|
– आऱ एल़ फ्रांसिस-
वर्तमान समय में राजनीतिक सुविधा के हिसाब से हर कोई डा़ अम्बेडकर को अपने अपने तरीके से परिभाषित करने में लगा हुआ है, कुछ उन्हें देवता बनाने में लगे हैं तो कुछ उन्हें केवल वंचितों की धरोहर मानते हैं, कई हैं जो उन्हें हिन्दुओं के विरोधी नायक के रूप में रखते हैं। और तो और भारत के कुछ मार्क्सवादी उन्हें मार्क्स के अग्रदूत मानते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो अम्बेडकर के मत-परिवर्तन के सही मर्म को समझे बिना ही आज वंचितों को हिंदुओं से अलग कर उन्हें एक मत के रूप में रखने की मांग करने लगे हैं।लेकिन कोई इस पर बात नहीं करना चाहता कि डा़ अम्बेडकर का पूरा संघर्ष हिंदू समाज और राष्ट्र के सशक्तिकरण का ही था। डा़ अम्बेडकर के चिन्तन और दृष्टि को समझने के लिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि वे अपने चिन्तन में कहीं भी दुराग्रही नहीं हैं। उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है। अम्बेडकर का दर्शन समाज को गतिमान बनाए रखने का है। विचारों का नाला बनाकर उसमें समाज को डुबाने-वाला नहीं है। अम्बेडकर मानते थे कि समानता के बिना समाज ऐसा है, जैसे बिना हथियारों के सेना। समानता को समाज के स्थाई निर्माण के लिये धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक तथा अन्य क्षेत्रों में लागू करना आवश्यक है। डा़ अम्बेडकर मानते थे कि धर्म के मूल्य जीवन के लिये उत्प्रेरक होते हैं, इसी कारण वे मार्क्सवाद के पक्ष में नहीं थे।सामाजिक बदलाव के वाहकभारत के सर्वांगीण विकास और राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिए सबसे महत्वपूर्ण विषय हिंदू समाज का सुधार एवं आत्म-उद्घार है। हिंदू धर्म मानव विकास और ईश्वर की प्राप्ति का स्रोत है। किसी एक पर अंतिम सत्य की मुहर लगाए बिना सभी रूपों में सत्य को स्वीकार करने, मानव-विकास के उच्चतर सोपान पर पहुंचने की गजब की क्षमता है इसमें! श्रीमद्भगवद्गीता में इस विचार पर जोर दिया गया है कि व्यक्ति की महानता उसके कर्म से सुनिश्चित होती है न कि जन्म से। इसके बावजूद अनेक ऐतिहासिक कारणों से इसमें आई नकारत्मक चीजों, ऊंच-नीच की अवधारणा आदि इसका सबसे बड़ा दोष रहा है। यह अनेक सहस्राब्दियों से हिंदू धर्म आधारित जीवन का मार्गदर्शन करने वाले सिद्घातों के भी प्रतिकूल है।हिंदू समाज ने अपने मूलभूत सिद्घातों का पुन: पता लगाकर तथा मानवता के अन्य घटकों से सीखकर समय समय पर आत्मसुधार की इच्छा एवं क्षमता दर्शाई है। सैकड़ों सालों से वास्तव में इस दिशा में प्रगति हुई है। इसका श्रेय आधुनिक काल के संतों एवं समाज सुधारकों, यथा स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, राजा राममोहन राय, महात्मा ज्योतिबा फुले एवं उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले, नारायण गुरु, गांधीजी और डा़ बाबा साहब अम्बेडकर को जाता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा इससे प्रेरित अनेक संगठन हिंदू एकता एवं हिंदू समाज के पुनरुत्थान के लिए सामाजिक समानता पर जोर दे रहे हंै। संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस कहते थे, ह्ययदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो इस संसार में अन्य दूसरा कोई पाप हो ही नहीं सकता।ह्णवर्तमान वंचित समुदाय, जो अभी भी हिंदू है, अधिकांशत: उन्हीं साहसी ब्राह्मणों व क्षत्रियों का ही वंशज है, जिन्होंने जाति से बाहर होना स्वीकार किया किंतु विदेशी शासकों द्वारा जबरन मत परिवर्तन स्वीकार नहीं किया।