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बदलाव- मोदी विजय से हतप्रभ बुद्धिजीवी!

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Jun 14, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Jun 2014 16:36:46

2014 के लोकसभा चुनावों के लिए चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नौ चरणीय मतदान कार्यक्रम 7 अप्रैल से आरंभ होकर 12 मई को समाप्त हो गया। उसी रात लगभग प्रत्येक खबरिया टेलीविजन चैनल ने किसी न किसी सर्वेक्षण एजेंसी के सहयोग से एक्जिट पोल प्रसारित किया। इन सभी एक्जिट पोल अनुमानों में मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को भारी बढ़त दिखायी गयी। चाणक्य नामक एजेंसी द्वारा न्यूज 24 पर प्रसारित एक्जिट पोल में भाजपा को 283 अर्थात पूर्ण बहुमत मिलने का दावा किया गया। स्वाभाविक ही, सोनिया कांग्रेस के प्रत्येक नेता और प्रवक्ता ने इन एक्जिट पोलों को झूठा, निराधार और प्रायोजित घोषित कर दिया। सोनिया पार्टी के प्रति सहानुभूति रखने वाले अखबारों में एक्जिट पोल की वैज्ञानिकता पर ही विवाद प्रारंभ हो गया। किंतु हवा का रुख बहुत स्पष्ट था। लोगों के दिल अंदर ही अंदर धुकधुकी कर रहे थे, जिसकी झलक 100 बुद्धिजीवियों के उस वक्तव्य में विद्यमान है जो 16 मई की प्रात: समाचार पत्रों में छपाया गया। इस वक्तव्य में बॉलीवुड से महेश भट्ट, आनंद पटवर्द्धन और कुंदन शाह जैसे नाम हैं तो अर्थशास्त्री अमिय कुमार बागची, प्रभात पटनायक, जयति घोष, इतिहासकार हरबंस मुखिया, डी.एन.झा, मृदुला मुखर्जी, चित्रकार के सुन्दरम गायिका शुभा मुद़्गल जैसे जाने-माने नामों की लम्बी सूची है। ये सभी नाम वामपंथी संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। और इस वक्तव्य को जारी किया है शबनम हाशमी नामक कम्युनिस्ट कलाकार की संस्था अवहद ने। वक्तव्य में सभी गैर भाजपाई राजनीतिक नेताओं से गुहार लगायी गयी है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा या राजग की सरकार को कदापि नहीं बनने देना चाहिए क्योंकि ऐसा हो गया तो भारत का धर्मनिरपेक्ष चरित्र समाप्त हो जाएगा। और धर्मनिरपेक्षता ही भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ है। इसलिए संवैधानिक मूल्यों की रक्षा और देश के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए केन्द्र में मोदी सरकार को रोकना बहुत आवश्यक है। वक्तव्य में मायावती, मुलायम सिंह, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, जगनमोहन रेड्डी, जयललिता, करुणानिधि, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, शरद यादव आदि सभी क्षेत्रीय क्षत्रपों के नाम लेकर याचना की गयी है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए आप सब मोदी विरोधी गठबंधन बना लीजिए।

 

