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घबराहट की मुनादी

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May 3, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 May 2014 16:29:09

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री-

शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के परिवार की एक खूबी है जिसकी तारीफ करनी होगी। वे जो कुछ भी करते हैं डंके की चोट पर करते हैं और उसको कभी छिपाने की कोशिश नहीं करते। परिवार के वर्तमान सदस्यों ने यह खासियत यकीनन अपने पुरखे शेख अब्दुल्ला से ही पाई होगी। यह शेख अब्दुल्ला ही थे जिन्होंने प्रदेश की पहली विधानसभा के लिये में हुये चुनावों में सभी विरोधियों के नामांकन पत्र रद्द करवाकर सभी सीटें बिना चुनाव के ही जीत ली थीं और लोकतंत्र का ह्यअब्दुल्लाकरणह्ण कर दिया था। पंडित नेहरू लोकतंत्र के इस ह्यसशक्तिकरणह्ण को देखकर दिल्ली में कई दिन नाचते रहे थे । शेख के परिवार की बागडोर अब उनके बेटे फारुख अब्दुल्ला और उससे भी नीचे उमर अब्दुल्ला तक पहुंच गई है और नेहरू परिवार की बागडोर अनेक घुमावदार रास्तों से होती हुई फिलहाल इटली की सोनिया गांधी और उनकी संतानों के पास है। वैसे केवल रिकार्ड के लिये गता दें, विदेशी छौंक अब्दुल्ला परिवार में भी लग चुका है। उमर क ी माता जी विदेशी मूल क ी हैं। जिन दिनों फारुख अब्दुल्ला सक्रिय राजनीति में नहीं थे, विदेश में रह कर राजनीति का ककहरा ही पढ़ रहे थे, तो वे बिना किसी से छिपाये, पाक कब्जे वाले जम्मू कश्मीर में जे. के. एल. एफ. के कार्यक्रमों में शामिल होते थे। अब यह किसी से छिपाने की जरूरत नहीं कि जे. के. एल. एफ. ने उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करवाने के लिये अपना मोर्चा खोला था । वैसे हो सकता है कि फारुख अब्दुल्ला अब यह भी कहना शुरू कर दें कि वहां सेक्युलरिज्म के पाठ पढ़ने जाते थे।
इन दिनों नई लोकसभा के लिये चुनाव हो रहे हैं, इसलिये देश की राजनीति का माहौल भी गर्म होने लगा है। इस माहौल में फारुख अब्दुल्ला पिछले दिनों कश्मीर घाटी में यह कहते घूम रहे थे कि उन्हें इस बात का बहुत ही दुख है कि ह्यचुनाव में आतंकवादी उनके साथ नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो मैं कहीं से बम और पिस्तौल ले पाता और विरोधियों को मजा चखा देता।ह्ण पत्रकारों से बातचीत करते हुये उन्होंने कहा कि उनके विरोधी इसी काबिल हैं कि उन्हें सबक सिखाया जाये और उनसे बदला लिया जाये। लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि वे विरोधियों को सबक आतंकवादियों की सहायता से पिस्तौल से सिखाना चाहते हैं। वैसे तो विरोधियों को निपटाने का आसान तरीका अब्दुल्ला परिवार ने पहले ही खोज लिया था और उसका लम्बे अरसे तक फल भोगा था। वह था विरोधियों के थोक के भाव नामांकन पत्र ही रद्द करवा देना। लेकिन अब शायद इक्कीसवीं शताब्दी में ऐसा संभव नहीं है। चुनाव आयोग भी सख्त हो गया है । इटली का फासीवाद भी अब मदद कर नहीं पायेगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अब्दुल्ला परिवार ऐसी स्थिति में हाथ पर हाथ धरे बैठ जायेगा। अब वह विरोधियों को निपटाने के लिये आतंकवादियों और बम- पिस्तौलों की तलाश कर रहा है। यह विचार जरूर फारुख अब्दुल्ला को अपने जे. के. एल. एफ. के दिनों के अनुभव से मिला होगा। लेकिन फारुख को संकट की इस घड़ी में,चुनावों में सहायता के लिये आतंकवादी क्यों नहीं मिल रहे, इसका