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एक उमर अब्दुल्ला हैं एक हाफिज सईद। एक राज्य का मुख्यमंत्री है दूसरा जमात उद दावा का प्रमुख। एक का ठिकाना भारत है दूसरे का पाकिस्तान। एक के कुनबे पर सिर्फ घाटी के बारे में सोचने और शेष राज्य की जनता को खून के आंसू रुलाने का आरोप है तो दूसरे पर 2008 में हुए मुम्बई हमले का मास्टर माइंड होने का। एक को धारा 370 पर चर्चा चुभती है तो दूसरे को नरेन्द्र मोदी का नवाज शरीफ से हाथ मिलाना। वैसे तो परस्पर तुलना से परे ये दो अलग-अलग किरदार हैं लेकिन दोनों की ही बातों में भारतीय प्रभुसत्ता को साफ-साफ ललकारने वाला ऐसा तीखा स्वर है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
जम्मू-कश्मीर प्रांत से चुनकर संसद में आए राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह का पहला-पहला बयान किसी को बुरी तरह चुभता है। उमर अब्दुल्ला, और कश्मीर घाटी के सिर्फ एक वर्ग के हितों की चिंता करने वाले उन जैसे मुट्ठीभर लोग एकाएक बौखलाहट से भर जाते हैं।
शपथ ग्रहण समारोह के जरिए दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन को पुनर्जीवित करने की पहल किसी को खलती है। भारत सरकार जब पाकिस्तान के साथ परस्पर सहयोग के नए युग का सूत्रपात करने का कदम बढ़ाती है तो हाफिज सईद और पाकिस्तानी सेना के कलेजे पर सांप लोटने लगता है।
ट्विटर पर सक्रिय रहने वाले उमर का बयान आता है, ह्यया तो धारा 370 अस्तित्व में रहेगी या फिर जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा।ह्ण देश को तोड़ने की ऐसी धमकी यदि किसी राज्य के मुख्यमंत्री की ओर से आती है तो नि:संदेह उसकी मंशा परखी जानी चाहिए। दूसरी ओर मजहबी पागलपन की दुकान चलाने वाला हाफिज सईद पाकिस्तान में कहता है, ह्यभारत के विरुद्ध अंतिम जिहाद छेड़ने का वक्त आ गया है।ह्ण पाकिस्तान की सत्ता को बौना साबित करने में जुटे ऐसे आतंकी तत्वों की हैसियत भी अब जांची ही जानी चाहिए।
उमर हों या हाफिज, भारत विरोध (या कहें मानवता विरोध) की मुद्राओं के दर्पण में यह वक्त उन आवाजों को पहचानने का है जिन्हें एक भारत, सर्वहितचिंतक सुदृढ़ भारत का विचार डराता है। जिन्हें विभिन्नताओं को स्वीकारने वाली भारतीय संस्कृति के सनातन विचार पर नई पीढ़ी की लोकतांत्रिक मुहर डराती है।
देश और दुनिया के लिए यह वक्त उमर और हाफिज जैसों को खारिज करने का है। अल्पसंख्यकों को पीसते-निगलते पाकिस्तान के कट्टर इस्लामी मॉडल की तुलना भारत के उस सर्वसमावेशी मॉडल से करने की जरूरत है जिसे भारत ने अपनाया है। आज के समय में समानांतर विकास की नीति पर चलते हुए समानता और सौहार्द की उस राह पर बढ़ने की जरूरत है जहां पुष्टिकरण सबका हो, लेकिन तुष्टीकरण किसी का ना हो।
वैसे, जितेन्द्र सिंह ने कोई नई या खटकने वाली बात नहीं कही है। जम्मू के मौलाना आजाद स्टेडियम में नरेन्द्र मोदी ने जब अनुच्छेद 370 की प्रासंगिकता पर सवाल उठाकर राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता जताई थी तो यह बात सिर्फ चुनावी नहीं थी। एक ऐसी न्यायपूर्ण बहस, जिससे महिलाओं और अनुसूचित जातियों, जनजातियों को उनके मारे गए हक मिलते हों इससे कांग्रेस या वामपंथियों को किस आधार पर और क्यों इनकार करना चाहिए? मानवाधिकारों को कुचलती, कट्टरपंथियों को पालती सियासी ताकतों से लड़ने के लिए नई तरह की साझी मोर्चाबंदी आज देश की प्रभुसत्ता और मानवाधिकार रक्षा के लिए जरूरी है।
मनुष्य को मनुष्य समझने और मजहबी आधार पर रौंदने की खिलाफत करने वाली ऐसी ही लामबंदी पाकिस्तान को बचाने की लिए भी जरूरी है। तीन बार की सैन्य तख्तापलट झेलने वाले टूटे-जर्जर मुल्क को सेना और हाफिज सईद जैसों के भरोसे छोड़ना उस देश और वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक है। आईएसआई मुख्यालय से चंद कदमों की दूरी पर हाफिज का आग उगलना बताता है कि चुनी हुई सरकार को ललकारते इस्लामी आतंक के जिन्न की पीठ पर किसका हाथ है।
बहरहाल, उमर की बौखलाहट का जवाब और हाफिज की कसमसाहट का इलाज वक्त की जरूरत है। नवाज शरीफ हों या नरेन्द्र मोदी, अपने-अपने देश की बागडोर संभाले दो बड़े राजनेताओं ने समय के उस मोड़ पर हाथ मिलाया है जहां उनके सामने सबसे पहले अपने घर को दुरुस्त करते हुए खुद को साबित करने की चुनौती है। शपथ ग्रहण समारोह से हुई नई शुरुआत में एक-दूसरे की प्रभुसत्ता का सम्मान करते हुए मानवता के रास्ते पर चलने के गहन संकेत हैं। इस्लामाबाद में दहशतगर्द गुर्राएं या श्रीनगर में ट्विटर के बगुले फड़फड़ाएं, यह देश और दक्षिण एशिया का पूरा कारवां आगे बढ़ने को कमर कस चुका है।
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