संस्कृति सत्य - पोप के द. कोरिया दौरे के पीछे क्या?
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संस्कृति सत्य – पोप के द. कोरिया दौरे के पीछे क्या?

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Jul 28, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Jul 2014 16:07:16

 

कैथोलिक मत के प्रमुख पोप फ्रांसिस अगले महीने एशिया के प्रमुख देश दक्षिण कोरिया का दौरा करने वाले हैं। छठे एशियाई युवा महोत्सव के प्रमुख अतिथि के रूप में वे वहां उपस्थित रहने वाले हैं। पोप का पद स्वीकारने के बाद यह एशिया में उनकी पहली यात्रा है। जैसे पिछले अंक में हमने बताया, चीन में अगले कुछ वषोंर् में ईसाई जनसंख्या अमरीका में ईसाइयों की जनसंख्या के बराबर ही जाएगी। यह घोषणा होने के बाद चीन की सीमा से सटे दक्षिण कोरिया में पोप की यह यात्रा होने जा रही है। इस यात्रा की घोषणा के संदर्भ में चीन में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों का दौर चला है।
दरअसल, चीन में ईसाईकरण की घोषणा केवल कैथोलिकों के लिए नहीं है, लेकिन उसमें कैथोलिकों का भी समावेश है। पोप की कोरिया यात्रा के दौरान ही एशिया के सभी बिशप पदाधिकारियों की एक परिषद बनेगी उस परिषद की अपनी विशेषता होगी। पोप की यात्रा के दौरान 'शहीदों' को पुष्पांजलि के अलावा एशिया में स्थित मिशनरियों से संवाद का कार्यक्रम है। पोप की उपस्थिति में इस तरह के कार्यक्रम होते रहते हैं, लेकिन महत्व होता है अंतिम दिन की घोषणाओं का, इसलिए दक्षिण कोरिया में वे क्या घोषणा करते हैं, उसकी ओर सबका ध्यान लगा है।
दक्षिण कोरिया में उनकी पहली एशियाई यात्रा है, लेकिन उसके तीन-चार महीनों बाद वे फिर एशिया की यात्रा पर आने वाले हैं। पोप के पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व भले भिन्न हो, लेकिन वह अपने पूर्ववर्ती पोप द्वारा निश्चित कार्यक्रम का कड़ाई से पालन करता है। ऐसा नहीं है कि ये केवल पोप ही करते हैं, बल्कि उनके नियंत्रण में कार्यरत मिशनरी भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाते हैं। उसके बाद अगले महीने वे श्रीलंका एवं फिलिपीन्स की यात्रा करेंगे। वहां भी कोई एशियाई परिषद है, इसलिए एशिया में जारी उनकी गतिविधियों पर चर्चा हो सकती है। वैसे अब तक का अनुभव बताता है कि एक करोड़ जनसंख्या का नेतृत्व करने वाले पोप जब भी एशिया अथवा अफ्रीका में जाते हैं तब उन महाद्वीपों से संबंधित घटनाओं को लेकर भविष्य की ओर इशारा करने वाले कुछ कार्यक्रम होते हैं। वषोंर् पूर्व जब पोप जॉन पाल द्वितीय भारत आए थे तब उन्होंने एशिया के सभी मिशनरियों को शपथ दिलाई थी कि 'अगली सदी में एशिया में ईसाइयत की फसल काटेंगे'। आज एशिया के हर देश में तेजी से ईसाईकरण होता दिखता है। उसी के बाद से भारत के हर शहर, हर झुग्गी बस्ती एवं ग्रामीण इलाकों में अब उनके मिशनरी मतान्तरण में जुटे दिखते हैं। चीन का विषय तो फिलहाल विश्व में सबसे महत्वपूर्ण बन गया है। चीन एवं भारत के संदर्भ में जो जानकारी पिछले कुछ दिनों में सामने आई है, वही स्थिति एशिया के हर देश के संदर्भ में है। इसमें उल्लेखनीय यह है कि एशिया के हर देश में इस ईसाईकरण का संगठित प्रतिरोध हो रहा है, इस मुद्दे पर एशिया के अनेक देश साथ आ रहे हैं। यहां हर देश में