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370 जन गण मन केअनुकूल हो कानून

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Jun 14, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 14 Jun 2014 16:32:42

-मुजफ्फर हुसैन-

रााष्ट्रीयता का तत्व हिन्दुत्व है, यह व्याख्या भारत में प्राचीन समय से चली आ रही है। स्वतंत्रता प्राप्त होने तक इसके बारे में न कोई बहस थी और न ही आपत्ति, लेकिन जब आजादी के पश्चात राष्ट्रवादी संगठनों के मंच से इस शब्दावली का उपयोग किया जाने लगा तब अनेक लोगों के माथे पर बल पड़ने लगे।
इस शब्दावली को हिन्दुत्ववादी घोषित करके इसके स्थान पर धर्मनिरपेक्षता शब्द का जोर-शोर से प्रयोग किया जाने लगा। इस नई व्याख्या को प्रचलित करने वालों के मन में भी अर्थ तो यही था, क्योंकि हिन्दू इस देश में बहुसंख्यक हैं, इसे नकारने का तो कोई साहस कर नहीं सकता है, लेकिन 2014 के आम चुनाव के परिणाम सामने आते ही अब उन्हें महसूस होने लगा कि इन दोनों शब्दों में कोई अंतर नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शपथ ग्रहण कार्यक्रम में भारतीय उपखंड के उन सभी देशों के शीर्षस्थ नेताओं को आमंत्रित कर प्राचीन भारत के मानचित्र को प्रस्तुत कर दिया। कोई यह भी कह सकता है कि विश्व में अनेक देश अब हिन्दू बहुल बनने जा रहे हैं। बाली, मारीशस, और घाना जैसे सात राष्ट्र इसके जीवंत उदाहरण हैं, लेकिन उनको आमंत्रित न कर केवल भारतीय उपखंड के देशों को भारत सरकार ने निमंत्रण दिया था। यह मान्यता धर्म के आधार पर न होकर उसकी प्राचीन राष्ट्रीयता, संस्कृति और जीवन पद्धति पर आधारित थी। यहां सवाल धर्म का नहीं, बल्कि उस भारतीय राष्ट्रीयता का था, जो हमारे यहां प्राचीन समय से हिन्दुत्व कहलाता है। कोई भी विचारधारा अथवा तो कानून जो किसी भाग को भारत की सीमाओं से अलग करता है, वह उसे मान्य नहीं है। भारतीय उपखंड के अनेक देशों ने समय-समय पर अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनाकर सार्वभौमिकता प्राप्त कर ली। क्योंकि भारत अब इनकी सार्वभौमिकता को तो राजनीतिक रूप से मान्यता देता है, इसलिए उन्हें अपने इस समारोह में स्वयं आगे रहकर आमंत्रित कर लिया और उन्हें भरपूर सम्मान दिया। अब यदि भारत का ही एक हिस्सा यह मांग करने लगे कि उसकी स्थिति भी इन राजनीतिक मान्यता भोग रहे देशों के समान है तो उसे भला किस प्रकार से स्वीकार किया जा सकता है? भारतीय संविधान की धारा 370 के तहत कश्मीर को भारतीय संघ के तहत रखकर एक विशेष दर्जा दे दिया गया था, जो समय के साथ किश्तों में समाप्त होता चला गया।
2014 के आम चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी को उस क्षेत्र में सफलता मिली है तो धारा 370 को अमान्य करने का अवसर मिल गया है। जम्मू-कश्मीर में भाजपा के तीन सांसदों को मिली सफलता वहां छिपे पाकिस्तानी तत्वों को हजम नहीं हुई जिसके बहाने एक बार फिर से कश्मीर का वातावरण बिगाड़ने का गंदा खेल शुरू हो गया है, लेकिन इस बीच स्वयं जम्मू-कश्मीर सरकार ने असंख्य कानून ऐसे बनाए जो कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग स्वीकार करने के लिए बाध्य करते हैं। जम्मू-कश्मीर सरकार स्वयं जानती है कि वह अब आकाश-पाताल एक कर डाले तब भी 1947 के पुराने दिनों में नहीं लौट सकती है।