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'धर्मनिरपेक्षता' की रक्षा के लिए इन बुद्धिजीवियों ने भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी के नाम की घोषणा के क्षण से ही जबर्दस्त मोदी एवं भाजपा विरोधी प्रचार अभियान प्रारंभ कर दिया था। तरह-तरह के तर्कजाल बुनने शुरू कर दिये थे। यह मंडली स्वयं को प्रगतिशील, उदारवादी, सर्वसमावेशी, धर्मनिरपेक्ष जैसे विशेषणों से विभूषित करती रही है। चुनाव परिणाम आ गये। लम्बे अंतराल के बाद भाजपा को 282 सीटों से ज्यादा का पूर्ण बहुमत मिल गया और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग को लोकसभा में 333 सीटें मिल गयीं। इन ख्यातनाम बुद्धिजीवियों की क्रंदन पुकार का राजनैतिक दलों पर कोई असर नहीं हुआ। कोई मोदी विरोधी गठबंधन तैयार नहीं हुआ। सोनिया पार्टी ने केवल 44 सीटों पर सिमट कर संसद के सामने विधियुक्त विपक्ष के अभाव की समस्या खड़ी कर दी और स्वयं को महाबुद्धिमान व प्रभावी मानने वाले ये बुद्धिजीवी हतप्रभ होकर अपनी भारी पराजय के कारणों को खोज रहे हैं। इसी प्रगतिशील उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष मंडली के एक स्तंभ दिलीप पड़गांवकर ने अपने आत्मालोचन को 31 मई के टाइम्स आफ इंडिया में शब्द रूप प्रदान किया है। भारतीय लोकतंत्र के रक्षक होने का दंभ भरने वाले बुद्धिजीवियों और कलाकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने जो लम्बा लेख लिखा है उसका सार है कि हम गच्चा खा गये। स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व जैसे बड़े-बड़े शब्दों के नाम पर हमने मोदी के विरुद्ध मतदाताओं को डराने, धमकाने के लिये जो तर्कजाल बुना वह सब धराशायी हो गया। हम मोदी की संघ पृष्ठभूमि को उछालते रहे, 2002 के दंगों का ढोल बजाते रहे, नरेन्द्र मोदी को सीधे-सीधे अपराधी ठहराते रहे। हमने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित जांच समिति के मत को भी ठुकरा दिया, हम गुजरात माडल में पंचर करने में जुट गये और जब यह सब कुछ नहीं चला तो हमने एक लड़की की जासूसी करने का अपराध मोदी के माथे मढ़ना शुरू कर दिया।
जिस कांग्रेस को बचाने की हमने कोशिश की वह इतनी नीचे चली जाएगी यह कल्पना भी हम नहीं कर पाये। हमारे प्रिय वामपंथी शून्यवत हो गये। जातिवादी दलों को जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नकाब ओढ़ रखे हैं, मतदाताओं ने ठुकरा दिया।
पड़गांवकर पूछते हैं ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि हम देश के मूड को भांप नहीं पाये। हम सोनिया पार्टी में वंशवाद की वकालत करते रहे। राहुल गांधी को प्रोजेक्ट करते रहे। हमने कहा कि मोदी लहर झूठी है, मीडिया द्वारा गढ़ी गयी है। अब हम इस तर्क को उछाल रहे हैं कि भाजपा का सीट बहुमत केवल 31 प्रतिशत मतों पर टिका है, 69 प्रतिशत मतदाताओं ने मोदी को वोट नहीं दिया। अब हमें आत्मालोचन करना होगा। अपनी स्थापनाओं के बारे में पुनर्विचार करना होगा। अब में धर्मनिरपेक्षता के अपने नारे का पुन: आकलन करना होगा। उसकी सही व्याख्या खोजनी होगी। दिलीप जी की बात को हमने संक्षेप में दिया है। मोदी के विरुद्ध वातावरण तैयार करने के लिए इन बुद्धिजीवियों और मीडिया ने जो अनेक हथकंडे अपनाये उनका स्मरण दिलाना आवश्यक है। कहा गया कि भाजपा गायब है, मोदी ही मोदी है। व्यक्तिवादी शासन आ रहा है। डिक्टेटरशिप का खतरा है, आदि-आदि।
एक दूसरे लब्धप्रतिष्ठ बुद्धिजीवी श्री शिव विश्वनाथन जो जिंदल स्कूल आफ गवर्नमेंट पब्लिक पॉलिसी में वरिष्ठ प्रोफेसर हैं, ने प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक 'दि हिन्दू' 4 जून में मोदी की विजय को अंग्रेजी शिक्षित सेकुलरिस्टों एवं अल्पसंख्यकवादियों की पराजय बताया है। उन्होंने अपने अनेक अनुभवों के आधार पर लिखा है कि सेकुलरिस्टों के इस छोटे से वाचाल वर्ग ने बहुसंख्यक समाज के धर्मप्रेमी मध्यम वर्ग की भावनाओं को बहुत आघात पहुंचाया। और वह आहत मध्यम वर्ग पूरे भारत में इस झूठी धर्मनिरपेक्षता व अल्प-संख्यकवादिता के विरुद्ध एकजुट हो गया। यह एकजुटता भारत की राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति है।
शिव विश्वनाथन द्वारा खोखली धर्मनिरपेक्षता की खुली आलोचना से तिलमिलाकर एक खांटी वामपंथी लेखक लाल्टू ने जनसत्ता में 'बौद्धिकों के बदले सुर' शीर्षक लेख में जबाव देने की हास्यास्पद कोशिश की है। शिव विश्वनाथन ने लिखा था कि नरेन्द्र मोदी के चुनाव जीतने के बाद ही काशी में गंगा आरती के दृश्य को टीवी पर दिखाया गया। वह दृश्य इतना रोमांचकारी था कि उस दृश्य को देखकर देश भर से संदेश आने लगे कि बिना किसी कमेंट्री के आरती का पूरा दृश्य प्रसारित किया जाए। लाल्टू ने माना कि मोदी की गंगा आरती पहली बार दिखाई गई। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं जैसा कि शिव विश्वनाथन मानते हैं कि उससे यह संदेश मिला कि हमें अपने धर्म पर शरमाने की जरूरत नहीं है।
लाल्टू की निगाह में वह कोई धार्मिक काम नहीं था। यह आरती धार्मिकता से अलग एक विशुद्ध राजनीतिक कदम था। लाल्टू शिव पर कटाक्ष करते हैं कि तकरीबन डेढ़ माह पहले एक और आलेख में बनारस में केजरीवाल और मोदी की भिडं़त पर शिव ने लिखा था, 'मोदी जिस भारत-इंडिया, हिन्दू मुस्लिम फर्क को थोपना चाहते हैं, बनारस उसे खारिज करता है'। अब मोदी के जीतने पर उनका सुर बदल गया है।
लाल्टू लिखते हैं कि शिव का मानना है कि उदारवादी इस बात को नहीं समझ पाये कि मध्यम वर्ग के लोग तनावग्रस्त हैं और मोदी ने इसे गहराई से समझा, पहले इन तनावों की वाम की समझ के साथ शिव सहमत थे, पर अब उन्हें वाम एक गिरोह दिखता है, जिसने धर्म को जीने का सूत्र नहीं बल्कि एक अंधविश्वास ही माना। शिव के मुताबिक यह धारणा एक शून्य पैदा करती है और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ाती है। जिससे ऐसा दमन का माहौल बनता है, जहां आम धार्मिक लोगों को नीची नजर से देखा जाता है।
दिलीप पड़गांवकर और शिव विश्वनाथन के समान ही सोनिया कांग्रेस के मुखर सांसद शशि थरूर ने एक अमरीकी पत्रिका हाफिंगटन पोस्ट में मोदी के समर्थन में एक लेख लिखा है और कांग्रेस की एक प्रेस कांफ्रेंस में भी उन्होंने विचार प्रकट किए जिससे सोनिया पार्टी बौखला उठी।  

-देवेन्द्र स्वरूप-

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