उत्तर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला,जो इस वक्त जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं, ने दिया है। उन्होंने बहुत दुख से,एक प्रकार से शोक संदेश प्रसारित करते हुये कहा कि जिन दिनों नेशनल कान्फ्रेंस सत्ता में नहीं थी, उस समय प्रदेश सरकार ने तीस से भी ज्यादा आतंकवादी मार गिराये थे। उमर ने इन आतंकवादियों को मार दिये जाने का एक ही कारण बताया कि वे आतंकवादी हम से बातचीत कर रहे थे । उनके अनुसार यह बातचीत उनके मुख्यधारा में वापस आने को लेकर हो रही थी। वे आतंकवादी किस प्रकार की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते थे और फारुख तथा उमर उन को किस मुख्यधारा में शामिल करना चाहते थे, इसका खुलासा तो फारुख अब्दुल्ला ने चुनाव में बह रही विपरीत हवा को देख कर ही किया है। आज यदि मुख्यधारा में लौट आये वे आतंकवादी जिन्दा होते तो फारुख अब्दुल्ला को विरोधियों से भिड़ने के लिये स्वयं बम-पिस्तौल उठाने की इच्छा न जाहिर करनी पड़ती।
लेकिन इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि घाटी में बरपे आतंकवाद के दिनों में नेशनल कान्फ्रेंस किस तरीके से चुनाव जीतती थी और सत्ता प्राप्त करती थी। नेशनल कान्फ्रेंस को सत्ता या तो नेहरू खानदान की कृपा से मिलती रही या फिर आतंकवादियों की प्रत्यक्ष परोक्ष कृपा से। नेहरू के दबाव में महाराजा हरि सिंह ने बिना किसी लोकतांत्रिक चुनाव के शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी थी। पहला चुनाव धांधली से जीता, उसके बाद इंदिरा गांधी की मदद से फिर सत्ता मिली। आपातस्थिति के बाद हुये चुनावों में जरूर शेख अब्दुल्ला अपने बल बूते चुनाव जीते, लेकिन इसके साथ ही यह भी दिन के उजाले की तरह साफ हो गया कि कश्मीर घाटी के बाहर अब्दुल्ला परिवार और नेशनल कान्फ्रेंस का सिक्का नहीं चलता। इतना ही नहीं पांच साल के इस एक ही शासनकाल में जनता को भी शेख अब्दुल्ला की असलियत पता चल गई। उनके पारिवारिक भ्रष्टाचार के चलते जनता उन्हें सबक सिखाने के लिये आमादा हो गई। उसके बाद फिर चुनावों में बदस्तूर धांधलियां शुरू हो गईं। फर्क सिर्फ इतना था कि अब जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस मिल कर धांधलियां कर रहे थे और सत्ता भी आपस में मिल-बांटकर खा रहे थे।
लेकिन समय के साथ कश्मीर घाटी में ही सत्ता के दूसरे दावेदार उभरने लगे । इनमें से कुछ तो दबाव समूह हैं और कुछ राजनैतिक दल। घाटी में गुज्जर और बकरबाल राजनीति में ही हाशिए पर नहीं हैं बल्कि वहां के सामाजिक जीवन में भी उपेक्षित हैं। अब उन्होंने भी सत्ता में भागेदारी के लिये अपने वोट को तौलना शुरू कर दिया है। घाटी का शिया समाज सदा से सुन्नी मुसलमानों के निशाने पर रहता है। जब नेशनल कान्फ्रेंस को घाटी में मुसलमानों की संख्या बढ़ा कर दिखाना होती है तो शिया समाज को मुसलमान बताया जाता है और जब वे राजनैतिक सत्ता मे भागीदारी मांगते हैं तो उन्हें मूर्तिपूजक बताया जाता है। पी डी पी और आम आदमी पार्टी के भी मैदान में होने के कारण नेशनल कान्फ्रेंस का घाटी पर से एकाधिकार खत्म होने जा रहा है। इसलिये फारुख अब्दुल्ला बम-पिस्तौल के लिये आहें भर रहे हैं और सहायता के लिये आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं। विरोधियों को सबक सिखाने के लिये उन्हें आतंकवादी मिले या नहीं, यह तो वे ही बेहतर जानते होंगे, लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस का विरोध करने वाले एक