हिंदू समाज के इस सशक्तिकरण की यात्रा को डा़ अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया। उनका दृष्टिकोण न तो संकुचित था और न ही वे पक्षपाती थे। वंचितों को सशक्त करने और उन्हें शिक्षित करने का उनका अभियान एक तरह से हिंदू समाज और राष्ट्र को सशक्त करने का अभियान था। उनके द्वारा उठाए गए सवाल जितने उस समय प्रासंगिक थे, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, कि अगर समाज का एक बड़ा हिस्सा शक्तिहीन और अशिक्षित रहेगा तो हिंदू समाज और राष्ट्र सशक्त कैसे हो सकता है?वे बार बार सवर्ण हिंदुओं से आग्रह कर रहे थे कि विषमता की दीवारों को गिराओ, तभी हिंदू समाज शक्तिशाली बनेगा। डा़ अम्बेडकर का मत था कि जहां सभी क्षेत्रों में अन्याय, शोषण एवं उत्पीड़न होगा, वहीं सामाजिक न्याय की धारणा जन्म लेगी। आशा के अनुरूप उतर न मिलने पर उन्होंने 1935 में नासिक में यह घोषणा की कि वे हिंदू नहीं रहेंगे। अंग्रेजी सरकार ने भले ही वंचित समाज को कुछ कानूनी अधिकार दिए थे, लेकिन अम्बेडकर जानते थे कि यह समस्या कानून की समस्या नहीं है। यह हिंदू समाज के भीतर की समस्या है और इसे हिंदुओं को ही सुलझाना होगा। वे समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में जोड़ने का ही कार्य कर रहे थे।अम्बेडकर ने भले ही हिंदू न रहने की घोषणा कर दी थी। लेकिन ईसाइयत या इस्लाम से खुला निमंत्रण मिलने के बावजूद उन्होंने इन विदेशी मतों को स्वीकारना उचित नहीं माना। डा़ अम्बेडकर इस्लाम और ईसाइयत अपना लेने वाले वंचितों की दुर्दशा को जानते थे। उनका मत था कि मतांतरण से राष्ट्र को नुकसान उठाना पड़ता है। विदेशी मतों को अपनाने से व्यक्ति अपने देश की परंपरा से टूटता है।वर्तमान समय में देश और दुनिया में एक गलत धारणा बनाई जा रही है कि अम्बेडकर केवल वंचितों के नेता थे। उन्होंने केवल वंचितों के उत्थान के लिए कार्य किया। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि उन्होंने भारत की आत्मा हिंदुत्व के लिए कार्य किया। जब हिंदुओं के लिए एक विधि संहिता बनाने का प्रसंग आया तो सबसे बड़ा सवाल हिंदू को परिभाषित करने का था। डा़ अम्बेडकर ने अपनी दूरदृष्टि से इसे ऐसे परिभाषित किया कि मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी को छोड़कर इस देश के सब नागरिक हिंदू हैं, अर्थात् विदेशी उद्गम के मतों को मानने वाले अहिंदू हैं, बाकी सब हिंदू हैं। उन्होंने इस परिभाषा से देश की आधारभूत एकता का अद्भुत उदाहरण पेश किया। अम्बेडकर की आर्थिक दृष्टिअम्बेकडर का सपना भारत को महान, सशक्त और स्वावलंबी बनाने का था। डा़ अम्बेडकर की दृष्टि में प्रजातंत्र व्यवस्था सर्वोतम व्यवस्था है, जिसमें ह्यएक मानव एक मूल्यह्ण का विचार है। सामाजिक व्यवस्था में हर व्यक्ति का अपना अपना योगदान है, पर राजनीतिक दृष्टि से यह योगदान तभी संभव है जब समाज और विचार दोनों प्रजातांत्रिक हों। आर्थिक कल्याण के लिए आर्थिक दृष्टि से भी प्रजातंत्र जरूरी है।आज लोकतांत्रिक और आधुनिक दिखाई देने वाला देश, अम्बेडकर के संविधान सभा में किये गए सत्त वैचारिक संघर्ष और उनके व्यापक दृष्टिकोण का नतीजा है, जो उनकी देख-रेख में बनाए गए संविधान में क्रियान्वित हुआ है, लेकिन फिर भी संविधान वैसा नहीं बन पाया जैसा अम्बेडकर चाहते थे, वह इस संविधान से खुश नहीं थे। आखिर अम्बेडकर आजाद भारत के लिए कैसा संविधान चाहते थे?शिक्षा, रोजगार और आरक्षणअम्बेडकर चाहते थे कि देश के हर बच्चे को एक समान, अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा मिले, चाहे व किसी भी जाति, पंथ या वर्ग का क्यों न हो। वे संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनवाना चाहते थे। देश की आधी से ज्यादा आबादी बदहाली, गरीबी और भुखमरी से जूझती अमानवीय जीवन जीने को अभिशप्त है। इस आबादी की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही अम्बेडकर ने रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने की वकालत की थी। संविधान में मौलिक अधिकार न बन पाने के कारण आज भी करोड़ों लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।