पार्क की महफिल में

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दिंनाक: 19 Jul 2014 13:10:19

श्चपन में रामलीला देखने का चाव किसे नहीं होता? उस उमंग की बात ही क्या है। रामलीलाएं तो अब भी होती हैं। शोर-शराबा और दिखावा पहले से कई गुना अधिक है; पर अब उधर झांकने का मन ही नहीं करता। रामलीला में गीत, अभिनय, नाटक, हास्य, प्रहसन आदि सब होते थे। एक रोचक प्रसंग मुझे अब तक याद है।
रावण के दरबार में नर्तकियों के नृत्य और पीने-पिलाने का दौर चल रहा था। रावण ने महामंत्री से कहा कि मैं अपने पुत्र का विवाह करना चाहता हूं। उसके लिए कोई अच्छी लड़की ढूंढकर लाओ।
– जी ठीक है; पर लड़के की आयु कितनी है?
– 21-22 साल होगी।
– तो 18 साल की लड़की ठीक रहेगी?
– हां, बिल्कुल।
राजा के दरबार में विदूषक तो होते ही हैं। सो वह भी बीच में टपक पड़ा – महाराज, क्षमा करें। यदि 18 साल की एक न मिले, तो क्या नौ साल वाली दो लड़कियों से काम चल जाएगा?
कुछ-कुछ ऐसा ही प्रहसन इन दिनों हमारी संसद में भी चल रहा है। पिछले दिनों सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव में जनता ने नरेन्द्र मोदी और भाज़़पा. को भारी बहुमत दिया। जो नेता दस साल से सत्ता के गलियारों में इत्र-फुलेल लगाकर चहकते रहते थे, उनके चेहरे की पॉलिश जनता ने उतार ली। उनकी सीट इतनी कम हो गयीं कि उन्हें विधिवत विपक्ष का दर्जा भी नहीं दिया जा सकता। इसके लिए भी किन्हीं दो दलों को गठबंधन करना होगा, शायद तब जाकर कोई विपक्ष का नेता बन सकेगा। मामला रावण के दरबार के विदूषक जैसा हो गया है, जिसने पूछा था कि यदि 18 साल की एक न मिले, तो क्या नौ साल की दो लड़कियों से काम चल जाएगा?
आप जानते ही हैं कि हम बहुत से मित्र हर दिन सुबह-शाम पार्क में टहलते हैं। यह किस्सा जब मैंने कल वहां सुनाया, तो शर्मा जी का चेहरा ऐसा हो गया, जैसे ताजी मकई का दाना भाड़ में भुनकर पापकार्न (फूला) बन जाता है। वे कुछ कहना चाहते थे; पर उससे पहले ही वर्मा जी ने एक किस्सा और सुना दिया।
यों तो भगवान सब पर कृपा करते हैं; पर उसके रूप और रंग अलग-अलग होते हैं। चंदूलाल पर यह कृपा इस तरह हुई कि 16 साल का होते तक उसकी लम्बाई सात फुट, गोलाई पांच फुट और पृथ्वी पर उसका भार 125 किलो हो गया। अत: उसे अपनी जरूरत की हर चीज अलग से ही लेनी या बनवानी पड़ती थी। एक बार वह जूता लेने बाजार गया। दुकानदार ने एक से एक बड़े जूते दिखाये; पर चंदूलाल संतुष्ट नहीं हुआ। किसी में उसका पंजा दबता था, तो किसी में एड़ी। जूते पहनते और उतारते एक घंटा हो गया। अचानक चंदूलाल खुशी से उछला – बस, बस। ये एकदम ठीक है, इसमें मेरे पैर को बहुत आराम है। तुम इसे ही पैक कर दो।
दुकानदार ने कहा – श्रीमान जी, जरा नीचे देखिये। आपने जूता नहीं, उसका डिब्बा पहन लिया है। यदि यह आपको फिट है, तो यही ले जाइये। मैं आपसे इसके पैसे भी नहीं लूंगा। बस, कृपा करके अब आप टलिये। आपके चक्कर में मेरे तीन ग्राहक लौट गये हैं।
इतना कहकर वर्मा जी बोले – भारत की 125 साल बूढ़ी पार्टी के महान युवा नेता का भी यही हाल है। अब तक तो वे संगठन मजबूत करने के नाम पर जिम्मेदारी से बचते रहे; पर 'नंगा क्या नहाये और क्या निचोड़े' की तर्ज पर जब न सत्ता बची और न संगठन, तब भी वे आगे आने से डर रहे हैं। चंदूलाल के जूते की तरह उन्हें कोई जिम्मेदारी फिट ही नहीं आ रही। यदि यही हाल रहा, तो लोग उन्हें जूते की बजाय डिब्बा थमा कर ही दुकान से बाहर कर देंगे।
वर्मा जी ने तिरछी नजर से देखा। शर्मा जी की आंख में आंसू ऐसे हो रहे थे, जैसे ससुराल जाने के लिए बाबुल के घर से निकलती दुल्हन दो कदम आगे रखकर फिर किसी से मिलने अंदर मुड़ जाती है।
एक किस्सा गुप्ता जी भी सुनाना चाहते थे; पर मैंने रोक दिया। आखिर जैसे भी हैं, शर्मा जी हैं तो अपने लंगोटिया यार ही। उनका दिल दुखाना उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं था; और हम एक मुर्दा पार्टी के चक्कर में अपने जिंदादिल मित्र को खोना नहीं चाहते थे। इसलिए आज की महफिल यहीं समाप्त कर दी गयी।

विजय कुमार

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