष को भी अगर टटोलने का प्रयास करें तो इस पूरे मसले में आंदोलनकारियों की भूमिका के साथ-साथ सरकार एवं संघ लोकसेवा आयोग की भूमिका की पड़ताल भी जरूरी है। यह सर्वमान्य सत्य है कि संघ लोकसेवा आयोग उन स्वायत्त संस्थाओं में से एक है जिसपर कभी किसी तरह के दबाव में काम करने का दाग नही लगा है। निश्चित तौर पर इस संस्था की स्वायत्तता का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जब संघ लोकसेवा आयोग की प्रणाली को लेकर इतना बड़ा आंदोलन चल रहा है तो उस संस्था की तरफ से संवादशून्यता दिखाई जा रही है। कम से कम जनभावनाओं का आदर करते हुए एवं स्थिति को समझते हुए संघ लोकसेवा आयोग को अपने स्तर पर इस पूरे मामले पर संवाद कायम करना चाहिए था। साथ ही सरकार के अनुग्रह को समझते हुए आयोग द्वारा अगर निर्णय आने तक प्रवेश-पत्र जारी नहीं किया जाता अथवा इन्तजार कर लिया जाता तो ज्यादा संवेदनशीलता नजर आती। वहीं अगर बात सरकार की करें तो मोदी सरकार द्वारा इस संदर्भ में उठाये गए कदमों को कम से कम ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है कि सरकार इस मामले पर संवेदनशील नहीं है। भाजपा सरकार के राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह खुद इस मामले को लेकर प्रधानमंत्री से मिल चुके हैं एवं राज्यसभा में यह बोल चुके हैं कि भाषा के आधार पर कोई अन्याय नही होने दिया जाएगा। लेकिन सरकार से ये अपेक्षा है कि वो किसी भी हाल में इस समस्या का समाधान किये बिना आगामी 24 अगस्त की परीक्षा टालने सम्बन्धी जरूरी कार्यवाही करे। तीसरी बात अगर आंदोलनकारियों के लिए कही जाय तो उनसे भी ये अपेक्षा की जाती है कि वो सरकार की कार्यवाही के प्रति संयम रखें एवं भावावेश में उत्पाती रुख न अख्तियार करें। जितना उनका संयम टूटेगा, अराजक तत्वों को आंदोलन भटकाने में उतनी मदद मिलेगी। सरकार की कार्यवाही पर विश्वास दिखाते हुए इन्तजार अवश्य किया जाना चाहिए। इस पूरे मसले पर अपनी टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव कहते हैं कि परीक्षार्थियों की मांग सौ फीसद जायज है लेकिन हाल ही में शान्ति से चल रहा यह आंदोलन जिस ढंग से उग्र हुआ वो चिंताजनक है। प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए तत्पर परीक्षार्थियों को यह समझना चाहिए कि कोई भी संवैधानिक कार्य एक प्रक्रिया के तहत होता है और प्रक्रिया समय लेती है। जब सदन के पटल से सरकार के एक मंत्री एक सप्ताह के भीतर गठित समिति से रिपोर्ट मांगने की बात कह चुके हैं फिर ऐसे उग्र आंदोलन की कोई जरूरत निराधार है। साथ ही इस पूरे मसले पर संघ लोकसेवा आयोग की चुप्पी जरूर निराश करती है। बेशक संघ लोकसेवा आयोग एक सम्मानित एवं स्वायत्त संस्था है मगर जिस ढंग से उसकी प्रणाली को लेकर व्यापक सवाल उठे हैं, उसे संवादशून्य नहीं होना चाहिए । –शिवानन्द द्विवेदी
सरकार द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति प्रतियोगियों की सीसैट पद्धति को परिवर्तित करने की मांग का अध्ययन कर रही है। सरकार की ओर से नि:संदेह यह प्रयत्न किया जाएगा कि ग्रामीण पृष्ठभूमि से सिविल सेवा परीक्षा में शामिल होने वाले प्रतियोगी परीक्षार्थियों को भी न्यायपूर्ण तरीके से समान अवसर प्राप्त हो।
– राजनाथ सिंह, केन्द्रीय गृहमंत्री, भारत सरकार
सरकार विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं और छात्रों की भावनाओं को ध्यान में रखकर इस विषय पर बहुत जल्दी कार्य करेगी। जितनी जल्दी कोई निर्णय निकलेगा, सरकार सदन को भी सूचित करेगी।
-प्रकाश जावड़ेकर, संसदीय कार्य राज्यमंत्री, भारत सरकार