सरपंच की निर्मम हत्या जरूर हो गई है। वैसे भी जिन दिनों फारुख स्वयं जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे तो उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों पर आतंकवादियों से सम्बंध रखने के आरोप लगते रहते थे। नेशनल कान्फ्रेंस को पिछले तीन दशकों में घाटी में भी कभी इतना जन समर्थन नहीं मिला कि वे अपने बलबूते सरकार बना और चला सके। उसे कन्धों पर ढोकर सरकार चलाने का अधिकार सोनिया गांधी की पार्टी ही देती है। सोनिया गान्धी की पार्टी घाटी में से तो कोई सीट जीत नहीं पाती। वह जम्मू संभाग से मत प्राप्त करके, उन्हें नेशनल कान्फ्रेंस की झोली में डाल कर जम्मू संभाग को घाटी का बंधुआ बना देती है जिसका दुष्परिणाम जम्मू व लद्दाख संभाग के अतिरिक्त घाटी के अल्पसंख्यकों, जनजातियों और शिया समाज को भुगतना पड रहा है।

शेख अब्दुल्ला के परिवार को अपने कंधों पर ढोने के पीछे नेहरू परिवार की क्या विवशता है, यह तो कोई नहीं जानता, लेकिन इतना स्पष्ट है कि फारुख-उमर, दोनों को विश्वास हो चला है कि इस बार सोनिया गांधी की पार्टी भी उन्हें सत्ता की मंजिल तक पहुंचा नहीं पायेगी, क्योंकि बकौल उमर अब्दुल्ला, देश में नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही है। इसलिये लगता है विरोधियों को केवल हराने के लिये ही नहीं, बल्कि उन्हें जिन्दगी भर का सबक सिखाने के लिये फारुख अब्दुल्ला घाटी में पिस्तौल और आतंकवादियों की तलाश में निकले हैं। आड़े वक्त में वही तो काम आयेंगे।
आमतौर पर माना जाता है कि चुनाव के दिनों में नेता जो बोलते और कहते हैं, उसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, क्योंकि उन्हें बहुत सी बातें अपनी राजनैतिक विवशता के चलते कहनी पड़ती हैं। परन्तु इस के बावजूद किसी भी पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं के भाषणों और उनकी बातों के प्रत्यक्ष और परोक्ष अथोंर् को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। अनेक बार उनके ये भाषण प्रत्यक्ष रुप से उस पार्टी की मूल विचारधारा, कार्यनीति और व्यवहार को भी इंगित करते हैं। इस पृष्ठभूमि में सोनिया गांधी की पार्टी और केन्द्र में सत्ता-सुख भोग रहे फारुख अब्दुल्ला और जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री बने बैठे उनके सुपुत्र उमर अब्दुल्ला के हाल ही में दिये गये भाषणों और उनके उद्गारों का विश्लेषण करना जरूरी है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा है कि वह संघीय संविधान के अनुच्छेद 370 के मामले में सभी से बातचीत करेगी और पार्टी इस अनुच्छेद को समाप्त करने की अपनी वचनबद्घता दोहराती है। वैसे भी जहां तक राज्य की आम जनता का ताल्लुक है, वह तो इस अनुच्छेद के कारण पैदा हुये भेदभाव की चक्की में बुरी तरह पिस रही है। जो मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिले हुये हैं, उनसे राज्य की जनता
को वंचित रखा जा रहा है। वे सभी अधिकार और सुविधाएं, जो अन्य सभी को, विशेषकर वंचित वर्ग और पिछड़े वगोंर् को मिलती हैं, जम्मू कश्मीर में नहीं मिल रहीं। ऐसा नहीं कि फारुख और उमर, दोनों इस अनुच्छेद के कारण राज्य की आम जनता को हो रहे नुकसान को जानते न हों। लेकिन इसके बावजूद वे अड़े हुये हैं कि इसकी रक्षा के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो और दो कदम आगे निकल गये। उन का कहना है कि लोकसभा में कोई पार्टी चाहे कितनी भी सीटें क्यों न जीत ले, लेकिन वह अनुच्छेद को हाथ नहीं लगा सकती। यदि कोई सरकार अनुच्छेद को समाप्त करने के लिये सांविधानिक विधि का प्रयोग भी करती है तो उन्हें (अब्दुल्ला परिवार को) इस बात पर नये सिरे से विचार करना होगा कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा रहे या न रहे। उधर उनके पिता बोल रहे हैं कि ह्यजब तक मेरे शरीर में खून का अन्तिम कतरा है, तब तक मैं अनुच्छेद 370 को समाप्त नहीं होने दूंगा।