बाबा साहब ने वंचित वगोंर् के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण दिए जाने की वकालत की थी ताकि उन्हें दूसरांे की तरह बराबरी के मौके मिल सकें। अगर शिक्षा, रोजगार और आवास को मौलिक अधिकार बना दिया जाता तो उन्हें आरक्षण की वकालत करने की शायद जरूरत ही न पड़ती।डा़ अम्बेडकर प्रजातांत्रिक सरकारों की कमी से परिचित थे, इसलिए उन्होंने साधारण कानून की बजाय संवैधानिक कानून को महत्व दिया। वर्तमान में हम देख रहे हैं कि किस प्रकार सरकारें अपने स्वार्थ और वोट-बैंक के लिए कानूनों की मनमानी व्याख्या करना चाहती हैं, इसके लिए हम उत्तर प्रदेश में ह्यअतिपिछड़ोंह्ण और ह्यअतिदलितोंह्ण या आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण और मतांंतरित ईसाइयों या मुस्लमानों के लिए रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट को देख सकते हैं जो सरकारों के हिसाब से तय होती हैं।मजदूर अधिकारों पर अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था केवल श्रम का ही विभाजन नहीं है यह श्रमिकों का भी विभाजन है। वंचितों को भी मजदूर वर्ग के रूप में एकत्रित होना चाहिए। मगर यह एकता मजदूरों के बीच जाति की खाई को मिटा कर ही हो सकती है। अम्बेडकर की यह सोच बेहद क्रांतिकारी है क्योंकि यह भारतीय समाज की सामाजिक संरचना की सहीऔर वास्तविक समझ की ओर ले जाने की कोशिश है।
राजनीतिक सशक्तिकरणअम्बेडकर वंचितों का राजनीतिक सशक्तिकरण चाहते थे। उसी का नतीजा है कि आज लोकसभा की 79 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए और 41 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित की गई हैं। सरकार ने संविधान संशोधन कर यह राजनीतिक आरक्षण 2026 तक कर दिया है। शुरू में आरक्षण केवल 10 वर्ष के लिए था। यह राजनीतिक आरक्षण इन समूहों का कितना सशक्तिकरण कर पाया है, यह आज के समय का एक बड़ा सवाल है। अपना जनसमर्थन खो देने के डर से कोई भी राजनीतिक दल इस पर चर्चा नहीं करना चाहता।देखा जाए तो दल-बदल कानून के रहते यह संभव ही नहीं है कि कोई वंचित-वनवासी विधायक या सांसद अपनी मर्जी से वोट कर सके। हमने देखा है कि कुछ साल पहले लोकसभा में ऐसे सांसदों ने एक फोरम बनाया था, इन वर्गों के अधिकारों के लिए, पार्टी लाइन से ऊपर उठकर। दल-बदल कानून के कारण वह बेअसर रहा है। अम्बेडकर दूरदर्शी नेता थे, उन्हें अहसास था कि इन समूहों को बराबरी का दर्जा पाने में बहुत समय लगेगा, वे यह भी जानते थे कि सिर्फ आरक्षण से सामाजिक न्याय सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।अम्बेडकर का पूरा जोर वंचित वर्गों में शिक्षा के प्रसार और राजनीतिक चेतना जगाने का रहा है। आरक्षण उनके लिए एक सीमाबद्ध योजना थी। दुर्भाग्य से आज उनके अनुयायी इन बातों को भुला चुके हैं। बड़ा सवाल यह है कि स्वतंत्रता के 67 सालों बाद भी अगर भारतीय समाज इन वंचित-वनवासी समूहों को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाया है, तो जरूरत है पूरे संवैधानिक प्रावधानों पर नई सोच के साथ देखने की, ताकि इन वर्गों को सामाजिक बराबरी के स्तर पर खड़ा किया जा सके।अम्बेडकर का मत था कि राष्ट्र व्यक्तियों से होता है, व्यक्ति के सुख और समृद्धि से राष्ट्र सुखी और समृद्ध बनता है। डा़ अम्बेडकर के विचार से राष्ट्र एक भाव है, एक चेतना है, जिसका सबसे छोटा घटक व्यक्ति है और व्यक्ति को सुसंस्कृत तथा राष्ट्रीय जीवन से जुड़ा होना चाहिए। राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए अम्बेडकर व्यक्ति को प्रगति का केन्द्र बनाना चाहते थे। वह व्यक्ति को साध्य और राज्य को साधन मानते थे।