जिस तरह संघ लोकसेवा आयोग का रवैया दिख रहा है इससे भारतीय भाषा के छात्रों का भविष्य नष्ट होगा। यह हमारी मातृभाषा का अपमान है। आयोग सदस्यों के दिमाग में यह बात पक्की है कि देश को चलाने के लिए अंग्रेजी आवश्यक है और बिना अंग्रेजी के देश का कोई भविष्य नहीं है।
-शरद यादव, अध्यक्ष, जनता दल (यू)
हिन्दी को एकमुश्त ढंग से लागू करने का यह सुअवसर है। सरकार की नीति भी ठीक है। आंदोलन का भटकना दु:खद है। केशवकुंज झण्डेवालान ऋषियों और संतों का आश्रम है, कोई संवैधानिक संस्था नहीं फिर वहां दो बार उपद्रव की जरूरत नहीं थी। सरकार हिन्दी के पक्ष में ऐतिहासिक निर्णय तो देगी ही परीक्षार्थियों की आयु और अवसर को ध्यान में रखकर भी कुछ विशेष कदम अवश्य उठाएगी।
-पुपेन्द्र सिंह चौहान, भाषा आंदोलनकारी
दरअसल सिविल सर्विसेज का वर्तमान खाका लगभग वही है जो कभी अंग्रेजों की हुकूमत में उनके द्वारा भारतीयों को उच्चस्तरीय सेवाओं से बाहर रखने के लिए अपनाया जाता रहा। आज महज सरकार बदली है लेकिन सिविल सर्विस की प्रक्रिया कमोवेश वही की वही बनी हुई है। 1854 से पहले तक अंग्रेज इस बात के भी सख्त खिलाफ थे कि भारतीयों को शिक्षा भी दी जानी चाहिए, लेकिन शासन सम्बन्धी मजबूरियों ने 1854 में उन्हें इस सोच को बदलने पर मजबूर किया। इसी के परिणामस्वरूप चार्ल्स वुड ने 1854 में शिक्षा चार्टर लागू किया जिसके तहत भारतीयों को शिक्षित करने की बात की गयी। लिहाजा, सिविल सर्विसेज की उम्र अधिकतम 22 वर्ष रखी गयी जबकि भारतीय बच्चे आठ साल की उम्र में प्राथमिक शिक्षा लेना शुरू करते थे। इस कठिन प्रणाली के बावजूद 1861 में सत्येंद्रनाथ टैगोर ने आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण कर अंग्रेजों के होश उड़ा दिये, लिहाजा अंग्रेजों ने सिविल सर्विस के लिए परीक्षार्थी की अधिकतम उम्र पहले 21 फिर 19 साल कर दी। तत्कालीन दौर में मैकाले ने कहा भी था कि हम ऐसा भारत बना देंगे जो रंग-रूप में तो भारतीय होगा मगर भाषा और संस्कार में अंग्रेजियत का गुलाम रहेगा। आज मैकाले की वो घोषणा साक्ष्यों के साथ प्रमाणित है।
आजादी के बाद भी हम अपनी भाषा को उच्चस्तरीय सेवाओं में लागू करने की बजाय अंग्रेजियत को ढोते रहे। अब आंदोलन की बारी स्वयं की चुनी हुई अपनी लोकतांत्रिक सरकार के खिलाफ थी जो कि शुरू हुआ। आंदोलन का परिणाम था कि सिविल सेवाओं की परीक्षा में अन्य भाषाओं को भी जगह मिल सकी।
भारतीय भाषाओं के छात्र बड़ी संख्या में आने लगे और उनका वर्चस्व बढ़ाने लगा लिहाजा एक बार फिर संघ लोकसेवा आयोग एवं सरकार ने भारतीय भाषाओं के खिलाफ साजिशें रचनी शुरू कर दीं। नए बदलावों के साथ 2008 से मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी और हिन्दी दोनों के प्रश्नपत्रों को अनिवार्य कर दिया गया। लेकिन इसमें भी प्रश्नपत्रों को दोहरे ढंग से ऐसा रखा जाने लगा कि अंग्रेजी वालों के लिए तो हिन्दी का प्रश्नपत्र आसान हो जाय जबकि हिन्दी वालों के लिए अंग्रेजी का प्रश्नपत्र हल करना मुश्किल हो जाय। अंदरूनी तौर पर चल रही इस साजिश में हिन्दी के छात्र एक बार फिर योग्यता होने के बावजूद पिछड़ने लगे।
पिछली सरकार इतने पर ही नहीं रुकी बल्कि 2011 में सी-सैट नाम का एक और हथियार छोड़ा जो कि हिन्दी माध्यम से आने वाले परीक्षार्थियों के लिए आते ही विध्वंसक साबित हुआ। यही वो वजह है जिसकी वजह से इस साल 1100 उत्तीर्ण परीक्षार्थियों में से महज 26 हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थी चयनित हो सके।
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