देश की आजादी के साथ ही संविधान बना, उसी समय से धारा 370 अस्थायी थी, इसलिए कबाड़खाने में पड़ी इसी पुरानी धारा को फिर से जीवित करने का बहाना अपनी हार की खीझ मिटाना ही लगता है। यह भी संभव है कि इस धारा के विरोध में समय पड़ने पर राष्ट्रवादी जनता मुखर हो क्योंकि यह जनता ऐसे आंदोलन चलाती रही है, इसलिए अब उसकी सफलता पर खीझ कर कोई उसे अपने दुराग्रह और बालहठ पर अडिग रहते हुए विरोध का राग अलापे तब तो इस बीमारी का उपचार हकीम लुकमान के पास भी नहीं है। आज जिस स्थिति में राष्ट्रवादी जनता और नरेन्द्र मोदी यह कहने जा रहे हैं, क्या इसी प्रकार की जीत किसी अन्य दल की हुई होती और उसने यह कदम उठाया होता तो कश्मीर के नेता और सारी दुनिया के अलगाववादी तत्व विरोध करते? समय के साथ यह बेसुरा राग समाप्त होने वाला है। भारतीय संसद आज नहीं तो आने वाले कुछ ही दिनों में इस धारा को समाप्त कर कश्मीर को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने में अपनी भूमिका निभाएगी। धारा 370 कश्मीर के संरक्षण और उसके औद्योगिक तथा आर्थिक विकास में कितनी बड़ी बाधा है, यह बहुत जल्द पता लग जाएगा। उमर अब्दुल्ला सरकार को समय की नब्ज पहचान कर अपनी इस भूल को सुधारने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। वर्तमान चुनाव में कश्मीर में भाजपा को मिली विजय इस बात का प्रतीक है कि मोदी सरकार ने अपनी इस राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को बड़ी ईमानदारी से निभाकर एक बार फिर इस सिद्धांत को अजर-अमर कर दिया कि राष्ट्रीय हित ही सर्वोपरि है। धारा 370 समाप्त होते ही भारतीय संविधान, सरकार और देश का हर नागरिक गर्व से कह सकेगा कि भारतीय सीमा में हमारे जितने भी प्रदेश और जिले हैं, वे सभी भारत के समान अंग हैं। उनमें धर्म, भाषा अथवा तो रहन-सहन के आधार पर कोई अलगाव और भेदभाव नहीं है। आजादी के समय कश्मीर की कुछ अलग परिस्थितियां थीं। पड़ोसी देश हम पर बार-बार हमले करता था और धर्म के नाम पर नागरिकों के बीच वैमनस्य पैदा करने का प्रयास करता था, लेकिन पिछले 67 वर्षों में अब ऐसी कोई स्थिति नहीं रह गई है। प्रदेश और केन्द्र सरकार दोनों मिलकर नागरिकों के समान हितों की रक्षा करते हैं। स्थायित्व आ जाने के कारण अब अलगाव और धर्म के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव भी समाप्त हो गया है। अतएव ऐसा कानून जो एक ही प्रदेश के नागरिकों के बीच भेदभाव और अंतर पैदा करता हो उसकी आवश्यकता समाप्त हो गई है। जब सभी भारतीय नागरिकता की छतरी के नीचे समानता का जीवन जी रहे हैं तब अलगाववादी कानून की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसलिए धारा 370 जो भारतीय नागरिकों के हितों पर चोट कर रही है उसे हटाना सरकार का धर्म हो जाता है। इसे हटाने और दूर करने की प्रतिबद्धता मोदी सरकार दर्शा रही है जिसका स्वागत करना सभी राष्ट्र प्रेमियों एवं कानून का पालन करने वालों का दायित्व हो जाता है। सरकार अपने इस दायित्व को दोहरा रही है तो सभी देशवासियों के लिए सरकार का समर्थन अनिवार्य है। धारा 370 की समाप्ति के पश्चात वे कानूनी अड़चनें समाप्त हो जाएंगी जो एक नागरिक को दूसरे नागरिक से और देश के एक भाग को दूसरे भाग से अलग करती हैं।