डा़ अम्बेडकर ने इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का सही और साफ आकलन किया। उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी आर्थिक-राजनीतिक क्रांति से पहले एक सामाजिक -सांस्कृतिक क्रांति की दरकार है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी अपनी विचारधारा में ह्यअंत्योदयह्ण की बात कही है। अंत्योदय यानी समाज की अंतिम सीढ़ी पर जो खड़ा हुआ है, सबसे पहले उसका उदय होना चाहिए। राष्ट्र को सशक्त और स्वावलंबी बनाने के लिए समाज की अंतिम सीढ़ी पर जो लोग हंै उनका सोशियो इकोनॉमिक डेवलपमेंट करना होगा। किसी भी राष्ट्र का विकास तभी अर्थपूर्ण हो सकता है जब भौतिक प्रगति के साथ साथ आध्यात्मिक मूल्यों का भी संगम हो।जहां तक भारत की विशेषता, भारत की संस्कृति का सवाल है तो यह विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है। भारतीय संस्कृति को समृद्ध और श्रेष्ठ बनाने में सबसे बड़ा योगदान वंचित समाज के लोगों का है। इस देश में आदि कवि कहलाने का सम्मान केवल महर्षि वाल्मीकि को है, शास्त्रों के ज्ञाता का सम्मान वेदव्यास को है। भारतीय संविधान के निर्माण का श्रेय अम्बेडकर को जाता है। वर्तमान में कुछ देशी-विदेशी शक्तियां हमारी इन सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहरों को हिंदुत्व से अलग करने की योजनाएं बना रही हैं। अब कुछ लोगों द्वारा यह सिद्व करने का प्रयास किया जा रहा है कि डा़ अम्बेडकर ने मार्क्स के विचारों का विस्तार किया है। उन्होंने समाज परिवर्तन की मार्क्सस्टि प्रणाली में कुछ नई बाते जोड़ी हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, वे भूल जाते हैं कि मार्क्स का दर्शनकेवल दो तीन सौ साल पहले का है। मार्क्स की पंूजीवादी व्यवस्था में जहां मुट्ठीभर धनपति शोषक की भूमिका में उभरते हैं वहीं जाति और नस्लभेद व्यवस्था में एक पूरा का पूरा समाज शोषक तो दूसरा शोषित के रूप में नजर आता है, जिसका समाधान अम्बेडकर सशक्त हिंदू समाज में बताते हैं, क्योंकि वह जानते थे कि हिंदू धर्म न तो इसे मानने वालों के लिए अफीम है और न ही यह किसी को अपनी जकड़न में लेता है। वस्तुत: यह मानव को पूर्ण स्वतंत्रता देने वाला है। यह चिरस्थायी विकास, संपन्नता तथा व्यक्ति व समाज को संपूर्णता प्रदान करने का एक साधन है।शायद मार्क्सवादियों को एक भारतीय नायक की जरूरत है और अम्बेडकर से अच्छा नायक उन्हे कहां मिलेगा, इसलिए वह उनका का पेटेंट करवाने में जुट गए हैं। डा़ अम्बेडकर के पास भारतीय समाज का आंखों देखा अनुभव था, तीन हजार वर्षों की पीड़ा भी थी। इसलिए अम्बेडकर सही अथांर्े में भारतीय समाज की उन गहरी वस्तुनिष्ठ सच्चाइयों को समझ पाते हैं जिन्हें कोई मार्क्सवादी नहीं समझ सकता।अम्बेडकर का सपना था कि समतामूलक समाज हो, शोषण-मुक्त समाज हो। दरअसल आज उनका यही सपना सबसे ज्यादा प्रासंगिक है और इसी के कारण अम्बेडकर भी सबसे ज्यादा प्रासंगिक हंै। उनके समूचे जीवन और चिंतन के केंद्र में यही एक सपना है। एक जातिविहीन, वर्गविहीन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषमताओं से मुक्त समाज। ऐसा समाज बनाने के लिए हिंदू समाज का सशक्तिकरण सबसे पहली प्राथमिकता होगी। यही अम्बेडकर की सोच और संघर्ष का सार है। आज अम्बेडकर इस देश के संघर्षशील और परिवर्तनकारी समूहों के हर महत्वपूर्ण सवाल पर प्रासंगिक हंै इसी कारण वह विकास के लिए संघर्ष के प्रेरणास्रोत भी बन गए हैं।आज हिंदुत्व के सहारे ही समाज में एक जन-जागरण शुरू किया जा सकता है,जिसमें हिंदू अपने सभी मतभेदों से ऊपर उठकर स्वयं को विराट -अखंड हिंदुस्थानी समाज के रूप में संगठित कर भारत को एक महान राष्ट्र बना सकते हैं। ल्ल लेखक पूअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष हैं
टिप्पणियाँ