ईसाईकरण को लेकर अलग दृश्य है। उधर कैथोलिक चर्च का मानना है, 'ईसाईकरण हमारा अधिकार है और उसे पूरा करने के लिए जो भी बाधा आएगी, उसे दूर करेंगे, विरोध करेंगे'। जो देश इस ईसाईकरण का विरोध करते हैं, उनकी सूची 'पर्सिक्युशन कंट्रीज' नाम से घोषित की जाती है। इनमें उत्तर कोरिया, मालदीव, पाकिस्तान, म्यांमार,भारत, श्रीलंका, चीन, मलेशिया, बंगलादेश जैसे पूर्व एशियाई एवं दक्षिण एशियाई देशों का समावेश है। दक्षिण कोरिया का कार्यक्रम मुख्य रूप से एशियाई युवाओं का है इसलिए उनके सामने इस पूरे एजेंडे पर चर्चा की जाएगी, यह तो जाहिर बात है। चूंकि इसी इलाके में चीन एवं भारत, ये दो विशाल देश हैं और दोनों वेटिकन के एजेंडे पर प्राथमिकता के साथ हैं, उस दृष्टि से भी कुछ महत्वपूर्ण एजेंडा अमल में लाया जाएगा, यह निश्चित है।
अगले छह महीनों में उनकी चार एशियाई यात्राएं निश्चित की गई थीं। उनके एक कार्यक्रम के अनुसार वे नवंबर में भारत में भी आने वाले थे। गोवा में जिस फ्रांसिस जेवियर का शव पिछले कई वषोंर् से सुरक्षित रखा हुआ है, उसे हर वर्ष कुछ दिन जनता के दर्शन के लिए बाहर निकाला जाता है। इस वर्ष के उसके अवशेष अक्तूबर-नवंबर माह में बाहर निकाले जाएंगे। उसी अवसर पर पोप को भारत में आने का न्योता भारत के बिशप संगठन ने दिया था। उसी बहाने वषोंर् पूर्व भारत में मुंबई में जो युखॉरिस्टिक कांग्रेस आयोजित की गई थी, उसकी स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में पुन: उसी तरह की युखॉरिस्टिक कांग्रेस आयोजित करने की भी मंशा थी। लेकिन पोप ने मना कर दिया। अब असली कार्यक्रम पत्रिका के अनुसार जेवियर के अवशेषों का प्रदर्शन और युखॉरिस्टिक कांग्रेस की स्वर्ण जयंती के कार्यक्रम तो होंगे, लेकिन उस वक्तं पोप भारत नहीं आएंगे। फिर भी अगले साल जनवरी में वे श्रीलंका एवं फिलिपीन्स की यात्रा करेंगे। इनमें से श्रीलंका की यात्रा का भारत के लिहाज से खास महत्व है जबकि फिलिपीन्स एशिया में कैथोलिकों का 'गढ़' माना जाता है। इसलिए इन दोनों देशों में पोप की यात्राओं का अपना महत्व है।
श्रीलंका की यात्रा के बारे में विश्व के जानकार जो मत व्यक्त कर रहे हैं, उसके अनुसार श्रीलंका-तमिल संघर्ष में प्रत्यक्ष युद्घ की समाप्ति के बाद श्रीलंका के लोग नाराज हैं। बीस वर्ष तक चले गोरिल्ला युद्घ में श्रीलंका को भारी नुकसान उठाना पड़ा है इसलिए वहां के संबंध सुधारना एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। दूसरा एक उद्देश्य यह हो सकता है कि भारत के बदले राजनैतिक परिदृश्य में नई सरकार की चर्च की बढ़ती हुई कारवाईयों पर क्या प्रतिक्रिया है, इसकी थांह लेना भी पोप का इरादा हो सकता है। चीन में पोप को अभी तक प्रवेश नहीं मिला है। 25 वर्ष पूर्व दक्षिण कोरिया में ही पोप की यात्रा हुई थी। तब पोप की चीन यात्रा करवाने का प्रयास भी किया गया था, लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। आज चीन में ईसाई मत को लेकर तनाव का वातावरण है, लेकिन एक तरफ तनाव का वातावरण होते हुए भी दूसरी तरफ मतांतरण की व्यापक मुहिम जारी है। इसलिए फिलहाल उन्हें चीन में प्रवेश नहीं मिलेगा, लेकिन दक्षिण कोरिया में उनकी यात्रा के दौरान एशिया के सभी बिशपों की वहां बैठक होने वाली है। उसमें स्वाभाविक रूप से सभी एशियाई देशों में बढ़ते ईसाईकरण की समीक्षा की जाएगी। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि चीन में घटीं घटनाओं के संदर्भ में पोप की दक्षिण कोरिया यात्रा अहम है।