ह्णउन्होंने धमकी तक दी कि जब तक नेशनल कान्फ्रेंस का एक भी कार्यकर्ता जिन्दा है तब तक अनुच्छेद की ओर कोई आंख उठाकर नहीं देख सकता। वैसे तो फारुख अब्दुल्ला केन्द्रीय सरकार में मंत्री हैं, लेकिन जैसे ही वे बनिहाल सुरंग पार कर घाटी में प्रवेश करते हैं, उन की भाषा धमकियों की हो जाती है और धमकियां भी वे चीन और पाकिस्तान,जो राज्य के दो हिस्सों-गिलगित और बाल्टिस्तान-के लोगों, खासकर शिया समाज, का दमन कर रहे हैं, को न देकर भारत को ही देने लगते हैं। उनका मानना है कि लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने का अर्थ होगा,अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का समर्थन करना। इसलिये वे पूरी घाटी में लोगों को ललकारते घूम रहे हैं कि लोग मोदी का समर्थन न करें। अपनी पार्टी नेशनल
कान्फ्रेंस की नीतियां जनता को बताने और उस आधार पर समर्थन मांगना भी उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन चुनाव परिणामों के आधार पर यह कहना कि जम्मू कश्मीर देश का हिस्सा नहीं रहेगा, यह देशद्रोह ही नहीं बल्कि देश के शत्रुओं का परोक्ष समर्थन करना ही कहा जायेगा।
दरअसल इस बार चुनावों में राज्य की आम जनता ही अनुच्छेद 370 को लेकर अब्दुल्ला परिवार से प्रश्न पूछ रही है। पार्टी के गुज्जर-बकरवाल, बल्ती, शिया और जनजातीय समाज तो इस मामले में बहुत ज्यादा मुखर है । ये सभी पूछ रहे हैं कि साठ साल में इस अनुच्छेद से उन्हें क्या लाभ मिला? जनता के इन प्रश्नों का अब्दुल्ला परिवार के पास कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है। संतोषजनक
उत्तर न दे पाने के कारण ही पिता-पुत्र धमकियों पर उतर आये हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो धमकियां देते काफी आगे निकल गये। उन्होंने कहा, यदि मोदी सत्ता में आते हैं तो उनको समर्थन देने की बजाय मेरे लिये पाकिस्तान चले जाना ही श्रेयस्कर रहेगा। वैसे पाकिस्तान चले जाने से पहले यदि उमर अब्दुल्ला उन कश्मीरी भाषी मुसलमानों, जो बार बार कभी इस बस में और कभी बिना बस के ही सरहद पार आते जाते रहते हैं, से थोड़ी पूछताछ कर लेते कि इनकी पाकिस्तान के मालिकों ने क्या दुर्दशा की, तो शायद अपना पाकिस्तान जाने का इरादा जगजाहिर करने से पहले वे सौ बार सोचते। शेख अब्दुल्ला ने अपने जिन मित्रों को जबरदस्ती या धोखे से पाकिस्तान में धकेल दिया था, उनका वहां क्या हश्र हुआ, यह सब जानते हैं। परन्तु फारुख और उमर का अनुच्छेद 370 से इतना मोह हो गया है कि वे उसकी गैर हाजिरी में पाकिस्तान की ओर दौड़ रहे हैं। घाटी में खिसकता जनसमर्थन देख कर और वहां के लोगों द्वारा अनुच्छेद 370 को लेकर पूछे जा रहे तीखे प्रश्नों से घबराकर यह अब्दुल्ला परिवार का ब्लैकमेल करने का पुराना तरीका ही है या फिर सचमुच ही सरहद के पार चले जाने का इरादा, इसका पता तो चुनाव परिणाम आ जाने के बाद ही चलेगा । कश्मीर घाटी के लोगों समेत देश के बाकी लोगों की नजर भी इसी पर लगी हुई है।

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