इस एकता के लिए समान नागरिक कानून पहली शर्त है। आज तो हमारे अनेक कानून धर्म, जाति और नागरिक से नागरिक को अलग कर देने वाले हैं। वे केवल धर्म और जाति में ही अलगाव पैदा नहीं करते हैं, बल्कि एक ही देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों में रहने वालों को भी अलग करते हैं। जब हमने सिद्धांतत: एक ही नागरिकता का आदर्श स्वीकार किया है तब देश का एक भाग नागरिक धर्म अथवा भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर अलग कैसे हो सकता है? इसके लिए समान नागरिक कानून पहली शर्त है। हर समाज के अपने धर्म और क्षेत्र के आधार पर कुछ अलग-अलग कानून हैं, जो एक नागरिक के अधिकार से दूसरे नागरिक के अधिकार में टकराव पैदा करते हैं। हमारी अपराध संहिता जब सभी नागरिकों पर एक समान लागू होती है तो फिर निजी कानून का दायरा किस प्रकार मान्य किया जा सकता है? परम्परा और मान्यता से जो चला आ रहा है उसमें किसी प्रकार के हस्तक्षेप का सवाल नहीं है, लेकिन यदि राष्ट्रीय हितों के आधार पर उनमें टकराव है तो फिर उस पर सोच विचार आवश्यक हो जाता है। कोई अपने निजी कानूनों के आधार पर जीवन जीता है तो यह उसकी सोच है, लेकिन यदि उस सोच में और राष्ट्रीय जीवन में उस पर टकराव होता है तो फिर नागरिकों के बीच न्याय का मार्ग केवल वही कानून हो सकता है, जो सरकार द्वारा मान्य किया गया है। कानून के साथ-साथ अनेक परम्पराएं भी सदियों से चली आ रही हैं। मानव स्वभाव के अनुसार वे चलती रहेंगी। यदि उनके चलते कोई टकराव खड़ा नहीं होता है तो कोई भी छेड़छाड़ करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन जब उसमें कानूनी बाधा उत्पन्न होती है तब देश के समान कानून के तहत ही उसका निपटारा आवश्यक है। जन गण मन और वंदे मातरम् हमारे दोनों राष्ट्रगीतों को अपने देश की एकता का हम माध्यम मानते हैं तो उस जैसी ही प्रतिबद्धता हमारे कानून के लिए भी होनी चाहिए। निजी कानून राष्ट्रीय कानून पर हावी नहीं हो सकता है यह ब्रह्म वाक्य तो हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा। धर्म समाजशास्त्र पर आधारित समाज में भिन्न रीति-रिवाजों और मान्यताओं में अलग पहचान बना सकता है, लेकिन कानून पर आधारित व्यवस्था कभी नहीं।
राष्ट्रीय आधार पर एक ही देश के सभी भाग जिस प्रकार एक समान हैं उनमें प्राकृतिक और मानवीय आधार पर अंतर नहीं हो सकता है, इसलिए एक कानून के तहत उनके प्रशासन की व्यवस्था रहती है।
देश की सीमाएं किसी भी अन्य देश से मिलती हैं तो वहां भी किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है। वे चाहे किसी उपजाऊ प्रदेश की हों या बंजर खेत की, पहाड़ी हों या मैदानी? जंगलों से घिरी हुईं हों अथवा तो रेगिस्तान से, उनमें किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है। उनका संपूर्ण देश में समान कानून के तहत ही संचालन होता है। उनकी सुरक्षा का भार सरकार पर होता है और साथ ही सरकार की नौकरशाही पर जो उसके प्रशासन का संचालन करती है, वे सभी एक समान कानून के तहत उन की सुरक्षा करते हैं। इसी प्रकार वहां की जनता किसी भी रंग की हो उसके शरीर की बनावट में भले ही भौगोलिक आधार पर भिन्नता हो, लेकिन एक नागरिक होने की हैसियत से उन सभी का भरण-पोषण एक ही कानून के अंतर्गत होता है। देश के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले नागरिक का धर्म कुछ भी हो उससे धर्मनिरपेक्ष सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। इसी प्रकार रंग और रूप में तथा लिंग में भी कोई भेदभाव नहीं किया जाता है, यानी वह केवल भारतीय नागरिक के रूप में स्वतंत्र भारत का नागरिक होता है।
नरेन्द्र मोदी की सरकार ने इसी प्रकार का वातावरण तैयार कर 21वीं शताब्दी के भारत को अच्छी, स्वस्थ और न्यायिक सरकार देने का न केवल वचन दिया है, बल्कि उसकी शुरुआत भी कर दी है। यही हमारे संतों और मुनियों के महान भारत का आदर्श है। यदि सरकार इसमें सफल होती है तो एक शक्तिशाली भारत का निर्माण होने से कोई रोक नहीं सकता है।

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