देखा जाए तो दक्षिण कोरिया में छठी एशियाई युवा परिषद होने जा रही है वह परिषद प्राथमिक रूप से कैथोलिक पंथ की ही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हर महाद्वीप में ऐसी परिषद सामान्यत: होती है। 1991 में पोलैंड में तीसरी अंतरराष्ट्रीय युवा परिषद आयोजित की गई थी जिसमें 30 एशियाई देशों के प्रतिनिधि उपस्थित हुए थे, वहीं एशिया के लिए अलग परिषद शुरू करने की कल्पना रखी गई एवं उसी में से एशियाई परिषद आरंभ हुई। कोरिया में जो परिषद आयोजित हो रही है वह कोरिया में प्रथम स्थानीय कैथोलिक मिशनरी एंड्र्यू किम तायगन की शहादत की स्मृति में आयोजित की जा रही है।
सन्1846 में कोरिया में कन्फ्युशियन लोगों को ईसाई बनाने को लेकर जो संघर्ष हुआ उसमें दोनों ओर के अनेक लोग हताहत हुए। उसमें 123 ईसाई मारे गए थे, इस परिषद के मौके पर उन्हें ही श्रद्घांजलि अर्पित की जानी है। 19वीं सदी के मध्य में हुए इस घटनाक्रम में कॅन्फ्युशियन पंथ के लोग भी बडे़ पैमाने पर मारे गए थे। उन्हें भी उस देश में राष्ट्रवादी शहीदों का दर्जा प्राप्त है। भारत में जेवियर द्वारा किया गया मतांतरण मुख्यत: इन्क्विजिशन के आधार पर किया गया मतांतरण था। उसमें ईसाईकरण के विरोधियों को जिंदा जलाना, उनको प्रताडि़त करना, उनके सगे-संबंधियों के सामने उनको यातना देना उसके आधार पर भय फैलाकर मतांतरण के लिए बाध्य करना, इन सबका समावेश था। फिर भी वेटिकन ने जेवियर को संतई की उपाधि दी और उसका शव भी सहेज कर रख लिया। भारत एवं दक्षिण कोरिया में आज चर्च की जो स्थिति है वैसी ही स्थिति सारी दुनिया में है। पिछली सदियों में सभी मत-पंथों को लेकर एक अनुभव सभी मत-पंथ वालों ने लिया है, जिसके कारण सभी पंथों के प्रमुख चिंतित हैं। वह अनुभव यह कि संबंधित देशों में अनेक सदियों से रहे मत-पंथों के अनुयायियों की संख्या कम हो रही है, लेकिन अन्य देशों में वह बढ़ रही है। अरब देशों में बड़े पैमाने पर लोग परिवार नियोजन अपना रहे हैं इसलिए उनकी तेजी से होने वाली वृद्घि तो कम हुई ही है। लेकिन अमरीका, यूरोप, रूस आदि में मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। पिछले 10 वषोंर् में यूरोप-अमरीका में मुस्लिमों की संख्या दुगुनी हुई है। यही हाल ईसाइयों का है। यूरोप-अमरीका में ईसाइयों की संख्या कम होती दिखाई दे रही है, लेकिन अफ्रीका एवं एशिया महाद्वीप में वह बढ़ रही है। इसलिए जनसंख्या में होने वाले परिवर्तन आने वाले कुछ वषोंर् में चर्चा का विषय बन सकते हैं। लेकिन पोप की यात्रा का विचार अधिक व्यापकता से करना पड़ता है। वह इसलिए कि 300 से 500 वर्षों में यूरोपीय देशों के अमरीका, एशिया, अफ्रीका एवं आस्ट्रेलिया जैसे अनेक महाक्ष्ीपों और देशों में साम्राज्य थे। उन सभी देशों में ईसाईकरण के कारण फिर से वैसा आधिपत्य स्थापित होने में गति मिल सकती है। पहले जितने भी पोप रहे, उनकी जो भूमिका थी वही भूमिका वर्तमान पोप की नए अंदाज में रहने वाली है, यही इस सबके पीछे की गंभीर चेतावनी है।            -मोरेश्वर जोशी

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