देखकर धीरे चलो केदार जनपद की डगर पांव के नीचे न कोई सांस लेता शव मिले कल यहां पर प्रलय का ऐसा महातांडव मचा साक्ष्य देने के लिए कोई नहीं जीवित बचा सृष्टि के गतिचक्र में अवरोध सहसा आ गया मरण के मुख में दबे सब जिन्दगी के सिलसिले कल यहां पर चेतना ने सांस ली थी आखिरी देखते-ही-देखते बादल फटा, बिजली गिरी फिर त्रिशूली की जटा से यों बही भागीरथी भयावह जलधार में भटके छिटककर काफिले ढह गए सब गांव, कस्बे, हुआ ऐसा भूस्खलन पेड़-पौधे मूल से उखड़े, चली भीषण पवन पंचभूतों में हुआ संघात वह भैरव-प्रबल पलक झंपते ही हुए नाबूद परकोटे, किले नृत्यरत किन्नर-किरातों के महोत्सव क्या हुए मेषचमार्ें के मसृण परिधान कैतव क्या हुए स्तब्ध गायन-वाद्य के परिदृश्य पर्दे में छिपे रह गए कंकण-वलय-केयूर कर में अधहिले तीर्थयात्री आज वे विलगे कहां, लौटे नहीं छुपे फगनौटे क्षितिज पर मेघ कजरौटे कहीं क्या पता कब जग उठें भूगर्भ में सोये हुए पंथशालाएं,सरायें, अतिथिगृह बहुमंजिले दिग्दिगन्तों से उठे धूमाकुलित ज्वाला-जलद सर्वग्रासी ध्वंस था उद्दाम अप्रतिहत भयद वर्ष बीता एक, लगता आज ही घटना हुई सिर्फ नक्शे में बचे अब रह गए हैं कुछ किले लेखनी की नोंक पर फिर सहज अंसुआई व्यथा राष्ट्रव्यापी शोक वलयित उत्तरापथ की कथा भूलने पर भी भुला पाये न हम पलभर जिसे ज्यों पुराना घाव सहलाते हुए फिर से छिले देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'
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